सत्य की खोज में

Friday, July 8, 2011

मैं और मेरा डॉगी

27 जून 2011 : हमारी खुशकिस्मती है कि हम बोल सकते हैं। जरा सोचिये उन बेजुबानों के बारे में जिनके पास इंसानों की तरह सब कुछ है यहाँ तक कि दिमाग भी। परंतु वह इंसान की भाषा में बोल नहीं सकते। हाँ, अपनी भाषा में अवश्य बोलते हैं। पर क्या आप जानते हैं कि कई बार हमें पढ़े-लिखे लोग वह नहीं समझा पाते जो एक बेजुबान जानवर हमें सिखा देता है ........ वे बेजुबान हैं पर ना समझ नहीं। वे भी समझते हैं  कि कौन उनसे प्यार करता है और कौन नफरत ........... कई बार एक बौद्धिक व्यक्ति की तुलना में बेजुबान जानवर हमें जीवन का वह पाठ पढ़ा देते हैं जो जीवन जीने के लिए आवश्यक है। जानवरों की हरकतें केवल मस्ती करने के लिए नहीं है बल्कि उससे बहुत कुछ सीखा भी जा सकता है।
 
मैं कभी भी पशु प्रेमी नहीं रहा। इसके बावजूद मेरे घर में तीन साल से एक डॉगी और एक तोता पल रहा है। दो महीने पूर्व घर में एक एक्वेरियम भी आ गया । इसमें विभिन्न प्रकार की रंग-बिरंगी मछलियां अठखेलियाँ करती हैं। मुझे ऐसा लगता है कि एक दिन हमारा घर मिनी-जू में तब्दील हो जाएगा। इनमें से पिछले कुछ दिनों से डॉगी के प्रति मेरा काफी लगाव हो गया है। डॉगी का नाम हम लोगों ने जिम्मी रखा। जिम्मी के व्यवहार ने आज मुझे इतना झकझोर दिया कि जो भी मेरा परिचित मुझ से मिल रहा है, मैं उससे उसी (डॉगी) की चर्चा कर रहा हूँ।
 
बचपन से लेकर आज तक मेरे बेटे की दिलचस्पी जानवरों व पक्षियों में रही है। तीन साल पूर्व घर में बेटा एक पिल्ला व तोता लाया। मेरे अलावा मेरी पत्नी, पुत्रवधु अर्थात बेटे के अलावा परिवार के सभी सदस्यों ने पशु -पक्षी लाने का विरोध किया। इस पर बेटा मायूस होने लगा तो हम लोगों का दिल पसीजा और हमने उन्हें पालने की हामी भर दी। इसके बाद चाहे-अनचाहे उनके खाने-पीने पर हम सभी लोग ध्यान देने लगे। धीरे-धीरे हम सभी का उनके प्रति लगाव सा हो गया।
जिम्मी के खाने-पीने व रहने के ढंग को देखकर मैं उसके बारे में प्रायः टिप्पणी करता हूँ कि यह पिछले जन्म में जरूर कोई अच्छा इन्सान रहा होगा लेकिन इससे जाने-अनजाने में कोई ऐसा अपराध हो गया होगा जिससे इसे डॉगी (कुत्ते) की योनि में जन्म लेना पड़ा।

मैं सुबह नाश्ते में प्रायः सेव व अँकुरित मूंग खाता हूँ। जैसे ही मैं नाश्ता करने बैठता हूँ जिम्मी मेरे पास आकर बैठ जाता है। मैं भी अपने नाश्ते में से उसे खिलाता हूँ। इसी बीच यदि मेरा ध्यान टेलीविजन देखने या अखबार पढने अथवा अन्य किसी काम में चला जाये और उसे खिलाना भूल जाऊं तो वह भौंककर मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। लेकिन पेट भरते ही वह वहाँ से चला जाता है। आज भी ऐसा ही हुआ। अभी मेरा नाश्ता  समाप्त नहीं हुआ कि वह मेरे पास से जाने लगा। मैंने उसे आवाज दी। वह मेरे पास नहीं आया और दूर जाकर बैठ गया। आज उसके इस व्यवहार ने मुझे झकझोर दिया और मुझको अहसास कराया कि मुझ से तो यह जिम्मी ज्यादा समझदार है। उसका पेट भर गया तो उसने खाना बन्द कर दिया। एक मैं हूँ कि पेट भर जाने के बाद भी यदि कोई थोड़ा सा कुछ लेने के लिए आग्रह करे तो मना नहीं कर पाता, भले ही बाद में अधिक खाने से कोई परेशानी हो। खाने को लेकर मेरी यह हालत तब है जब कि डायबटीज की बीमारी के कारण डाक्टर ने मुझे हमेशा भूख से कम खाने की सलाह दी है। इसके बावजूद मैं चाहे-अनचाहे सुबह इतना अधिक खा लेता हूँ कि दोपहर में भूख नहीं लगती फिर भी लंच खा लेता हूँ।

आज भी सेव व अंकुरित मूंग का नाश्ता खत्म हुआ था कि रोजाना की तरह बहु दो चपाती व सब्जी ले आयी। इसके बाद एक परांठा और ले आयी। मैंने मना भी किया। उसने थोड़ा आग्रह किया कि मैंने उस परांठे को भी ले लिया। जिस दिन मैं दो रोटी के बाद एक रोटी या परांठा और खा लेता हूँ तो पूरे दिन परेशान रहता हूँ इसके बावजूद खाने की इस नुकसानदायक आदत को नहीं छोड  पाया।

माना जाता है कि व्यक्ति अपनी आदतों के वशीभूत रहता है। अच्छी आदतें उससे अच्छा कार्य करवाती हैं और बुरी आदतें बुरा। ऐसा ही भोजन के क्षेत्र में भी है। भोजन की भी अच्छी और बुरी आदतें होती हैं। आवश्यकता से अधिक खाना बुरी आदत है। भोजन की अच्छी आदत है सन्तुलित और अपनी आवश्यकतानुसार खाना। ऐसा नहीं है कि बुरी आदत को छोड़ा नहीं जा सकता। इसके लिए प्रयास करना पड ता है और संकल्प लेना पड़ता  है। जिसका संकल्प जितना दृढ  हो वह उतनी जल्दी उससे मुक्ति पा जाता है। कमजोर संकल्प वाले बार-बार संकल्प लेते हैं और बार-बार तोडते हैं। खाने के मामले में मैंने भी अपनी आदतों को सुधारने के लिए कई बार संकल्प लिये। उनका थोड़ा-बहुत प्रभाव पड़ा भी है। लेकिन जितना पडना चाहिए उतना नहीं।

मेरे डॉगी ने आज मुझे वो सिखाया जो एक बौद्धिक व्यक्ति अपने तर्क-वितर्क के जरिये भी मुझे नहीं सिखा पाया। मैनें अपने डॉगी से आवश्यकता से अधिक न खाने का पाठ पढ़ा । मैनें संकल्प लिया कि आज से मैं उतना भोजन ग्रहण करूंगा जितना आवश्यक है। स्वस्थ जीवन जीने के लिए जरूरी है कि हम बार-बार बीमार न पड़े । अगर मैं अधिक खाना नहीं खाऊँगा तो रोज-रोज की बीमारी से छुटकारा मिलेगा और एक स्वस्थ और संतुलित जीवन जी सकूंगा। लेकिन यह सब तभी हो सकता है जब मैं अपने संकल्प पर दृढता से कायम रह सकूँ। अगर मेरा प्रण पूरा होता है तो इसका सम्पूर्ण श्रेय मेरे डॉगी जिम्मी को जाएगा।

Tuesday, April 5, 2011

बहुत से लोग वंचित रह गये क्रिकेट विश्व कप की जीत का जश्न मनाने से


टीम इन्डिया की विश्व कप क्रिकेट में ऐतिहासिक जीत की ख़ुशी  में पूरे देश  में जोरदार जश्न मनाया गया। जगह-जगह पर ढोल-नगाड़े बजे, आतिशबाजी छूटी। इस जश्न में देश की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक देश की अधिकतर छोटी-बड़ी हस्तियों ने हिस्सा लिया। टी.वी. चैनल व अखबारों की मानें तो इससे आमों खास कोई अछूता नहीं रहा। खिलाडियों पर पूरे देश से बधाइयों व पुरस्कारों की बरसात अभी तक जारी है।




लेकिन देश में ऐसे बहुत से लोग हैं जो इस जश्न का हिस्सा नही बन पाये। ऐसा नहीं है कि ये लोग किसी खास समुदाय के हैं या ये देशभक्त नहीं हैं या इनकी रूचि क्रिकेट में नहीं है। बल्कि ये सभी लोग भी जश्न मनाना चाहते हैं। अपना देश जीतने पर कौन जश्न मनाना नही चाहेगा।

मैं प्रत्येंक माह के पहले रविवार को अपने पडोसी मिश्रा जी से मिलने जाता हूँ। इस बार भी गया। मिश्रा जी नास्ता  कर रहे थे। सामने टी.वी. बन्द पड़ा  था। मैंने पूछा - ''टी.वी. क्यों बन्द कर रखा है? क्या टी.वी. खराब है? उन्होंने लम्बी सांस लेते हुए कहा,-''टीवी तो ठीक है। कल रात से हर चैनल पर क्रिकेट विश्व कप की जीत के जश्न मनाने की खबरें आ रही हैं। मैं तो बहुत परेशान  हूँ क्रिकेट की लाइव टेलीकास्ट से। एक माह से अधिक हो गया टीवी पर क्रिकेट ही क्रिकेट।''


उन्होंने अपनी पीडा का खुलासा करते हुए कहा - बच्चों की बोर्ड की परीक्षाएं चल रही हैं। हम टी.वी. पर क्रिकेट देखें और मजा लें तथा बच्चों को देखने के लिए मना करें तो क्या यह उचित हैं? क्या उनका मन मैच देखने का नहीं करेगा? अभी क्रिकेट विश्व कप टूर्नामेंट का जुनून समाप्त हुआ नहीं है कि आठ अप्रैल से आई.पी.एल. क्रिकेट शुरू  हो जायेगा। 10 अप्रैल को मेरे बेटे की आई.आई.टी. में एडमिशन  लेने के लिए प्रवेश परीक्षा है। उसके बाद 16-17 अप्रैल को उत्तर प्रदेश राज्य की इन्जीनियरिंग प्रवेश परीक्षा है। क्या सरकार को पता नहीं है कि मार्च-अप्रैल के महीनों में केन्द्र व प्रदेश सरकार की बोर्ड की परीक्षाएं होती हैं। बोर्ड की इन परीक्षाओं के बाद इन्जीनियरिंग व मेडीकल में एडमिशन लेने के लिए विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएँ रहती हैं। क्रिकेट के इस लाइव टेलीकास्ट से केवल हम ही परेशान नहीं है। आप अनुमान लगा सकते हैं कि पूरे देश  में हमारे जैसे कितने माता-पिता इससे परेशान होंगे।



मैंने उनसे पूछा कि इस समस्या का समाधान क्या है? वे बोले-'' इसका समाधान तो है लेकिन करेगा कोई नहीं। क्योंकि इससे सरकार, बड़ी-बडी कम्पनियों, खिलाडियों व मीडिया की तो मोटी कमाई होती है।


हाँ, इसका एक समाधान है। कोई समाज सेवी सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करें तो सुप्रीम कोर्ट जरूर इसे गम्भीरता से लेगी। कोर्ट के आदेश से ही इस पर अंकुश लग सकता है।''


मैं मिश्रा जी की बातों को सुनकर गम्भीरता से उनकी बातों पर विचार करने लगा।

देश में मिश्रा जी जैसे करोडों लोग होंगे। मिश्रा जी शायद इससे इतने दुःखी न भी होते यदि कुछ टी.वी. चैनलों ने अति न की होती। अपने देश  के निजी टी.वी. चैनलों में पिछले एक सप्ताह से एक अरब से ज्यादा आबादी वाले इस महादेश में क्रिकेट की जंगी उत्तेजना के अलावा कोई खबर ही नहीं दिखी बल्कि विज्ञापनों की आंधी और युद्धोन्मादी झंझावात ने मिलकर छोटे परदे पर सुनामी सा ला दिया।

समस्या तो गम्भीर है। समस्या का समाधान शायद एक झटके में न निकले। लेकिन किसी निष्कर्ष   पर पहुंचने के लिए इस पर बहस तो छिड ही सकती है। गौरतलब है कि अमेरिका व चीन जैसे बडे कई देशों  में क्रिकेट नहीं खेला जाता।

Friday, April 1, 2011

देश की साक्षरता में इजाफा

देश के महापंजीयक व जनगणना आयुक्त सी० चन्द्रमौली ने जनगणना 2011 के आंकड़े जारी किये हैं। अब देश की साक्षरता 65 से बढ कर 74 प्रतिशत  हो गयी है। यह ख़ुशी  की बात है मगर .........................।


हर दस साल में होने वाली जनगणना देश की आजादी के बाद पहली बार सन्‌ 1951 में हुई थी, उस समय देश की साक्षरता मात्र 19 फीसदी थी जो कि बढते-बढते 60 वर्ष  में 74 फीसदी हो गयी। जनगणना के आकड़े  बताते हैं कि इन साठ सालों में साक्षरता में सबसे अधिक इजाफा सन्‌ 1991 से 2001 के दशक  में हुआ। इस अवधि में इजाफा 13 फीसदी हुआ। अबकी बार जो साक्षरता में 9 फीसदी की वृद्धि हुई है वह तुलानात्मक दृष्टि  से पिछली बार से कम है। यह एक विचारणीय प्रश्न  है कि इस मामले में हम नकारात्मक धारा में क्यों आ गये।

Thursday, March 31, 2011

काश, शतक बनाने की होड़ क्रिकेट के अलावा अन्य सुखद गतिविधियों में भी होती

 जब क्रिकेट मैच होते हैं तो पूरा देश  क्रिकेटमय हो जाता है, क्रिकेट के रोमांच में डूब जाता है ।  जीवन की सारी गतिविधियाँ एक तरफ और क्रिकेट मैच एक तरफ। हर तरफ लोग टी.वी., रेडियो, कम्प्यूटर, मोबाइल पर आँख-कान लगाए दिखते हैं। आपस में मिलने पर पहली बात स्कोर की करेंगे, अभिवादन बाद में । लोगों में क्रिकेट के प्रति इतना जोश और जुनून होता है जिससे  मैच वाले दिन लोग घरों, आफिसों में टी.बी. से चिपककर बैठ जाते हैं व सडकों पर सन्नाटा छा जाता है और कभी-कभी तो अघोषित कर्फ्यू जैसी  स्थिति   हो जाती है।

क्रिकेटरों के लिए शतक बनाना बहुत बड़ी  उपलब्धि होती है। इस पर मीडिया में बड़ी बड़ी  सुर्खियाँ बनती हैं। उस खिलाड़ी  का नाम खेलों के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है । इसलिए खिलाडियों में रनों का शतक और शतक के बाद अगला शतक बनाने की होड़  लगी रहती है। सचिन तेंदुलकर एक ऐसे महान बल्लेबाज हैं जो शतकों का शतक बनाने में मात्र एक शतक   पीछे  हैं ।  क्रिकेटरों के इस स्वभाव से प्रेरित होकर यदि सभी लोग जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी शतक बनाएं तो देश का स्वरुप  ही   बदल जाएगा।


व्यक्ति की बुनियादी आवश्यकता  है - रोटी, कपड़ा  और मकान जिन्हें  शिक्षा , स्वास्थ्य, सुरक्षा और न्याय के द्वारा प्राप्त  किया जा सकता है। किसी भी देश में जिस दिन सभी लोग  शिक्षित, स्वस्थ, सुरक्षित हो जाएंगे और उन्हें न्याय मिलने लगेगा उस दिन लोगों की रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या स्वतः समाप्त हो जायेगी। इससे न केवल लोगों की रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या हल होगी बल्कि देश नई-नई ऊँचाईया छूने लगेगा ।  काश, व्यक्तियों में ऐसा कुछ योगदान देने की होड़ होती कि जिस क्षेत्र - गाँव, क़स्बा, शहर, प्रदेश में वे हैं  उस क्षेत्र में लोग शत-प्रतिशत  साक्षर, निरोगी व सुरक्षित हों और उन्हें शत-प्रतिशत ‌ न्याय मिले। 

देश की साक्षरता 65 प्रतिशत है। केरल शत-प्रतिशत  साक्षर प्रदेश  होने का तमगा हासिल कर चुका है। काश , यह होड़ देश के अन्य प्रदेशों  में होती कि साक्षर प्रतिशतता   के मामले में वह भी शतक बनाये यानि शत-प्रतिशत साक्षर प्रदेश  होने का मुकुट अपने सर पर लगाये।
 
''एक नवयुवक की शरारत  ने जब झकझोर दिया प्रौढ़ 'बौद्धिक' को '' शीर्षक के अन्तर्गत मैंने पिछली प्रविष्टि  23 मार्च को शाम  6 बजे ब्लॉग पर डाली। ढाई घंटे बाद ब्लॉग को देखा तो ''जागरण जंक्शन" ने उसे अपने फीचर्ड ब्लॉग पृष्ट  पर पहला स्थान दिया था। जब तक 33 पाठक उसे देख चुके थे और कुछ पाठकों ने टिप्पणी भेजकर इसकी सराहना भी की थी। अगले दिन प्रातः ब्लॉग को देखा गया तो पाठकों की संख्या  शतक पार कर चुकी थी और टिप्पणियों की संख्या  में इजाफा हुआ था। इस पर एक मित्र ने प्रातः ही बधाई दी और कहा - ''आपने तो इतनी जल्दी शतक बना लिया।''


मैं उनके चेहरे को देख कर तरह-तरह से मनन-चिन्तन करने लगा कि प्रायः हर लेखक की इच्छा रहती है कि उसकी रचना अधिक से अधिक पढ़ी  जाए और उसे व उसकी रचना को सराहना भी मिले। यह इच्छा मेरी भी रहती है। लेकिन असली आनंद मुझे उस समय मिला जब मुझे यह पहली बार पता चला कि मेरी रचना - ''डिग्री से ज्यादा महत्वपूर्ण है योग्यता हासिल करना'' का किसी व्यक्ति पर कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ा  है । मुझे उस समय बहुत ज्यादा ख़ुशी  होगी जिस समय मैं ऐसे लोगों की संख्या  का शतक बनायूं जिन पर मेरी रचनाओं का सकारात्मक प्रभाव पड़ा हो। तो वह मेरा सही मायने में शतक होगा ...................। मुझे इंतजार है उस दिन का जब लोग अपने-अपने क्षेत्रों में लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं न्याय देने-दिलाने में शतक बनाने की होड में जुट जाएंगे।

Wednesday, March 23, 2011

एक नवयुवक की शरारत ने जब झकझोर दिया प्रौढ़ 'बौद्धिक' को


होली रंगो से भरा हर्षौल्लास का त्योहार है लेकिन मेरे मन में इसके प्रति कभी उत्साह नहीं रहा। मैंने मन से कभी होली नहीं खेली। कोई मेरे पास आ गया, उसने गुलाल लगाया तो मैंने भी उसके ही गुलाल में से एक चुटकी लेकर उसके माथे पर गुलाल लगा दिया। बस हो गयी मेरी होली।



इस बार तो होली का उत्साह हमारे पूरे परिवार में ही नहीं था क्योंकि चार माह पूर्व ही मेरी पत्नी का निधन हुआ है। हम भले ही किसी के यहाँ होली मिलने नहीं गये लेकिन कुछ लोग हमारे यहाँ होली खेलने व मिलने अवश्य आये। उनमें से एक अभिन्न परिचित रहे योगेश पांडे। योगेश अभी नवयुवक है। वह हमारे परिवार का एक सदस्य सा हो गया है।

होली के दिन मैं, अपनी पुरानी आदत के अनुसार पुराने पत्र-पत्रिकाओं की छँटनी कर रहा था कि अचानक योगेश मेरे नजदीक आया। मैंने उसके हाथ में गुलाल की पुडिया देखी। मैं समझ गया कि वह मुझे गुलाल लगाना चाहता है। मैं गुलाल लगवाने के लिये आगे आया। उसने मेरे माथे पर गुलाल लगाया और चरण स्पर्श किये। मैंने भी उसकी पुडिया में से ही एक चुटकी गुलाल लेकर उसके माथे पर लगा दिया। वह मुझको देखकर मुस्करा कर चला गया।

योगेश के जाने के बाद बहु आराधना बोली - ''पापा, योगेश के पास गुलाल नहीं रंग था। देखो मेरे हाथ, मैंने गुलाल को पानी से साफ किया तो हाथ और मुंह लाल हो गये और साबुन से भी रंग नहीं छूट रहा ।


आराधना के ये शब्द सुनकर मैंने भी अपने माथे पर लगे गुलाल को पानी से साफ करना चाहा तो मेरे भी माथा और हाथ लाल हो गये, जो साबुन से भी साफ नहीं हुए। यह सब देखकर मुझे अन्दर से बहुत गुस्सा आया पर अपने गुस्से को शांत करके मैं फिर पत्र-पत्रिकाओं में खो गया।


दोपहर बाद होली का हुड़दंग जब ठंडा हुआ तो योगेश नहा-धोकर हमारे घर आया। मैंने उससे कहा - ''योगेश, तू झूठ बोलकर होली क्यों खेला ? सच बोलकर होली खेलने में क्या हर्ज था ? उसने जोर से ठहाका लगाया और हँसते हुए बोला - ''सच बता देता तो क्या आप गुलाल लगवाते ?

उसकी उन्मुक्त नेचुरल हँसी और उसके आनन्दित चेहरे को देख मेरे मन में भी आनन्द की गुदगुदी हुई और मुझे झकझोर दिया। मैं अपने पर शर्मिंदा होने लगा कि समाज में जिस हँसी ख़ुशी का माहौल पैदा करने के लिए हम ''बौद्धिक'' लोग अनगिनत रचनाएँ लिखते रहते हैं, वह क्षण जब सामने आया तो सब उल्टा-पुल्टा हो गया। एक नवयुवक अपने को ''बौद्धिक'' समझने वाले प्रौढ को मात दे गया।

तथाकथित बौद्धिकों और समाज के अन्य ऐसे ही लोगों की इस मानसिक स्थिति को महसूस करते हुए ही शायद 'हिन्दुस्तान' दैनिक समाचार पत्र में 20 मार्च 2010 (होली) के अंक में अखबार के प्रधान सम्पादक शशि शेखर ने -''हम होली पर भी हंसना भूल गये है'' शीर्षक से एक लेख लिखा है। लेख के प्रासंगिक अंश यहाँ प्रस्तुत हैं:-


तो आइए, कुछ हंसने-हंसाने की बात करते हैं। दुनिया के पैमाने पर हम भारतीय परंपरागत तौर पर कुछ रूखे-सूखे से माने जाते हैं। पिछले दो दशकों से मैं खुद अपने हमउम्रों के चहेरों पर से मुस्कुराहट गायब होते देख रहा हूं। क्या हंसने का रिश्ता जवानी से है ? ऐसा लगता तो नहीं। फिर हम हंसना क्यों भूल गए हैं ? क्या वजह है कि हमें हंसी खरीदनी पड रही है ? टेलीविजन पर कॉमेडी सीरियल सफलता का नुस्खा बन गए हैं। कुछ अखबार खबरों के पन्नों पर चुटकुले छापने लगे हैं।


आजकल हंसी अगर मन से नहीं उपजती, तो उसे आप खरीद सकते हैं। मुझे खरीदी हुई हंसी से कोई शिकायत तो नहीं, पर यह परंपरा पूरे समाज के लिए खतरनाक हो सकती है।

यही वजह है। शहर दर शहर हास्य क्लब खुलते जा रहे हैं, इकट्‌ठा होकर लोग हंसी आए बिना ही ठहाके लगा-लगाकर हंसते हैं। उन्हें देखकर अचंभा हो तो हों, पर यह सच है कि इससे उनके तनाव कम होते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 2005 तक मेडिकल साइंस तार्किक तौर पर नहीं जानती थी कि हंसने का हमारी रक्तवाहिनियों पर कितना बेहतर असर पड़ता है। उसी साल यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड मेडिकल सेंटर के शोधकर्ताओं ने पाया कि एक अदद हंसी हमारे लिए कितनी फायदेमंद है। हंसी और स्वस्थ धमनियों का बेहद महत्वपूर्ण रिश्ता है। पिछले छह सालों में हुए तमाम शोध यह साबित कर चुके हैं कि हँसना और गुंनगुनाना तमाम मर्जों की दवा है। इससे तनाव से लेकर अल्सर तक तरह-तरह के रोग दूर भगाने में मदद मिलती है।

तो आइए, इस होली पर यह संकल्प लेते हैं कि पिछले साल के मुकाबले कुछ ज्यादा काम करेंगे। कुछ ज्यादा हंसेगे और अपने आसपास के लोगों को भी हंसाएंगे।


बात रोते हुए बच्चे से शुरू की थी। निदा फ़ाज़ली के शेर के साथ खत्म करना चाहूंगा -

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।

सच ही कहा है शशि जी ने अपने लेख में - आज हमें खुश रहने के लिए खुशियाँ ढूँढनी पड़ती हैं।

हमें खुशियाँ ढूंढने की जरूरत नहीं है। वे तो हमारे इर्द-गिर्द ही हैं। बस हमें महसूस करने की जरूरत है। हम तरह-तरह की अपनी उलझनों में इतने खोये रहते हैं कि खुशियाँ हमारे सामने से निकल जाती हैं और हम उन्हें महसूस नहीं कर पाते। अगर हम अपने आस-पास के सुन्दर वातावरण और लोगों की सुखद भावनाओं को समझें तो हमें उन पलों में ही खुशियाँ मिल जायेंगी और धीरे-धीरे ये हमारी आदत बन जायेगी। जब हम परेशानियों में भी खुश रहने लगेंगे तो यह आदत हमें मानसिक रूप से स्वस्थ्य रखने में मदद तो करेगी ही साथ ही परेशानियों से निकलने की ताकत भी देगी।


Saturday, March 19, 2011

आठ माह तक न लिखने का कारण

"दंगो में दिखता पुलिस का असली चेहरा"  शीर्षक के अर्न्तगत मैंने अन्तिम प्रविष्टि 27 जुलाई 2010 को अपने ब्लॉग पर डाली थी। इसके बाद ब्लॉग पर कोई प्रविष्टि न डाल सका। इसका मुझे अफसोस है।

मेरी पत्नी बहुत दिनों से गम्भीर रूप से बीमार थीं। अथक प्रयास के बाद भी उसे न बचा सका। वह हम लोगों को 23 नवम्बर 2010 के दिन हमेशा के लिए छोड़कर चली गईं।

इस बीच महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में ब्लॉग्स पर दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार सम्पन्न हुआ। सौभाग्य से इस सेमीनार की प्रमुख झलकियों की एक सी.डी. देखने को मिली। इस सी.डी. के माध्यम से ब्लॉग लेखन सम्बन्धी बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारियां मिलीं। उनमें से एक है-

''ब्लॉग पर नियमित लिखना चाहिए। यदि किसी कारणवश इसमें कोई लम्बा व्यवधान आने की सम्भावना हो तो इसकी जानकारी ब्लॉग पर अवश्य देनी चाहिए जिससे कि पाठक ब्लॉग पर कुछ नया न आने के कारण से अवगत हो जाए। ऐसी जानकारी न देने का परिणाम प्रायः यह होता है कि पाठक उस ब्लॉगर के ब्लॉग को देखना बन्द कर देते हैं।

काफी दिनों से ब्लॉग पर लिखने को मन व्याकुल हो रहा था लेकिन लिख नहीं पाया। अब ऐसा लग रहा है कि मैं इस व्याकुलता को शीघ्र शांत कर पाऊँगा और आशा है कि इसी माह-मार्च में कम से कम मेरी एक प्रविष्टि आपको पढने को अवश्य मिलेगी।