सत्य की खोज में

Tuesday, July 27, 2010

दंगों में दिखता पुलिस का असल चेहरा

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वर्तमान धार्मिक या मजहबी आतंकवाद साम्प्रदायिकता  की एक विकृत परिणति है, जिसमे दूसरे सम्प्रदाय की भावनाओं को आहत करने और उन्हें अधिकाधिक क्षति पंहुचाने का तत्व निहित है | साम्प्रदायिकता की बढ़ती विकृतियों से निबटने के लिए वर्ष 2005 में कैबिनेट द्वारा पारित " साम्प्रदायिक हिंसा निषेध विधेयक : रोकथाम , नियंत्रण और पुनर्वास " का पुनर्लेखन हो रहा है | इसी को केंद्र में रखकर " राष्ट्रीय सहारा " दैनिक समाचार पत्र ने अपने साप्ताहिक परिशिष्ट " हस्तक्षेप " में विशेष सामग्री प्रकाशित की है | चार पृष्ठीय इस हस्तक्षेप के मुखपृष्ठ पर प्रथम लेख " दंगों में दिखता पुलिस का असली चेहरा " शीर्षक से प्रकाशित है | शोधपरक इस लेख में समस्या की पड़ताल गहराई से की गयी है | इस लेख के लेखक विभूति नारायण राय हैं  जो लम्बे समय तक भारतीय पुलिस सेवा में उत्तर प्रदेश में रहे हैं और वर्तमान में महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में कुलपति के पद पर कार्यरत हैं |   
 



विभूति नारायण राय 




यहाँ साभार प्रस्तुत है उक्त लेख --
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साम्प्रदायिक हिंसा के विरुद्ध बिल के बहाने सबसे पहले इसके द्वारा बढ़े अधिकारों का उपयोग करने वाली संस्थाओं की क्षमता, इच्छा शक्ति और पूर्व में उनके द्वारा विधि से प्राप्त अधिकारों के उपयोग अथवा दुरुपयोग के इतिहास को खंगालना आवश्यक है। मुझे पूर्व में इसी बिल के ड्राफ्ट पर विचार करने के लिए आयोजित एक गोष्ठी की याद आ रही है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने बहुत अच्छा सवाल उठाया कि क्या भारत के मौजूदा कानून साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए पर्याप्त नही है? वे सम्भवत: पूछना चाहते थे कि अगर भारतीय राज्य में मौजूदा कानूनों की तरह इस नए कानून को लागू करने के लिए भी जरूरी इच्छाशक्ति का अभाव रहा तो इसका भी हश्र उन्हीं जैसा तो नही हो जाएगा?


अब जब यह कानून की शक्ल लेने जा रहा तो मेरे मन में एक और सवाल कौंध रहा है। क्या भारतीय राज्य की जिस संस्था को मुख्य रूप से इन प्रावधानों का उपयोग करना है वह इसके योग्य है भी या नहीं? अदालतों तक पहुंचने के पहले पुलिस इस नए कानून का उपयोग या दुरुपयोग करेगी। पिछला अनुभव बताता है कि विधि में उपलब्ध प्रावधानों का उपयोग पुलिस ने इस तरह किया है कि दंगों में पीड़ितों, खासतौर से अल्पसंख्यकों, के मन में हमेशा यह कसक रही है कि भारतीय राज्य ने वह सब नहीं किया जो उसे ऐसी स्थिति में करना चाहिए था या उसने वह सब किया जो उसे नहीं करना चाहिए था।

1960 के बाद के हर साम्प्रदायिक दंगे में पुलिस के ऊपर पक्षपात के आरोप लगे है। आरोप लगाने वालों मे सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि मानवाधिकार संगठनों से जुड़े लोग, स्वतंत्र मीडिया और विभिन्न जांच आयोगों की रपटे शामिल हैं । यदि हम सरकारी आंकड़ों का ही यकीन करे तब भी हम यही पाएंगे कि हर दंगे मे मरने वालों मे ज्यादातर मुसलमान थे। न सिर्फ ज्यादा बल्कि अधिकतर मामलों में तो तीन-चौथाई से भी ज्यादा। उस पर तुर्रा यह कि इनमें पुलिस कार्यवाही भी अधिकतर मुसलमानों के खिलाफ ही हुई। अर्थात जिन दंगों में मरने वाले अधिकतर मुसलमान थे उनमें भी पुलिस की गाज उन पर ही गिरी। मतलब ज्यादा मुसलमान गिरफ्तार हुए, अधिकतर तलाशियां भी उन्हीं के घरों की हुईं और उन दंगों में भी जहां मरने वाले तीन-चौथाई से अधिक मुसलमान थे; वहां भी अगर पुलिस ने गोली चलायी तो उनके शिकार भी मुख्य रूप से मुसलमान ही हुए। मुसलमानों मे पुलिस के प्रति अविश्वास इतना अधिक है कि अपने एक शोध के दौरान जब मैने दंगा पीड़ितों से एक बहुत साधारण सा प्रश्न पूछा कि क्या उस समय जब उनकी जान और माल खतरे में हो तो वे मदद के लिए पुलिस के पास जाना चाहेगे? दुनिया के किसी भी दूसरे मुल्क मे इस तरह का सवाल केवल पागल ही पूछ सकता है क्योंकि कहीं भी खतरे मे पड़ने पर नागरिक राज्य की तरफ ही स्वाभाविक रूप से देखेगे। राज्य का मुख्य कर्त्तव्य ही नागरिकों की जान-माल की हिफाजत करना है और राज्य का सबसे दृश्यमान अंग पुलिस इस भूमिका को निभाता है। पर आप इस पर क्या कहेगे कि मेरे प्रश्न या के उत्तर में अल्पसंख्यक दंगा पीड़ितों की बहुसंख्या ने कहा कि वे उस समय भी जब उनकी जान-माल खतरे में हो पुलिस के पास नहीं जाना चाहेगे।


उनका यह संकोच या अविश्वास किसी शून्य से नहीं उपजा है। इसके पीछे ठोस ऐतिहासिक कारण है। उन्होंने विभिन्न साम्प्रदायिक दंगों मे पुलिस के पक्षपातपूर्ण व्यवहार का दंश झेला है। मैंने खुद अपने शोध के दौरान और 35 वर्षों की भारतीय पुलिस सेवा की अवधि में ऐसे बहुत से मामले देखे है जब साम्प्रदायिक हिंसा की आग में लुटा-पिटा कोई मुसलमान पुलिस के पास पहुंचा तो बजाय कन्धों पर आश्वस्तिकारक थपथपाहट के उसने अपने गालों पर एक झन्नाटेदार झापड़ पाया। 1984 में सिखों के अनुभव भी कुछ-कुछ ऐसे ही थे जब दिल्ली जैसे शहर में पुलिस ने अधिकतर मामलों में मुसीबतजदा सिखों की मदद करने की जगह बलवाइयों का साथ दिया और कई मामलों में तो अगर पुलिस न पहुंची होती तो सिख अपनी जान बचाने में कामयाब हो गये होते।


मैंने जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है उनमें किसी में भी वर्तमान कानूनों की अपर्याप्तता अथवा अक्षमता जिम्मेदार नहीं है। सभी के पीछे एक ही कारण है और वह है हमारे मन में गहरे पैठी गहरी दुर्भावना जो हमे खाकी पहनने के बाद भी हिन्दू या मुसलमान बनाये रखती है। भारतीय राज्य के विभिन्न अवयव आज भी ‘हम और वे’ की मनोग्रंथि से पीड़ित है । मुसलमान उनके लिए अब भी वे है। पुलिस के अधिकतर लोग मानते हैं कि दंगा मुसलमान शुरू करते है और दंगे को रोकने के लिए उनके पास सबसे आसान नुस्खा है मुसलमानों के साथ सख्ती। इसीलिए उन दंगों में भी, जिनमें शुरुआत से हिन्दू हमलावर दिखते है, पुलिस की कार्यवाही मुसलमानों के विरुद्ध ही होती दिखती है। एक औसत पुलिसकर्मी के मन में यह बात इतने गहरे बैठी है कि आम तौर से मुसलमान हिंसक और क्रूर होता है कि उसके लिए यह मान पाना कि कोई दंगा हिन्दुओं ने शुरू किया है या किसी दंगे में हिन्दू हमलावर हो सकते है लगभग असम्भव है। उसके लिए औसत हिन्दू आमतौर से उदार या अहिंसक होता है।


मुझे याद है कि 1990 मे जब रामजन्मभूमि आन्दोलन अपने चरम पर था और मैं इलाहाबाद में नियुक्त था, मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि पुलिस थानों में साम्प्रदायिकता के मोर्चे पर सिर्फ मुसलमानों के विरुद्ध इंटेलिजेस उपलब्ध था। विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन, जो खुले आम हिंसा भड़का रहे थे, के बारे में न के बराबर सूचनाएं थीं। पुलिसकर्मियों को यह समझाने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी कि उन परिस्थितियों में हमारे रडार पर हिन्दू संगठन होने चाहिए न कि मुस्लिम। ऐसा नहीं कि भारतीय राज्य के अवयओं में सिर्फ पुलिस ही इस ग्रंथि से पीड़ित है। न्यायपालिका ने बहुत से मौकों पर निराश किया है। राजनीतिक नेतृत्व ने तो हमेशा उस इच्छाशक्ति का अभाव दिखाया है जो साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए जरूरी है। भारतीय समाज की सच्चाई जानने वाले सहमत होंगे कि दंगे भड़क तो सकते है पर लम्बे तभी खिंचते है जब राज्य चाहता है। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि यदि कोई दंगा 24 घण्टे से अधिक चल रहा है तो इस बात की जांच होनी चाहिए कि क्या राज्य का कोई अंग उसमें शरीक तो नहीं है।


इस सन्दर्भ में हमे साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ बनने वाले किसी भी कानून को परखना चाहिए जब इस बिल का पहला ड्राफ्ट विचार विमर्श के लिए वितरित हुआ था तब से आज तक कई बार इस पर विस्तार से चर्चा हुई है। इस पर हुए विमर्शों में राजनीतिक दलों, नागरिक अधिकार संगटनों तथा साम्प्रदायिकता से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं से जुड़े लोगों ने भाग लिया है। मुझे भी कई बार इनमें भाग लेने का मौका मिला है। हर जगह एक आम राय बनी कि इस नये कानून में पहले से ही बहुत अधिकार प्राप्त पुलिस को और अधिक अधिकार दिये जा रहे हैं। क्या पुलिस इन अधिकारों का प्रयोग अल्पसंख्यकों की हिफाजत के लिए करेगी या इनका प्रयोग भी उनके खिलाफ ही होगा? ये बढ़े हुए अधिकार भारतीय राज्य को फासिस्ट तो नही बनाएंगे? इन सारे सवालों पर हमे विस्तार से विचार करना होगा। इस नये कानून को लेकर एक बहुत अच्छी बात यह हुई है कि पहली बार किसी कानून में हिंसा के शिकार व्यक्तियों के लिए क्षतिपूर्ति की वैधानिक व्यवस्था की गयी है। साथ ही अपने कर्तव्यों में असफल सरकारी कर्मचारियों को उनका उत्तरदायित्व निर्धारित करते हुए दंडित करने के प्रावधान भी इसमें हैं। मेरे विचार से यह एक बहुत महत्वपूर्ण कदम है। अंत में फिर वही एक प्रश्न कि क्या महज कानून को अधिक सख्त बनाने से साम्प्रदायिकता की समस्या से निजात पायी जा सकती है? या इसके लिए भारतीय राज्य की संस्थाओं को अधिक संवेदनशील और वैज्ञानिक चेतना से लैस करना होगा? मुझे लगता है कि कानूनों से अधिक हमे अपने दिमागी जालों को साफ करना होगा।

Monday, July 19, 2010

पी.सी.एस. टॉपर पुष्पराज सिंह से विशेष मुलाकात

"हारिये न हिम्मत बिसारिये न हरिनाम", जैसी कहावतें शायद पुष्पराज जैसे लोगों के लिए ही बनी है| इस नौकरी के लिए उन्होंने पूरे दस साल जद्दोजहद की | अनेक ऐसे अवसर आये होंगे जब उन्हें घोर निराशा हुई होगी लेकिन पुष्पराज जूझते रहे और अंततः विजयी रहे न केवल विजयी रहे बल्कि स्वर्णिम अक्षरों में अपना नाम लिखाया |  

पुष्पराज सिंह ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (यू.पी. पी.एस.सी.) द्वारा आयोजित राज्य की सर्वोच्च सिविल सेवा (पी.सी.एस.) के लिए वर्ष 2007 की परीक्षा (परीक्षा परिणाम घोषित-19 मई 2010) में अखिल प्रदेशीय स्तर पर  प्रथम स्थान प्राप्त किया है |

पुष्पराज सिंह इसीलिए विशिष्ट नहीं हैं कि वह पी.सी.एस. टॉपर हैं, बल्कि इसलिए ज्यादा विशिष्ट हैं कि उन्होंने कई विषम परिस्थितियों को चुनौती देते हुए इतनी बड़ी सफलता हासिल की है | 36 वर्षीय पुष्पराज सिंह नक्सलवादी एवं पिछड़े देहात क्षेत्र के निवासी हैं, उनका शैक्षणिक रिकॉर्ड सेकेण्ड व थर्ड डिवीजन का रहा है, उनकी दस वर्ष पूर्व  शादी हो   गई और वे दो बच्चों के पिता हैं, उन्होंने कालिज की पढाई व सिविल सेवा की तैयारी के दौरान जीवन बीमा निगम की एजेन्सी लेकर घरेलू व निजी आवश्यक खर्चों की पूर्ति की,.......|
                 
पुष्पराज सिंह का मानना है कि यदि व्यक्ति की सोच सकारात्मक है और वह अपने लक्ष्य के प्रति कटिबद्ध है तो हर चुनौती का मुकाबला कर सकता है |

पुष्पराज सिंह से गत दिवस उनके इलाहाबाद स्थित आवास पर लम्बी बातचीत हुई | यहाँ प्रस्तुत है उस बातचीत के प्रमुख अंश -


प्रश्न - आप अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ बताइये ?
उत्तर - मेरा नाम पुष्पराज सिंह है | मैं गाँव दुबारकला, जिला मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) का रहने वाला हूँ | मेरे परिवार में मेरे अलावा एक छोटी बहन है, जिसकी शादी हो चुकी है |1 मार्च 2000 को मेरा विवाह श्वेता सिंह से हुआ | मेरे दो बच्चे - श्रेयस्कर राज सिंह (7 वर्ष) एवं यशस्वी राज सिंह (6 वर्ष) है | पिताजी सहायक विकास अधिकारी, पंचायत हैं | पत्नी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएट है और बी.एड. कर रही है | वर्ष 2006 में मेरा चयन डिप्टी एस.पी. पद पर हुआ था और 2007 में डिप्टी कलेक्टर के पद पर हुआ है |


प्रश्न - अपनी शिक्षा के बारे में बताइये ? 
उत्तर - मेरी प्रारम्भिक शिक्षा लालगंज इण्टर कालेज, मिर्जापुर में हुई | वहाँ से हाईस्कूल व इण्टरमीडिएट करने के बाद सन्तरविदास नगर (पूर्व में भदोही) के काशीनरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्द्यालय से बी.ए. व एम.ए. (1998) किया | फिर  सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए इलाहाबाद आ गया |

प्रश्न - आपका एकेडमिक रिकार्ड कैसा रहा ?

उत्तर - मेरा एकेडमिक रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं रहा |  हाईस्कूल व इण्टरमीडिएट में सेकण्ड डिवीजन तथा बी.ए. और एम.ए. में थर्ड डिवीजन मिला |

प्रश्न - इसके क्या कारण रहे ?
उत्तर -  इसके पीछे कई कारण थे | मैं मिर्जापुर जिले के एक ऐसे पिछड़े इलाके से हूँ जो कि नक्सल प्रभावी क्षेत्र भी है | पढाई में संसाधनों का अभाव था | जागरूकता नहीं थी | पारिवारिक पृष्ठभूमि में भी कोई ऐसा नहीं था जो कि किसी प्रशासनिक सेवा में रहा हो, इसलिए सही मार्गदर्शन नहीं हो सका | स्कूल, कालेज में भी सही गाइडेंस देने वाला कोई नहीं मिला |  इसके अलावा मुझे उस समय क्रिकेट व कबड्डी का जबरदस्त शौक था | मेरे लिए बस पास होना ही काफी था |


प्रश्न -  सिविल सर्विसेज में आने का रुझान कब और कैसे बना ?   
उत्तर -  बी.ए. प्रथम वर्ष में | गाँव में रहते हुए, अधिकारियों  की हनक, ग्लैमर, पावर देखी थी | गावों में यह सब चीजें अधिक होती हैं | मैं भी इससे बहुत प्रभावित था और मुझे प्रेरणा मिली कि मुझे भी समाज में अपना स्थान अलग बनाना है और फिर बी.ए.प्रथम वर्ष में यह निश्चित किया कि मुझे तैयारी करनी है |
बाद में मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैंने काफी समय नष्ट कर दिया है - माहौल, जागरूकता, संसाधनों, मार्गदर्शन और दिशानिर्धारण के अभाव में | लेकिन फिर मैंने तय किया कि मैं मेहनत करूंगा, इलाहाबाद आने का निश्चय किया और सब कुछ, सारी तैयारी नये सिरे से शुरू  की  | खुद के अनुभवों से सीखा और खुद में निरन्तर सुधार किया | यही सब कारण रहे जो मुझे यह सफ़र तय करने में 10-12 वर्ष लग गये | 


प्रश्न - पहली बार प्रतियोगी परीक्षा कब दी आपने ? 
उत्तर - वर्ष 1996 में बी.ए. करने के बाद मैंने पहली बार आई.ए.एस.  और पी.सी.एस. दोनों की परीक्षाएं दी | आई.ए.एस. के 4 अटेम्प्टस में दो बार प्रारम्भिक परीक्षाएं उत्तीर्ण  भी कीं लेकिन मुख्य परीक्षाओं में असफलता मिली | उसके बाद से मैं पूरी तरह पी.सी.एस. पर एकाग्र हो गया | विषय भी बदले | पहले हिस्ट्री व फिलास्फ़ी थे, बाद में सोशल वर्क व डिफेन्स स्टडीज पर आया, इण्डियन हिस्ट्री प्री में थी |


प्रश्न -  आपको क्या लगता है कि आप आई.ए.एस. क्यों नहीं निकाल  पाए ? 
उत्तर -  जागरूकता का अभाव | आपको बताऊँ कि मैं आई.ए.एस. की परीक्षा दे रहा था और मुझे धारा 356 का ज्ञान नहीं | अपनी ही ओ.एम.आर. शीट गलती से मैंने ख़राब कर दी | इलाहाबाद में नया था और आते ही, पहला अटेम्प्ट बिना कुछ सोचे समझे दे दिया | जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था | सभी को अपनी उम्र के हिसाब से प्लानिंग करके, तैयारी के साथ आई.ए.एस. की परीक्षा में बैठना  चाहिए क्योंकि इस परीक्षा में सीमित प्रयास ही दिए जा सकते  हैं | तो इस प्रकार से जानकारी के अभाव में मैं गलती कर गया | मेरे दो  प्रयास यूँ ही बेकार चले गये जिनका मुझे आज भी अफ़सोस है और हमेशा रहेगा | चयन होने के लिए एक ही प्रयास बहुत होता है और मेरे तो दो प्रयास यूँ ही बर्बाद हो गये लेकिन क्या किया जा सकता है सब कुछ गवाँ कर होश में आये तो क्या हुआ ....... |


प्रश्न -  आपका चयन वर्ष 2006 में पी.पी.एस. (डिप्टी एस.पी.) में हो गया था तो फिर आप पी.सी.एस. (डिप्टी कलेक्टर) के लिए क्यों प्रयासरत रहे ? 
उत्तर - दरअसल 2006 और 2007 एक ही सेशन का एक्जाम था | दोनों परीक्षाओं में 5 या 6 महीने का अन्तर था | 2006 की परीक्षा  का रिजल्ट नहीं आया था और 07 का मेन्स देना पड़ा था | यदि 2006 का परीक्षा परिणाम  आ गया होता तो शायद मैं 07 की मुख्य परीक्षा न देता |


प्रश्न - क्या आपको इस परीक्षा में टॉप करने की उम्मीद थी ? 
उत्तर - टॉप करने की उम्मीद तो कभी नहीं थी पर अच्छी रैंक पाने की आशा थी | मेरे पेपर अच्छे हुए थे, इस आधार पर चयन का भरोसा था और अच्छी रैंक पाने का भी | हाँ कभी-कभी डर भी लगता था स्केलिंग पद्धति के वैरियेशन से | स्केलिंग में कभी-कभी सौ-सवा सौ अंकों का भी फर्क पड़ जाता है | तो डर सताता था कि स्केलिंग में नुकसान न हो जाए | लेकिन जब भी खुद का मूल्यांकन, एक अलग व्यक्ति बन कर किया तो हमेशा यह भरोसा मिला कि चयन होगा, चयन सुरक्षित है | मेरी नजर में टॉप करने की उम्मीद कोई भी नहीं करता,  सो मैंने भी नहीं की थी |

प्रश्न - क्या आपने इलाहाबाद आकर कोचिंग वगैरहा ज्वाइन की ?
उत्तर - जी नहीं, मैंने व्यक्तिगत सम्बन्धों के आधार पर शिक्षकों इत्यादि का सहयोग लिया
लेकिन लगातार कभी कोचिंग ज्वाइन नहीं की |


प्रश्न - कोचिंग कहाँ तक सहायक होती है, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में ? 

उत्तर- कोचिंग से आत्मविश्वास, प्रतियोगी माहौल व शैक्षणिक मार्गदर्शन मिलता है और सबसे बड़ी चीज सही दिशानिर्देशन, सही मार्गदर्शन, सही जानकारी मिलती है कि आपको क्या पढना चाहिए और क्या नहीं, क्या करना चाहिए और क्या नहीं लेकिन सिर्फ कोचिंग पर निर्भर नहीं रहना चाहिए |
अंततः  खुद की पढाई और तैयारी ही काम आती है |


प्रश्न - परीक्षा की तैयारी में किसी पत्रिका या समाचार पत्र का भी कुछ योगदान रहा  ?

उत्तर - जी हाँ, बिलकुल |  क्रोनिकल, प्रतियोगिता दर्पण, घटनाचक्र, इण्डिया टुडे, आउटलुक और दैनिक समाचार पत्रों का तैयारी में बहुत बड़ा योगदान रहा है क्योंकि जो प्रश्न बनते हैं वह राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से बनते हैं, और इनकी सबसे अच्छी जानकारी का श्रोत ये पत्र-पत्रिकाएं और समाचार पत्र ही हैं | 


प्रश्न -  इतने लम्बे संघर्ष के बाद आपने ऐसी सफलता अर्जित की है तो आगे आने वाले विद्द्यार्थियों को क्या अनुभव देना चाहेंगे ?
उत्तर - मैं यही कहना चाहूँगा कि इस प्रतियोगिता का कोई शार्टकट नहीं है | यह 100 मीटर की रेस नहीं है अपितु मैराथन दौड़ है | सिर्फ 10-15 प्रतिशत प्रतियोगी ही इसमें 2-3 सालों के प्रयास में सफल हो पाते हैं बाकी 90 प्रतिशत को सफलता के लिए इन्तजार करना पड़ता है, उन्हें समय लगता है | पहली चीज धैर्य बनाये रखें | पूरे मनोयोग, तन्यमता से लगे रहें | नकारात्मकता को मन में बिलकुल  स्थान न दें, आलोचनाओं से घबराएँ नहीं | आलोचकों की बातों को भी सकारात्मकता से लें, उससे तैश में न आएं | जिस दिन आपकी आलोचना हो उस दिन 2 घण्टे ज्यादा पढ़ें | अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहें | पढ़ें ज्यादा दिखाएँ कम | ज्यादा से ज्यादा पढ़ें | पढाई को समय में न बाधें कि मैं 10  या 12 घण्टे पढूंगा, इससे दिमाग पर अनावश्यक तनाव बनता है | जिस दिन आप उस समय सीमा को किसी भी कारणवश पूरा नहीं कर पाएंगे, तो तनावग्रस्त होंगे | पढाई का लक्ष्य रखें, समय का नहीं | अपने आप पर विश्वास करें, ईश्वर पर आस्था  रखें, कटिबद्ध रहें, अपने लक्ष्य पर समर्पित रहें | सफलता जरूर मिलेगी | हाँ, स्केलिंग पद्धति का ध्यान रखकर विषयों का चयन करें | यह मेरा सुझाव रहेगा | आर्ट्स के विषयों को स्केलिंग पद्धति में फायदा है | तो इसका ध्यान रखकर विषयों का चयन करें |


प्रश्न - दस वर्ष पूर्व आपकी शादी हो गयी, दो बच्चे हैं | क्या आपकी शादी आपकी तैयारी में कभी बाधक दिखाई दी ?
उत्तर - परिवार, या कोई भी रिश्ता कभी भी, किसी भी उददेश्य में, लक्ष्य प्राप्ति या सफलता में बाधक नहीं होता है | हाँ, समाज और कभी-कभी हम खुद इसे बाधक बना देते हैं, मेरी पत्नी ने हमेशा अपनी जिम्मेदारियों का सफल निर्वाहन किया | सदैव मेरा सहयोग किया | बच्चों के होने के बाद शुरू में दो साल जरूर कुछ दिक्कतें आई लेकिन बाद में मैंने चीजों को व्यवस्थित कर लिया | बच्चों से कह देता था कि मैं बाहर जा रहा हूँ और खुद को आगे के एक कमरे में बन्द कर पढाई करता था | मैं नहीं मानता कि पत्नी, बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं   में बाधक होते हैं |पुष्पराज सिंह अपनी पत्नी व दोनों बच्चों के साथ



 प्रश्न - आपने एल.आई.सी.आफ़ इण्डिया की एजेन्सी भी की, तो यह आपके संघर्ष में बाधक रहा या सहायक रहा ?
उत्तर - मैं वर्ष 1991 से एल.आई.सी.  का एजेन्ट था और यह मेरे लिए सहायक रहा है | इलाहाबाद में हो रहे मेरे सभी खर्चों का 70 प्रतिशत मैं एल.आई.सी. से निकालता था और 30 प्रतिशत के लिए घर पर निर्भर रहता  था | मेरा मानना है कि कम्पटीशन में हर किसी को एक विकल्प बना कर चलना   चाहिए | इससे काफी मदद मिलती है  | इसमें मेरा काफी विकास भी हुआ |


प्रश्न -  तैयारी के साथ साथ आप इस काम को कैसे मैनेज करते थे  जिसकी  प्रकृति  समय  खर्च  करने वाली है ?  
उत्तर - पहले तो जो भी हमारे मित्र चयनित होते थे, मैं उनका बीमा करता था | घर वाले सहयोग करते थे, उनके सम्बन्धों से भी लाभ लिया | विन्ध्याचल मेरी ब्रान्च थी | मैं हफ्ते में दो दिन एल.आई.सी. के लिए समय देता था और बाकी घर वालों के सहयोग से मैनेज कर लेता था |


प्रश्न -  आप किस तरह के एजेन्ट सिद्ध हुए ?  
उत्तर - मैं अच्छा एजेन्ट रहा | मेरा परफारमेंस हमेशा अच्छा रहा | मुझे तीन बार विकास अधिकारी बनने का चांस मिला और इस बार सी.एम .क्लब मेम्बर होने वाला था लेकिन उसी बीच जब थोड़ा ही टारगेट बचा था, मेरे इंटरव्यू का टाइम आ गया, और मैंने उस टारगेट को पूरा नहीं किया | बाकी मुझे 3 बार डी.ओ. के लिए आफ़र किया गया लेकिन अपनी परीक्षाओं की तैयारियों के कारण मैंने उसे अस्वीकार  कर दिया | मैंने तय कर लिया था कि मुझे आई.ए.एस. या पी.सी.एस. ही बनना है |

प्रश्न - आपकी लिखित परीक्षा का अनुभव कैसा रहा ? 

उत्तर - लिखित परीक्षा का अनुभव हर परीक्षा में अलग रहा | मैं लगातार हर साल परीक्षा देता गया और अपने अनुभवों से सीखता गया | हर परीक्षा के बाद मैं खुद का मूल्यांकन कर अपनी गलतियां डायरी में लिखता था और उस पर मेहनत करता | इस तरह से मैंने अपनी कमियां दूर की |

प्रश्न - साक्षात्कार का अनुभव कैसा रहा ?
उत्तर - इन्टरव्यू का अनुभव सकारात्मक रहा | इन्टरव्यू बोर्ड बहुत सहयोग करता है | बहुत रचनात्मक लगता है वहाँ, अच्छा लगता है, अच्छे माहौल में इन्टरव्यू होता है |

प्रश्न - किस तरह के प्रश्न ज्यादा पूछे जाते हैं ?
उत्तर - तरह-तरह के प्रश्न होते हैं | मुख्य परीक्षा के विषय आधारित प्रश्न - स्कूलिंग, एकेडमिक कैरियर, राष्ट्रीय, इन्टरनेशनल रिलेशनशिप, करंट अफेयर्स, राजनीतिक, सामाजिक मुददों पर प्रश्न होते हैं, कुछ व्यक्तिगत प्रश्न - जैसे किस क्षेत्र में आप जाना चाहते हैं, कौन सा पद अच्छा लगता है, कुछ मनोवैज्ञानिक प्रश्न - देश की समस्या, सरकार की प्रगति, उपलब्धियाँ आपके आइडियल पर सवाल, आप को नौकरी क्यों दी जाए, अभी तक सफल क्यों नहीं हुए- यह भी एक प्रश्न होता है |


प्रश्न - सामान्य ज्ञान की तैयारी के लिए आपके क्या सुझाव हैं ?
उत्तर - मेरा सुझाव रहेगा कि सामान्य ज्ञान को सामान्य अध्ययन की तरह न पढ़ें | सामान्य अध्ययन से मेरा तात्पर्य है कि सतही ज्ञान न रखें | इसे भी गम्भीरता और गहराई से पढ़ें | अधिक से अधिक पुस्तकें पढ़ें | जितनी आपकी क्षमता, ऊर्जा हो, जितना साम्राज्य विस्तार कर सकें, जितना भी पढ़ सकें यह अनन्त है | इसका तरीका है कि सामान्य ज्ञान की जो भी चीजें जहाँ से भी मिलती रहें,  उससे खुद को लगातार अपडेट करते रहें, समाचार पत्र, पत्रिका,  इलेक्ट्रानिक मीडिया , प्रिन्ट मीडिया, सेन्ट्रल-स्टेट गर्वनमेंट की पत्रिकाएं, अन्तर्राष्ट्रीय रिपोर्ट, मंत्रालय की रिपोर्ट, पुस्तकें, गाइडें जितना भी मैटेरियल पढ़ सकें, पढ़ें |

प्रश्न - आप प्रतियोगी छात्रों एवं इनके माता पिता को क्या सुझाव देना चाहेंगे ?

उत्तर - मैं अभिभावकों से अपील करूंगा कि वे धैर्य बनाए रखें और अपने बच्चों पर विश्वास करें |
प्रतियोगियों को मैं यह कहूँगा कि वे अपनी जिम्मेदारियों को समझें और पूरी ईमानदारी व लगन से अपने दायित्वों का निर्वाहन करें |


प्रश्न - सफलता-असफलता के दौर में आने वाली फ्रस्टेशन से उबरने का आपका क्या तरीका था ?

उत्तर - मैं स्वंय का मूल्यांकन करता था, मेहनत करता था, मित्रों-परिवार से बात करता था
मैंने सकारात्मकता का साथ कभी नहीं छोड़ा | सकारात्मकता से ही इन चीजों पर विजय पाई जा सकती है | मैंने कभी हार नहीं मानी मेहनत और इच्छाशक्ति के आधार पर ऊर्जा और क्षमता को विकसित किया जा सकता है | दुनिया में कोई भी चीज असंभव नहीं है |

प्रश्न - थोड़ी देर पहले आपने कहा था कि मेहनत करें और ईश्वर में आस्था रखें | ईश्वर में आस्था रखने से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर -  देखिये, ईश्वर को किसी ने भी देखा नहीं है | लेकिन यह सभी मानते हैं और मैं भी मानता हूँ कि एक अदृश्य सत्ता है जो इस विश्व को संचालित कर रही है और इसका सीधा उदाहरण है कि किसी भी परिस्थिति में सुख में, दुःख में, कष्ट में, ईश्वर का नाम लेने के बाद सुकून महसूस होता है, शान्ति मिलती है | शान्ति भौतिकता में नहीं है,  आध्यात्मिकता में है | मन्त्रों में, गायत्री मंत्र में, हनुमान चालीसा में बहुत शक्ति है लेकिन परीक्षा में मंत्र लिखने से अंक नहीं मिलेंगे | एक लाइन में कहूं तो कर्म और भाग्य के संयोग से सफलता मिलती है |


प्रश्न - भाग्य से आपका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - भाग्य प्रारब्ध है | पूर्व में आपके द्वारा किये गये कर्मों का फल है | भाग्य कर्म से बनता है | उदाहरण के लिए 'नेपोलियन' ने जब अपना हाथ ज्योतिषी को दिखाया तो ज्योतिषी ने कहा कि तुम कुछ नहीं कर पाओगे क्योंकि तुम्हारे हाथ में तो भाग्य रेखा है ही नहीं | उसी समय नेपोलियन ने चाकू से अपने हाथ में लकीर बनाकर कहा कि मैं विश्व विजेता बनूँगा और अपनी लगन, मेहनत व महत्वाकांक्षा  से बनकर दिखाया | इस प्रकार अपने कर्म से नेपोलियन ने अपने भाग्य में विश्वविजेता बनना लिख दिया | "वीर  भोग्या वसुन्धरा" कहा गया है | भोग वीरों के ही भाग्य में है और वीर वही होता है जो कर्मवादी होता है, कर्म करता है | जो आप आज करते हैं वही कल आपका भाग्य बनता है | भाग्य भी आवश्यक है लेकिन कर्म प्रबल है |


प्रश्न -  आपको किन चीजों का शौक रहा है ?
उत्तर -  क्रिकेट, कबड्डी खेलना, पुराने गाने सुनना, खाली समय में मित्रों का साथ, पुस्तकें पढना आदि | मैंने  किरण बेदी और ए.पी.जे.अब्दुल कलाम जी की कई पुस्तकें पढ़ीं | अटल बिहारी बाजपेयी जी की कवितायेँ भी पढ़ी हैं | इनकी कविता "हार नहीं मानेंगे, रार नहीं ठानेंगे, काल के कपाल पर......" ने बहुत प्रभावित किया है |


प्रश्न -  आपकी नजर में उत्तर प्रदेश की मुख्य  समस्या क्या है ?
उत्तर -  हमारे प्रदेश में बहुत सारी समस्याएं हैं | अशिक्षा मुख्य समस्या है और यही अन्य समस्याओं की जड़ है | अशिक्षा से ही गरीबी, बेरोजगारी, जागरूकता की कमी, जनसंख्या वृद्धि आदि समस्यायें उत्पन्न होती है | शिक्षित व्यक्ति समस्याओं का हल ढूंढने का प्रयास करता है और अशिक्षित सिर्फ समस्याओं को जन्म देता है |


प्रश्न - नौकरी में आपकी प्राथमिकताएं क्या होंगी ? 
उत्तर - जनता के बीच में रहकर, उनके लिए काम करना | सरकार की योजनाओं, परियोजनाओं का समय से क्रियान्वयन | समस्याओं को पूरी संवेदनशीलता से समझ कर त्वरित कार्यवाही व निर्णय का प्रयास करूंगा |


प्रश्न - आज के इस समय में जब चारों तरफ लूट खसोट का माहौल हँ तो ऐसे में आप खुद को ब्यूरोक्रेट्स, क्रिमिनल्स एवं भ्रष्ट राजनेताओं तथा इस भ्रष्ट माहौल से कैसे बचायेंगे ?
उत्तर - मैं स्वंय की गारण्टी लेता हूँ | साफ सुथरी नौकरी करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ | मैंने इस माहौल को बहुत नजदीक से देखा, समझा और सहा है | मैं वही कार्य करूंगा जो मेरे अधिकार क्षेत्र में होगा | और यदि कोई उच्चाधिकारी मुझसे कुछ भी अनैतिक  या असंवैधानिक करने को कहेगा तो मैं उससे वह कार्य लिखित में देने को कहूँगा | कोई भी मौखिक आदेश नहीं स्वीकारूंगा, फिर इसके लिए आगे चाहे जो हो, स्थानान्तरण या जो भी, मैं तैयार हूँ | अपने स्तर पर सभी दायित्वों का पूरी ईमानदारी  के साथ निर्वाहन करूंगा |

प्रश्न - ईमानदारी के प्रति आपका इतना लगाव क्यों है ? 
उत्तर - क्योंकि जरूरत ही नहीं है बेईमानी की | मैं इच्छाओं को असीमित बनाने में विश्वास नहीं रखता | इच्छाओं पर नियंत्रण होना चाहिए और मूलभूत आवश्यकताओं  की पूर्ति सरकार कर रही है | अच्छा वेतन, गाड़ी, आवास, सर्वेन्ट्स, मान-सम्मान सब कुछ यह नौकरी देती है | दो बच्चे हैं, वे अच्छे से पढ़ लिख जाएँ, इससे ज्यादा की अभिलाषा नहीं | मैं कुख्यात नहीं, विख्यात होना चाहूँगा |

प्रश्न - कभी राजनीति में आने की इच्छा हुई या नहीं ? 
उत्तर - जनता की सेवा करने के कई माध्यम हैं और इन सबमें मुझे अपने लिए प्रशासनिक सेवा का माध्यम ही सबसे अच्छा लगता है | राजनीति में जाने की न कभी महत्वाकांक्षा रही, न इच्छा |

प्रश्न - आपके जीवन का लक्ष्य क्या है ?
उत्तर - अपने पद और दायित्वों का सही रूप से निर्वाह कर सकूं | अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकूं, वे किसी लायक बन जाएं | परिवार व समाज की सेवा करूँ, जनता की भलाई में कुछ मेरा भी योगदान रहे |

प्रश्न - आप किसको अपना रोल माडल मानते हैं ?
उत्तर - मेरे पिताजी | वे बहुत सरल हैं | उन्होंने सदैव मुझे नैतिकता की शिक्षा दी, मुझे प्रोत्साहन दिया, अपनी सामर्थ्य भर मुझे पूरा सहयोग दिया | लोगों की सहायता करते हैं, सभी की समस्याएं सुनते और सुलझाते हैं |


                                          संक्षिप्त परिचय
                  
        नाम                                  पुष्पराज सिंह
        जन्मदिन                           10-02-1973
        शिक्षा                                 एम. ए. (1998)
        जन्म स्थान -                    गाँव  दुबार कलां, जिला -मिर्जापुर (उ.प्र.)
        पिता                                  श्री राम जी सिंह (ए.डी.ओ. पंचायत)
        माता                                  (स्व.) श्रीमती  फुलवंती देवी
        पत्नी                                 श्रीमती श्वेता सिंह (एम.ए.)
        बच्चे                                 श्रेयस्कर राज सिंह (7 वर्ष) एवं यशस्वी राज सिंह (6 वर्ष)
        शादी                                 1 मार्च, 2000

                                        *******************************

Friday, July 9, 2010

कार्टूनिस्ट व लेखक आबिद सुरती का सम्मान एवं गाँव जोकहरा का एक अदूभुत पुस्तकालय

बहुमुखी सर्जक आबिद सुरती का गत दिनों मुंबई में उनके 75 वें जन्मदिन पर सम्मान हुआ | इस अवसर पर हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के सभागार में साहित्यिक पत्रिका 'शब्दयोग' के आबिद सुरती केन्द्रित अंक (जून 2010) का लोकार्पण हुआ एवं एक संगोष्ठी का भी आयोजन किया गया |

इस अवसर पर आबिद सुरती का सम्मान करते हुए समाजसेवी संस्था 'योगदान'के सचिव आर. के. पालीवाल  ने आबिद सुरती की पानी-बचाओ मुहिम के लिए दस  हजार रूपए का चेक भेंट किया | सम्मान स्वरुप उन्हें शाल और श्रीफल के बजाय उनके व्यक्तित्व के अनुरूप कैपरीन यानि बरमूडा और रंगीन टी-शर्ट भेंट किया गया | कार्यक्रम की शुरूआत में आर.के.पालीवाल की आबिद सुरती पर लिखी लम्बी कविता 'आबिद और मैं' का पाठ फिल्म अभिनेत्री एडीना वाडीवाला ने किया | सुप्रसिद्ध  व्यंगकार  शरद जोशी  की एक चर्चित रचना  'मैं आबिद और ब्लैक आउट' का पाठ उनकी सुपुत्री व सुपरिचित अभिनेत्री नेहा शरद ने अपने पिता के ही अन्दाज में प्रस्तुत किया | संचालक देवमणि पाण्डेय ने निदा फाजली के एक शेर के हवाले से आबिद जी के बहुमुखी व्यक्तित्व का परिचय दिया -

" हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी  
  जिसको भी देखना हो कई बार देखना "


समाजसेवी संस्था 'योगदान' की त्रैमासिक पत्रिका 'शब्दयोग' के इस विशेषांक का परिचय कराते  हुए इस अंक के संयोजक प्रतिष्ठित कथाकार आर.के. पालीवाल ने कहा कि आबिद सुरती एक ऐसे विरल कथाकार व कलाकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से हिन्दी और गुजराती साहित्य को पिछले दशकों से निरंतर समृद्ध किया है | कथाकार व व्यंगकार होने के साथ ही उन्होंने कार्टून विधा में महारत हासिल की है,  फिल्म लेखन किया है और गजल विधा में भी हाथ आजमाए हैं | 'धर्मयुग' जैसी पत्रिका में 30 साल तक लगातार 'कार्टून कोना ढब्बूजी' पेश करके उन्होंने एक रिकार्ड ही बनाया है | इसलिए इस अंक का संयोजन करने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ी, क्योंकि आबिद सुरती को समग्रता में प्रस्तुत करने के लिए उनके सभी पक्षों का समायोजन जरुरी था |


श्रोताओं   के प्रश्नों का उत्तर देते हुए आबिद सुरती ने कहा कि मेरे सामने हमेशा एक सवाल रहता है कि मुझे पढने के बाद पाठक क्या हासिल करेंगे | इसलिए मैं सन्देश और उपदेश नहीं देता | आजकल मैं केवल प्रकाशक के लिए किताब नहीं लिखता और महज बेचने के लिए चित्र नहीं बनाता | मेरी पेंटिंग और मेरा लेखन मेरे आत्मसंतोष के लिए है | भविष्य में जो लिखूंगा, अपनी प्रतिबद्धता के साथ ही लिखूंगा | इस आयोजन में आबिद सुरती के बहुत से पाठकों व प्रशंसकों के अलावा मुंबई के साहित्य जगत से काफी संख्या में लोग उपस्थित रहे |





गाँव जोकहरा के पुस्तकालय में आबिद सुरती ने सिखाया बच्चों को कार्टून बनाना -

श्री आबिद से लगभग पांच वर्ष पूर्व मेरी मुलाकात हुई थी | वह उस समय आजमगढ़ (उ. प्र. ) के गाँव जोकहरा स्थित श्री रामानंद सरस्वती पुस्तकालय में आयोजित एक राष्ट्रीय साहित्यिक संगोष्ठी में शामिल  होने आये थे | संयोगवश मैं भी संगोष्ठी में उपस्थित था | 

देश के कोने-कोने से साहित्यकार आये  थे | बहुत से साहित्यकार एक दुसरे से अपरचित थे | मैं भी श्री आबिद को नहीं जानता था |

किन्हीं कारणों से संगोष्ठी का उद्घाटन सत्र प्रारंभ होने में कुछ विलम्ब हो रहा था | पुस्तकालय के संस्थापक एवं संगोष्ठी के मुख्य सूत्रधार  विभूति नारायण राय ने सोचा  कि क्यों न इस विलम्ब का लाभ उठाया जाए | उन्होंने श्री आबिद से आग्रह किया कि वे कुछ समय गाँव के बच्चों को कार्टून बनाना सिखा दें | श्री आबिद की स्वीकृति मिलने पर आनन-फानन में बच्चों को एकत्र किया गया |

एक कमरे में उनको बैठाया गया | ब्लैक  बोर्ड नहीं था तो क्या हुआ कमरे के दरवाजे ने बोर्ड का स्थान ले लिया | श्री आबिद ने बच्चों को जिस अन्दाज में कार्टून बनाना सिखाया उसे देख वहाँ उपस्थित सभी लोग अचम्भित हुए | किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि देश-विदेश  में विख्यात, मुंबई निवासी सत्तर वर्षीय श्री आबिद इतनी  सरलता व सहजता से गाँव के बच्चों में बच्चे बनकर कार्टून सिखायेंगे | वह लौकी, बैंगन, आलू, केला आदि सब्जी-फल बनाकर उनको आपस में जोड़ते हुए कुछ आड़ी तिरछी लाइन खींचकर बच्चों के लिए बड़े ही रोचक कार्टून तैयार कर देते | लगभग आधे  घंटे बाद जब उन्होंने बच्चों से कार्टून बनाने को  कहा तो कई बच्चों ने बहुत ही उम्दा कार्टून बनाये | इस दौरान उन्होंने बच्चों का खूब मनोरंजन भी किया | एक घंटे की इस छोटी सी कार्यशाला ने सिद्ध कर दिया कि श्री आबिद एक अच्छे कार्टूनिस्ट व साहित्यकार ही  नहीं,  एक अच्छे शिक्षक भी हैं |
(आबिद सुरती के बारे में अन्य जानकारी  aabidsurti.in  पर प्राप्त की जा सकती हैं) 



                                              प्रसंगवश                                          

लोगों के जीवन को समग्रता में बदल रहा है गाँव जोकहरा का श्री रामानंद सरस्वती पुस्तकालय
इस पुस्तकालय ने ऐसा आकार ग्रहण कर लिया है जिससे गाँव जोकहरा ही नहीं बल्कि आस-पास के बहुत से गाँवों के लोगों का जीवन समग्रता में बदल रहा है | क्योंकि  पुस्तकालय केवल पुस्तकों को पढ़वाने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि  यह पुस्तकालय पूरे प्रदेश में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया है | हिन्दी साहित्य का शायद ही कोई प्रतिष्ठित और नामी लेखक  होगा  जिसने इस पुस्तकालय परिसर में होने वाली संगोष्ठियों में शिरकत न की हो | इनमें डा. नामवर सिंह, श्री लाल शुक्ल, (स्व.) कमलेश्वर, से.रा. यात्री, नीलकंठ, रविन्द्र कालिया, ममता कालिया चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, रमणिका गुप्ता, नमिता सिंह, नीलाभ, भारत भारद्वाज, विकास नारायण राय आदि हैं | इसके अलावा इस पुस्तकालय में प्रख्यात फिल्म अभिनेत्री,  सांसद  एवं  एक्टिविस्ट   सुश्री  शबाना आजमी, वृन्दा करांत, मेधा पाटकर, पदमश्री विभूषित पाण्डवानी, गायिका  एवं  नृत्यांगना  तीजन  बाई,  महान  कार्टूनिस्ट  आबिद सुरती, पर्यावरणविद फोटोग्राफर सुश्री सर्वेश, मानवाधिकारों पर काम करने वाली रूपरेखा वर्मा, तिस्ता सीतलवाड़ , असगर अली इंजीनियर, सुभाषिनी अली, संघप्रिय गौतम आदि हस्तियों का भी पदार्पण हो चुका है |


साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों  के अलावा पुस्तकालय के भीतर  रोजगारोन्मुख  कई  गतिविधियाँ चल रही हैं | सिलाई- कढ़ाई, टंकण कार्य, कम्प्यूटर शिक्षा और अन्य प्रशिक्षणों के माध्यम से युवक-युवतियों के लिए रोजगार की नई खिड़कियाँ खुल रही हैं | फिल्म सोसायटी के जरिये  यहाँ बेहतरीन एवं दुर्लभ हिन्दी फ़िल्में  भी दिखाई  जाती हैं |        

यहाँ रास्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली, भारतेंदु नाट्य अकादमी लखनऊ, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र इलाहाबाद आदि कई नामचीन संस्थाओं एवं रंगकर्मियों ने कई नाट्य कार्यशालाएं आयोजित की हैं | इनके माध्यम से जोकहरा व आस-पास के गाँवों के युवाओं  व बच्चों ने अनेक नाटकों का सफल मंचन किया है | पिछले सात वर्षों में यहाँ के बच्चों एवं युवा कलाकारों ने जोकहरा सहित, लखनऊ, इलाहाबाद, चंडीगढ़ एवं दिल्ली के अलावा अनेक स्थानों पर सफल प्रस्तुतियां की हैं |

इसके अतिरिक्त यहाँ एक लघु पत्रिका केंद्र भी है जिसमें हिन्दी की 200 से अधिक लघु पत्रिकाओं के अंक सुरक्षित हैं | पुस्तकालय नवयुवकों के लिए एक वालीबाल नर्सरी भी  चलाता है |

अब तो यहाँ महिला उत्पीड़न की समस्याओं पर सुनवाई भी होने लगी है | पुस्तकालय उनके अधिकारों की भी लड़ाई लड़ता है| यहाँ और भी कई ऐसी गतिविधियाँ संचालित हैं जो लोगों के जीवन को हर प्रकार से बेहतर बनाने का कार्य कर रही हैं |


जोकहरा में इस पुस्तकालय की स्थापना वर्ष 1993 में विभूति नारायण राय ने की | चर्चित साहित्यकार विभूति नारायण राय इस गाँव के मूल निवासी हैं तथा उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रह चुके हैं | वर्तमान में महात्मा गाँधी अंतररास्ट्रीय  हिन्दी विश्वविद्यालय , वर्धा (महाराष्ट्र) के कुलपति हैं |

आज विशालकाय  भवन में सभी आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण इस पुस्तकालय का प्रारंभ गाँव के एक विद्यालय के एक कमरे में हुआ था | पुस्तकालय लोगों के लिए सुबह छह बजे से रात के आठ बजे तक खुला रहता है | लोग वहाँ बैठकर समाचार पत्र व पत्रिकाएं पढतें हैं और मन  पसंद पुस्तक घर पर पढने के लिए ले जाते हैं | 

सत्रह वर्ष पूर्व जिस समय इस पुस्तकालय की स्थापना की गयी थी उस समय जोकहरा भी पूर्वांचल के अन्य गाँवों की तरह जातिगत व्यस्था एवं सांस्कृतिक दरिद्रता से ग्रस्त था | दलित बाहुल्य इस छोटे  से गाँव में दलितों के अतिरिक्त ठाकुर, ब्राह्मण, यादव एवं भूमिहार भी हैं | ठाकुरों, ब्राह्मणों और भूमिहारों के  छुआछूत और जातिवाद के कोड़ों से दलित समुदाय लहूलुहान था | अब यहाँ नई चेतना और आत्मविश्वास  की बयार से इनका परिदृश्य बदल रहा है | पुस्तकालय की प्रमुख गतिविधियों में अनेक दलित युवक-युवतियां खासे सक्रिय हैं और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सम्भाल रहे हैं | पुस्तकालय के संस्थापक विभूति नारायण राय को गाँव के दलित अपना मसीहा मानते हैं | दलित ही नहीं विभिन्न वर्गों के ऐसे बहुत से पीड़ित लोग हैं जिनके जीवन को उन्होंने संवारा है, सहारा दिया है | उनमें से एक सुधीर शर्मा भी हैं | सुधीर शर्मा इस पुस्तकालय के एक प्रमुख स्तम्भ हैं जो कभी नशाखोरी के अपराध में गोवा की जेल में दस वर्ष की सजा भुगत चुके हैं |

पुस्तकालय के बारे में अन्य विवरण  srsp1993.blogspot.com  तथा   sriramanandsaraswatipustkalaya.blogspot.com पर प्राप्त किया जा सकता है |

Sunday, July 4, 2010

अहम् भूमिका होती है प्रविष्टियों पर टिप्पणियों की

प्रविष्टियों पर टिप्पणियों की भूमिका बड़ी अहम् होती है | रचनात्मक टिप्पणियां  तो 
लेखक पर विशेष छाप छोडती हैं, साधारण टिप्पणियों का  भी प्रभाव पड़ता है | यदि 
लेखक को उसकी रचना पर कोई टिप्पणी  नहीं मिलती तो वह छटपटाता है | उसके
मन में तरह-तरह के प्रश्न उठते हैं- क्या पाठक को रचना अच्छी  नहीं  लगी,
उसमें क्या कमी रह गयी.....इत्यादि |

ब्लॉग  पर मेरी  पहली प्रविष्टि 28 मार्च 2010 को  प्रकाशित  हुई | अभी तक मैं कुल
आठ प्रविष्टि  ही ब्लॉग पर प्रकाशित कर सका  |

मैंने जब ब्लॉग पर लिखना शुरू किया था उस समय मुझे यह भी नहीं पता 
था की ब्लॉग की  रचनाओं पर टिप्पणियां भी होती  हैं | सौभाग्य से पहली  
प्रविष्टि ही ब्लागवाणी पर हिट हुई अर्थात उस दिन वह  प्रविष्टि सबसे ज्यादा 
पढ़ी गयी | इसके बाद की प्रविष्टियाँ भी खूब सराही गयीं  और काफी  टिप्पणियां 
मिलीं |  कभी कभी तो प्रविष्टि के प्रकाशित होने के 10 मिनट बाद ही टिप्पणी
मिल गयी |

इन टिप्पणियों का मुझ पर यह असर हुआ की प्रविष्टि  को अब तो ब्लॉग पर
प्रकाशित करने के बाद  ही टिप्पणियों की प्रतीक्षा करता हूँ | टिप्पणियां देर से या 
कम आने पर छटपटाहट  होती है  | सबसे ज्यादा  छटपटाहट -16   जून  2010 
की नवीनतम प्रविष्टी "डिस्ट्रिक्ट गवर्नर लायन  पुष्पा स्वरुप  से  विशेष मुलाकात" 
को ही  लीजिये | प्रविष्टि प्रकाशित होने के 24 घंटे  तक केवल एक टिप्पणी मिली |
इस अन्तराल  में काफी छटपटाहट रही | इसको लेकर मन में तरह-तरह के सवाल
उठे | साथियों से इस पर चर्चा की | एक साथी ने कहा - इंटरव्यू कुछ लम्बा हो
गया हो इसलिए पढ़ा ही न गया हो | दूसरे साथी ने कहा- चूँकि यह इंटरव्यू
लायन्स क्लब के एक बड़े पदाधिकारी का था और बहुत से लोग इन क्लबों  को कोई
अच्छी नजर से  नहीं देखते, शायद  इसलिए न  पढ़ा गया हो,  आदि-आदि |

मैंने साथियों को अपनी सोच से अवगत कराया | "यह इंटरव्यू   विशेष मुलाकात के
रूप में  था | इसलिए बड़ा था | इसमे  विभिन्न पहलुओं पर बातचीत करके उस 
सख्शियत  से अधिकतम विचार लेने  की कोशिश  की जाती है |  जहाँ  तक
'लायन्स क्लब'  की बात है तो 'लायन्स क्लब' का गुणगान करने की कोशिश मैंने 
नहीं की |'लायन्स क्लब' तो केवल माध्यम था | गुणगान तो एक महिला के उस
संघर्ष का था  जिससे वह सशक्त बन रही है और दूसरी महिलाओं को भी सशक्त
बनाते हुए समाज के लिए  काम कर रही है | उद्देश्य यह भी था कि  अन्य
महिलाएं सशक्त बनने के लिए, कुछ करने के लिए प्रेरणा  ले सकें|

यह  चर्चा चल ही रही थी कि एक साथी ने कहा "ई-मेल खोलकर  देखो शायद
अब कोई टिप्पणी आ गयी हो |" देखा कि  'चर्चा मंच' की संयोजिका सुश्री अनामिका 
का  एक सन्देश  था  - "डिस्ट्रिक्ट गवर्नर  लायन पुष्पा स्वरुप  से विशेष  मुलाकात"
को 'चर्चा मंच' में 18 जून 2010 (प्रवष्टि प्रकाशित  - 16 जून 2010) को सजाया
जायेगा |  इसको  पढ़कर सभी साथी ख़ुशी से  उछल पड़े | उस दिन  का इंतजार
करने लगे  |

अगले  दिन  (18 जून) जब  'चर्चा मंच' को  देखा गया तो पता चला की  "चर्चा मंच"
पर कुल 18 प्रविष्टियों   को सजाया गया है जिसमे अपनी प्रविष्टि  छठे क्रम पर
थी |   देखकर बड़ी ख़ुशी हुई |

ऐसी  ख़ुशी तब भी  हुई थी जब 'चिठ्ठा जगत' के संयोजक  श्री अनूप शुक्ल ने  "महिला. 
आई.ए.एस. टापर इवा  सहाय से विशेष मुलाकात" को चिठ्ठा चर्चा के लिए चुना
और उसे बहुत ही सुन्दर ढंग से 'चिठ्ठा जगत' पर प्रकाशित किया | 

आम तौर पर  चर्चाओं से बहुत ख़ुशी मिलती  है, लेकिन एक टिप्पणी ऐसी मिली 
जिसने ख़ुशी के साथ मार्गदर्शन भी  किया | प्रविष्ट "मैं और मेरा शौक" पर कनाडा से
'उड़न तस्तरी' के श्री समीर लाल की  टिप्पणी "अच्छा और खूब  पढना  ही अच्छा  
लेखन लेकर आयगा  ... जारी रहें'  ने  बहुत  प्रेरित किया | यह  मुझे लगभग प्रत्येक 
दिन याद आती हैं  और कुछ अच्छा पढने  के लिए प्रेरित करती है| इसी प्रेरणा के
चलते कुछ न कुछ  पढ़ लेता हूँ और मन में श्री समीरलाल जी को नमन करता हूँ  |

प्रविष्टि  "स्टार एंकर  हंट पर  विशेष  रपट"  पर चित्तौड़गढ़   (राजस्थान) से 
'अपनी माटी' के श्री मणिक  जी की टिप्पणी  उस समय बहुत सांत्वना देती है जब
किसी प्रविष्टी पर टिप्पणियाँ कम आती हैं  या नहीं  आती हैं |  श्री मणिक जी की 
टिप्पणी थी  - "आपके ब्लॉग पर आकर कुछ तसल्ली हुई |  ठीक लिखते  हैं  | सफर
जारी  रखें | पूरी तबियत के साथ लिखते रहें| टिप्पणियों का  इंतजार न करें | वे
आएँगी तो अच्छा  है नहीं भी आया तो क्या| हमारा लिखा कभी तो रंग लायेगा |
वैसे भी साहित्य अपने मन  की ख़ुशी के लिए भी होता  रहा है | "

अन्त  में,  मैं उन सभी  भाई-बहनों का  हार्दिक  आभार  प्रकट करता हूँ , धन्यवाद  
करता हूँ जिन्होनें  मेरी   प्रविष्ठियाँ पढ़ीं, उन पर टिप्पणियां दीं, उन्हें विशेष महत्व 
देकर अन्य लोगों को पढवाने के लिए प्रेरित किया | इनसे मेरा उत्साहवर्धन हुआ है,
मुझे मार्गदर्शन मिला है |

प्रविष्टियों पर टिप्पणियों के महत्व को जानते-समझते हुए भी मैं अपने ब्लागर
भाई-बहनों को उनकी प्रविष्टियों पर अभी टिप्पणियां नहीं भेज पा रहा हूँ | इसके
पीछे मेरी कुछ 'विकलांगताएँ' हैं | मैं  इन  'विकलांगताओं'  को दूर करने की कोशिश में
हूँ,  जैसे ही ये सीमाएं दूर होंगी वैसे ही मैं  भी अपनी टिप्पणियां देनी शुरू करूंगा | तब
तक के लिए क्षमा प्रार्थी  हूँ | आशा है अपना  स्नेह  बनाये रखेंगे | 
     
                       ****************************


Wednesday, June 16, 2010

डिस्ट्रिक्ट गवर्नर लायन पुष्पा स्वरुप से विशेष मुलाकात

 महिलाएं पुरषों का विरोध करके नहीं, उनका सहयोग लेकर  सशक्त  बनें - लायन पुष्पा स्वरुप

लायन्स क्लब्स इन्टरनेशनल में डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के पद पर अभी तक हिन्दुस्तान  से चार-छह महिलाएं ही चुनी गयीं हैं, इनमें से एक श्रीमती पुष्पा स्वरुप हैं जिनका चुनाव इस पद के लिए गत माह निर्विरोध हुआ | श्रीमती स्वरुप केवल इसीलिए विशिष्ट नहीं हैं, उन्होंने वर्ष 1989 में लायन्स इलाहाबाद ईव्स के नाम से केवल महिलाओं के लिए एक क्लब की स्थापना की जो हिन्दुस्तान की पहली एवं एकमात्र महिला लायन्स क्लब है  जो आज भी कार्य कर रही हैं | श्रीमती स्वरुप के ससुर श्री जगदीश स्वरुप सोलीसिटर जनरल आफ़ इन्डिया रह चुके हैं | चर्चित लेखक विकास  स्वरुप इनके भतीजे हैं जिनकी बेस्ट सेलर पुस्तक 'क्यू एंड ए' पर आस्कर पुरस्कृत  फिल्म "स्लमडाग मिलिनियर" बनी जो पिछले साल काफी सुर्ख़ियों में रही | श्रीमती स्वरुप ने कई इतिहास रचे हैं और उनकी मुहिम  अभी जारी  है | यहाँ प्रस्तुत है उनसे जार्जटाउन, इलाहाबाद स्थित उनके आवास पर हुई लम्बी बातचीत के प्रमुख अंश -

प्रश्न - आप एक महिला होकर लायन्स क्लब के वाईस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के पद तक पहुँची हैं तो इस सफलता के लिए आपने क्या प्रयास किये ? आपकी इस सफलता का क्या रहस्य है ?

उत्तर - मैं आपको बताना चाहुँगी कि मुझसे पहले और कई डिस्ट्रिक्ट में महिलाएं गवर्नर हो चुकी हैं लेकिन अभी  तक हमारे डिस्ट्रिक्ट ( 321 ई ) में कोई महिला गवर्नर नहीं हुई थीं | लेकिन इस बार हमारे मण्डल के    पदाधिकारियों ने यह निर्णय लिया कि किसी महिला को गवर्नर बनाया जाये | और मैं अपने इस क्लब से डिस्ट्रिक्ट में सबसे सीनियर थी | मेरी योग्यता और काम  करने की ललक को देखते हुए उन्होंने मुझे 17 मई 2010 को वाराणसी में हुए इस चुनाव में निर्विरोध निर्वाचित कराया | हमारे डिस्ट्रिक्ट में पहली बार ये इतिहास रचा गया | इसमें पुरुष लायन्स का बहुत सहयोग रहा जिनमें इन्टरनेशनल डायरेक्टर लायन जगदीश गुलाठी, पीडीजी मंगल सोनी आदि सम्मानित पदाधिकारी एवं लायन मेम्बर शामिल हैं |

प्रश्न - आप अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ बताइए ?

उत्तर - मेरे ससुर श्री जगदीश स्वरुप जी भारत के सोलीसिटर जनरल रह चुके हैं और एक सीनियर एडवोकेट भी | हमारे घर में सभी एडवोकेट हैं | मेरे ज्येठ-जिठानी, पति और मैं भी | मगर बच्चे सर्विस में हैं | हमारा परिवार एक सम्मानित परिवार है |  पहले मैं भी वकालत करती थी | मैंने लायन क्लब वर्ष 1978-79 में ज्वाइन किया | तब से इसके सेवाकार्य में लगी हूँ | जब मैं लायन क्लब में आई, उस समय महिला लायन नहीं होती थीं | 1987 में सुप्रीम कोर्ट अमेरिका ने निर्णय दिया कि जब महिलाएं भी सेवा कार्य करती हैं तो वे भी क्यों लायन नहीं हो सकती , उन्हें वोट देने का अधिकार क्यों न दिया जाये, क्यों गवर्नर नहीं हो सकती | और तब से ही महिलाएं भी लायन होने लगीं, उन्हें भी अधिकार मिल गये |
मैंने इलाहाबाद में वर्ष 1989 में 40 महिलाओं के साथ सिर्फ महिलाओं के लिए लायन्स क्लब खोला था | हम सबसे ज्यादा सेवा कार्य करते थे | हाँ मुझे  इस मुकाम तक पहुँचने में काफी टाइम लगा लेकिन मुझे ख़ुशी  है कि मेरा चयन इन लोगों ने किया | पहले लोग स्वीकार नहीं करते थे कि एक महिला इस तरह के किसी पद पर जाये लेकिन अब समय बदल रहा है | और मेरा भी, गवर्नर से पहले सभी पदों पर हमेशा अच्छा काम रहा है जिसके लिए कई बेस्ट अवार्ड  भी  मिलते रहे और मैंने सेवा कार्य भी बहुत किया | बेली हास्पिटल में मरीजों के लिए एक कमरा बनवाया जिसमें मेरे तक़रीबन 2 लाख रुपये खर्च हुए | इस तरह से मेरी सेवा को देखते हुए और मेरे काम  को देखते हुए शायद इन लोगों ने सोचा होगा कि पुष्पा स्वरुप को गवर्नर बनाया जाना चाहिए और मुझे ख़ुशी है  कि मेरा निर्विरोध चयन हुआ |

प्रश्न - आपका क्या मानना है कि आपको जो यह सफलता मिली है यह सिर्फ आपकी मेहनत का नतीजा है या इसमें किस्मत जैसी भी किसी चीज की भूमिका रही है ?

उत्तर -  मैंने हर पोस्ट-क्लब प्रेसीडेंट, जोन चेयरपर्सन इत्यादि में हमेशा बेस्ट परफार्मेन्स दी  है और बेस्ट लायन के आवार्ड जीते हैं, तो मेहनत व क़ाबलियत तो थी ही | वैसे महिलाएं तो और भी थीं | यहाँ तक पहुँचने में मुझे 10 साल लग गये | बाकी मैं यह मानती हूँ कि मैं इस पोस्ट की  उम्मींद अभी नहीं कर रही थी, तो एक चमत्कार भी है | मुझे पता भी  नहीं था, मुझे मुंबई से बुलाया गया, एक तरह से मुझे आफ़र किया गया तो किस्मत भी है | बगैर किस्मत के भी कुछ नहीं होता | बहुत सारे काबिल और मेहनती लोगों को कभी - कभी कुछ नहीं मिल पाता, तो मेहनत और काबिलियत के साथ किस्मत भी थी |

प्रश्न - महिला क्लब कितने होंगे हिन्दुस्तान में ?

उत्तर - हिन्दुस्तान में पहला महिला क्लब तो मेरा ही था, बाद में पंजाब और दिल्ली में भी खुले | लेकिन इस समय महिला क्लब मेरा ही रह गया है  क्योंकि बाकी क्लबों में धीरे-धीरे पुरूष आ गये हैं, लेकिन मेरा क्लब अभी भी सिर्फ महिलाओं के लिए ही है | हम दिखाना चाहते हैं कि महिलाएं भी वे सब काम कर सकती हैं जो पुरूष कर सकते हैं |

प्रश्न - आपने अपने क्लब में पुरूषों पर प्रतिबन्ध क्यों लगा रखा हैं ?

उत्तर - (हँसते हुए) हमारा उददेश्य था कि महिलाओं को आगे लायें | फिर दूसरा यह कि कुछ महिलाएं पुरूषों के साथ काम करने में असहज महसूस  करती हैं तो मैंने यह निर्णय किया था कि एक समानता रखी जाये क्लब में, या तो सभी महिलाओं के पारिवारिक सदस्यों को क्लब मेम्बर बनाया जाए या फिर किसी को भी नहीं, केवल महिलाएं रहें | इसलिए सिर्फ महिलाओं को ही साथ रखा और लगातार, हर काम में यह दिखा दिया कि हम भी, हर एक सेवा में, किसी से कम नहीं हैं और मेरा क्लब इतने दिनों से सफलतापूर्वक चल रहा है और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहा है |

प्रश्न -  अभी इस क्लब में कितनी महिलाएं सदस्य हैं ?

उत्तर - 40 शुरू किया था, संख्या 60 तक भी पहुँची लेकिन वर्तमान में 36 हैं |

प्रश्न - किस कारण से संख्या 60 तक पहुँचने के बाद आज 36 रह गयी हैं ?

उत्तर -  संख्यायें बढती-घटती रहती हैं, कभी किसी का स्थानान्तरण हो गया या कोई कहीं और चला गया | इस तरह भौतिक समस्यायों की वजह से, अन्य कोई खास कारण नहीं है | हमारे क्लब की प्रतिष्ठा  बहुत अच्छी है |

प्रश्न - किस प्रकार की महिलाएं आपके क्लब की सदस्य हैं ?

उत्तर - ज्यादातर कामकाजी महिलाएं हैं जो सर्विस करती हैं उनमे भी टीचरों की संख्या ज्यादा है, एडवोकेट भी हैं | कुछ गृहणियां भी हैं |

प्रश्न -  इस जिले में आपके क्लब का स्थान क्या है ? आप क्या मानती हैं ?

उत्तर  - मेरे इस जिले (321 ई ) में इलाहाबाद के अतिरिकत आस-पास के वाराणसी,गोरखपुर, आजमगढ़,  जौनपुर,  सुल्तानपुर, भदोही, सोनभद्र, बलिया, बस्ती, प्रतापगढ़ आदि 23 जनपद हैं जिनमें कुल 72 क्लब हैं | जिनमें मेरे क्लब का स्थान बहुत ही अच्छा है | हर साल मेरा क्लब मल्टीपिल से, डिस्ट्रिक्ट से, अवार्ड  पाता है, इन्टरनेशनल से अवार्ड पाता है | काम भी हमेशा हमारा अच्छा रहता है | हाँ आगे मैं यह चाहती हूँ कि एक परमानेंट प्रोजेक्ट मेरे क्लब का हो जाए, जैसे चल रहा है हमारा कौडिहार गाँव मूसेपुर में | हम वस्त्र देतें हैं, दवाएं देते हैं | आपरेशन करते हैं जिसका इलाज गाँव में नहीं हो पाता उन्हें यहाँ अस्पताल में ले आते हैं | उनका कोई खर्च नहीं होता | सारा खर्च हमारा क्लब वहन करता है |

प्रश्न - आपका क्लब, इलाहाबाद के अन्य क्लबों से किन मायनों में भिन्न है ?

उत्तर -  हमारा क्लब काफी पुराना है और दूसरा हमारे क्लब का मुख्य उददेश्य महिलाओं का सशक्तिकरण है | महिलाओं को बढ़ावा देना, उन्हें आत्मनिर्भर बनाना, ये हम करते हैं | इसके अलावा प्रौढ़ शिक्षा आदि भी है | आगे हमारी इच्छा हँ कि भविष्य में हम किसी गाँव में 4-5 कमरों का हास्पिटल, शिक्षा के लिए स्कूल इत्यादि का कुछ निर्माण कराएँ, ये हमारी योजनाओं   में है |

प्रश्न - आम लोगों की राय है कि क्लब  लोगों के शौक पूरा करने का साधन हैं, यह सामाजिक कार्यों का मात्र दिखावा करते हैं, आपका क्या मानना है ?

उत्तर - नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है | इक्का-दुक्का क्लबों की मैं बात नहीं करती वरना ऐसा नहीं है | आप देखिये लायन्स क्लब क्या क्या काम करता है और यही नहीं पूरे विश्व में करता है | और इसके बहुत बेहतरीन काम है | पूरी दुनिया में जहाँ भी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं, वहाँ हमारे लायन्स क्लब इन्टरनेशनल के सदस्य पहुँच कर सेवा कार्य करते हैं | कुछ लोगों की वजह से आप सभी को दोष नहीं दे सकते | यूँ तो दुनिया में बहुत सारे संगठन हैं लेकिन उन सभी में लायन्स क्लब सबसे बड़ा है | जो लगभग 205 देशों में फैला हुआ है और जिसमें लगभग 14 लाख सदस्य हैं | यह क्लब सिर्फ आकार में ही नहीं बल्कि सेवाकार्य में भी सबसे आगे है |

प्रश्न -  लायन्स क्लब गठित करने का उददेश्य क्या है और किन कामों में यह सक्रिय है ?

उत्तर - सन 1917 में शिकागो के एक बिज़नेसमैन् मेल्विन जोन्स ने खाली  समय में जरूरतमंदों की मदद के उददेश्य से अमेरिका में स्थापित किया था | मेल्विन जोंस ने अपने साथियों से निवेदन किया कि कैसा रहे, यदि हम लोग, जो अपने क्षेत्र में सफल है, अपनी बुद्धिमत्ता और महत्त्वाकांक्षा से, अपनी योग्यताओं का उपयोग करे अपने समुदाय को उठाने में |  उनका मानना था कि आप बगैर दूसरो के लिए कुछ किये, ज्यादा आगे नहीं जा सकते | और उनका यह वक्तव्य आज भी दूसरे लायन्स को सामुदायिक महत्त्व की याद दिलाती हैं | उन्होंने इसे 6-7 लोगों के साथ शुरू किया था लेकिन आज ये पूरे विश्व में (205 देशो में, 14 लाख सदस्य ) फैला हुआ है | इसका सूत्र वाक्य है - "हम सेवा करते हैं" | इसकी मुख्य योजनाओं में दृश्य संरक्षण, श्रव्य संरक्षण,  विकलांगों,  अन्धों की सहायता करना, मोतियाबिन्द के आपरेशन कराना,  ब्लड  डोनेशन, प्रौढ़ शिक्षा, डायबिटीज़ आदि के बारे में जागरूकता देना, अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध एवं पर्यावरण संरक्षण  के महत्त्वो का प्रचार आदि हैं | जिन्हें लायन्स क्लब इंटरनेशनल हमारे ही भेजे गये फंड की मदद से पूरा करता है |

प्रश्न - अभी तो आप  सेकेण्ड वाईस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर चुनी गयी हैं जब आप पूरी तरह से गवर्नर बन जाएँगी तब आपकी प्राथमिकताएँ और योजनाएं  क्या होंगी ?

उत्तर -  मेरी समझ से गाँवों में हास्पिटल खोलने चाहिए | मैं जमीन  भी ढूंढ रही हूँ और इसे जरूर करूंगी | यह मेरी पहली योजना है | इसके अतिरिक्त जो भी क्लब कमजोर हैं उन्हें मज़बूत करने की कोशिश करुँगी | अभी तो यही है आगे जैसे - जैसे सीखती जाऊंगी, योजनाएं भी बनती जाएँगी |

प्रश्न - क्या आप इन्टरनेशनल प्रेसीडेंट, डायरेक्टर अथवा डिस्ट्रिक्ट गवर्नर को कोई सुझाव देना चाहेंगी ?

उत्तर-  जी, मैं चाहूँगी कि लायन्स को बढ़ने के लिए गाँवों की तरफ ध्यान दें | लोगों को लायन्स के बारे में बताएं कि लायन्स क्या करता है, कैसे वे इसके फायदे उठा सकते हैं | कुछ इस तरह की पब्लिसिटी पर जोर दें | और मैं समय-समय पर सुझाव देती भी रहती हूँ |
सुझावों  के अनुसार डायरेक्टर व गवर्नर नीतियाँ बनाते रहते हैं और बदलते रहते हैं | उदहारण के तौर पर पहले केवल डिस्ट्रिक्ट गवर्नर की पोस्ट थी | उसके बाद वाईस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर की पोस्ट बनी और अब सेकेण्ड वाईस डिस्ट्रिक्ट गवर्नर की पोस्ट भी बन गयी |  जिससे वे डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के मार्गदर्शन में रहते हुए अपनी जिम्मेदारियों को बेहतर ढंग से पूरा करने का प्रशिक्षण ले सकें |

प्रश्न -  क्या आप इन्टरनेशनल स्तर पर भी किसी पद को पाने की महत्वाकांक्षा रखती हैं ?

उत्तर -  जी हाँ, ऐसा सपना तो सभी का हमेशा ही रहता है | देखिये हमारे यहाँ डिस्ट्रिक्ट गवर्नर के बाद मल्टीपिल काउंसिल चेयरपर्सन बनते हैं और उसके बाद इन्टरनेशनल डायरेक्टर | सपना तो है ही मेरा भी | मेहनत कर रही हूँ, और किस्मत साथ दे दे, तो बिलकुल बनना चाहती हूँ |

प्रश्न -  इन्टरनेशनल प्रेसीडेंट कभी कोई भारतीय महिला हुई है या नहीं ?

उत्तर -  नहीं, इन्टरनेशनल प्रेसीडेंट तो नहीं लेकिन महिलाएं इन्टरनेशनल डायरेक्टर हुई हैं लेकिन वे भी विदेशी | भारत से कुछ महिलाएं डिस्ट्रिक्ट गवर्नर जरूर बनी हैं, और अब मैं भी उनमें जुड़ गयी हूँ |

बातचीत के दौरान साथ में बैठे है लायन डा. आर के श्रीवास्तव 

प्रश्न -  आपने किस उददेश्य से लायन्स क्लब को ज्वाइन किया था ?

उत्तर - उददेश्य तो केवल सेवा ही था | सेवा करती भी रही, जैसा कि मैंने पहले भी बताया कि बेली हास्पिटल में एक कमरा बनवाया, इसी तरह से हास्पिटलों में ए.सी., वाटर कूलर और कई मशीनें भी लगवाईं | इस तरीके के छोटे मोटे बहुत से काम किये | लायन्स क्लब में नई चीजें सीखने का अवसर मिलता है | सेवा कार्य को अधिक से अधिक व बेहतर ढंग से करने के प्रशिक्षण व अवसर मिलते हैं |

प्रश्न - आपने वकालत कितने समय तक की ?

उत्तर - 4-5 साल तक की | जब लायन्स ज्वाइन किया तो छूट गयी | मेरी सासु माँ ने बहुत सपोर्ट किया कि घर से बाहर जाओ, समाज के लिए कुछ करो |

प्रश्न -  कभी ऐसा नहीं लगा कि इन सामाजिक कार्यों की वजह से परिवार उपेक्षित हुआ ?

उत्तर-  कभी ऐसा नहीं लगा | देखिये शुरू में तो हम सिर्फ लायन ही बने थे लेकिन एक्टिव हुए तभी जब बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो गये | उनकी शादी हो गई तब इसमें पूरी तरह से लगी | दो बच्चे हैं | मेरा एक लड़का राजेश स्वरुप है जो आई.डी.बी.आई. में डिप्टी जनरल मैनेजर है और एक बेटी है | दामाद प्रवीण गौड़ महुआ चैनल में चीफ  एक्जिक्यूटिव  हैं | अब घर में कोई काम ही नहीं रहता तो क्यों न वक्त समाज की भलाई में लगाया जाए | मेरा परिवार भी सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहा है |

प्रश्न - राजनीति में भी आना चाहेंगी ?

उत्तर -  राजनीति के लिए समय और पैसा  दोनों ही प्रचुर मात्रा में चाहिए | इसलिए मुझे लगता है कि इसके लिए अभी अनुपयुक्त हूँ | बाकी आगे देखिये वह तो समय के हाथ में है |

प्रश्न -  महिला होने के कारण आपको कोई विशेष संघर्ष करना पड़ा है ?

उत्तर - जी हाँ बिलकुल, संघर्ष करना पड़ा | इसीलिए मुझे यहाँ तक पहुँचने में इतना समय भी लग गया | संघर्ष तो बहुत करना पड़ा लेकिन मैंने विजय प्राप्त कर ली और इस विजय में मेरे कुछ पास्ट  डिस्ट्रिक्ट गवर्नर्स का भी योगदान रहा जैसे पी.सी. अग्रवाल जी,  के.एल.के. चंदानी  जी, जगदीश गुलाठी जी, मुकुंद लाल टंडन जी, संगम लाल जी इत्यादि ने बहुत सहयोग किया और मुझे हमेशा प्रोत्साहन दिया |

प्रश्न - आप महिलाओं को क्या स्थान देती हैं - वे पुरूषों से कम हैं, बराबर हैं या ज्यादा हैं ?

उत्तर -  बराबर हैं और हर मामले में बराबर हैं | महिलाएं हर वे काम कर सकती हैं जो पुरूष कर सकता है | लेकिन मेरा यह मानना है कि हमें, महिलाओं और पुरूषों को एक दुसरे से सामंजस्य बनाकर काम करना चाहिए न कि एक दुसरे के सामने खड़े होकर |

प्रश्न - आपका कोई रोल माडल ?

उत्तर -  इन्टरनेशनल डायरेक्टर नरेश अग्रवाल जी जो दिल्ली से हैं, मैं उनसे बहुत प्रेरित होती हूँ | और मुझे यह विश्वास भी है कि एक दिन वे इन्टरनेशनल प्रेसीडेंट भी जरूर बनेंगे | वे काम भी बहुत करते हैं | वे जानते हैं कि लायन्स के कार्यों में कैसे बढावा लाया जा सकता है | और वे किसी को भी मोटिवेट कर लेते हैं | सभी को सही जानकारी देते हैं | उनसे बहुत प्रेरणा मिलती है |

प्रश्न - आपके जीवन का लक्ष्य क्या है ?

उत्तर -  मेरे जीवन का लक्ष्य है लगातार आगे बढ़ते  रहना | और जीवन पर्यन्त समाज के लिए कुछ करते रहना |

प्रश्न -  आपकी नजर में हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या और उसका निदान क्या है ?

उत्तर - मेरी नजर में जनसँख्या वृद्धि हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है | और लोगों में जागरूकता बढ़ाना और कड़े कानून बनाना ही इसका उपाय हो सकता है | लोगों को शिक्षित किया जाए |

प्रश्न - क्या आप जन्मजात प्रतिभा जैसी किसी चीज में विश्वास रखती हैं ?

उत्तर - जी हाँ प्रतिभा होती है और जन्मजात प्रतिभा भी होती है | लेकिन मेरा यह मानना है कि इन्सान को आगे बढ़ने  के लिए प्रतिभा के साथ-साथ किस्मत और अन्य संसाधनों का साथ मिलना भी बहुत जरूरी होता है वरना अक्सर प्रतिभावान लोग भी दौड़ में पीछे रह जाते हैं | बाकी जन्मजात प्रतिभा सबमें जरूर कुछ  न कुछ होती है | मेरे ससुर में पेंटिंग का टेलेंट था | मेरे भतीजे विकास स्वरुप में लिखने का टेलेंट था | उसे अवसर मिला तो उसका टेलेंट दुनिया के सामने भी आया |

प्रश्न - विकास स्वरुप के बारे में कुछ बताइये ?

उत्तर - विकास स्वरुप "क्यू एंड ए" नामक इन्टरनेशनल बेस्ट सेलर बुक के लेखक हैं | इसी पुस्तक पर  "स्लमडाग मिलिनियर" फिल्म बनी है जिसने ग्यारह आस्कर पुरस्कार जीते हैं | मेरी शादी के वक्त यह बहुत छोटा था | 5 साल का | बचपन से ही बहुत तेज था | प्रथम कक्षा से ही हमेशा टापर रहा | मेरे पति का बहुत दुलारा था | इसको देखते देखते  सभी बच्चे पढने में अच्छे निकाल गये | बचपन में बाबूजी (ससुर) के साथ बहुत समय बिताता था | बी.ए. के बाद पहले प्रयास में आई.पी.एस. (भारतीय पुलिस सेवा) में इसका सेलेक्शन हो गया था | लेकिन पहली पोस्टिंग अच्छी जगह न मिलने के कारण वहाँ नहीं जाना चाहता था | इत्तेफाकन आई.एफ.एस. (भारतीय विदेश सेवा) की एक सीट खाली हुई | इसे अवसर मिला | इसने तुरन्त उसे ज्वाइन कर लिया  | अब किताब लिखने के बाद नाम भी मिल गया अब तो लिखने में बहुत व्यस्त है | छुट्टियों में हिन्दुस्तान आता  है , लेकिन ज्यादा दिन के लिए नहीं |

प्रश्न - महिलाओं के लिए कोई सन्देश ?

उत्तर - महिलाएं अपनी शक्ति को पहचानें  | वे किसी भी मायने में कम नहीं हैं | आत्मनिर्भर बनें | पुरूषों का विरोध करके नहीं, उनका सहयोग लेकर सशक्त बनें |

श्रीमती पुष्पा स्वरुप के पति श्री अविनाश स्वरुप से कुछ    प्रश्न जो इलाहाबाद हाईकोर्ट में सीनियर एडवोकेट हैं -

प्रश्न - आपकी पत्नी को लायन्स क्लब में जो सफलता मिली है इससे आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?

उत्तर -  मैं बहुत खुश हूँ |

चुनाव जीतने के बाद पुष्पा स्वरुप अपने पति श्री अविनाश स्वरुप के साथ

प्रश्न -  पुरूष प्रधान समाज में आपको कभी ऐसा नहीं लगता कि ये आपसे आगे चली जा रहीं हैं, आपसे ज्यादा ये चर्चा में हैं, आपसे ज्यादा इनका नाम हो रहा है, इससे आपमें हीन भावना नहीं आती ?

उत्तर - देखिये शुरू से ही हमारा परिवार इन चीजों के विरोध में रहा | मेरे पिताजी, माताजी उन्होंने खुद अपनी बहुओं को आगे बढ़ने,  बाहर निकलने को प्रोत्साहित किया |  पर्दा प्रथा खत्म की | तो एक ऐसे परिवार से होने के नाते कभी ऐसी सोच नहीं रही | मुझे कभी इर्ष्या नहीं होती वरन हमेशा ख़ुशी होती है |

प्रश्न - पुष्पा जी से पहले तो आप लायन बने थे जब लायन क्लब बहुत अच्छी संस्था है तब आपने क्लब क्यों छोड़ दी ?

उत्तर - मैं काफी समय लायन क्लब में सक्रिय रहा | लगभग 15 वर्ष पूर्व क्लब को छोड़ा है | मैं परम्पराओं में विश्वास रखता हूँ लेकिन लीक से हटकर कुछ नया भी करना चाहता हूँ | मेरा स्वभाव लीड करने का है पिछलग्गू बनकर कार्य  नहीं कर सकता | मुझे किसी की गलत बात बर्दास्त नहीं होती है | जब मुझे लगा कि मैं वहाँ अपने स्वभाव के अनुसार  नहीं चल सकता तो मैंने क्लब को छोड़ दिया | इसका मतलब यह नहीं है कि लायन क्लब अच्छी नहीं है |

प्रश्न - आप पुष्पा जी में क्या विशेष गुण देखते हैं ?

उत्तर -  ये विनम्र  एवं लगनशील हैं | जिस कार्य को शुरू करती हैं उसे पूरा अवश्य करती हैं | इनमें नेतृत्व का गुण जबरदस्त है | इन्हें कहना नहीं पड़ता लोग इन्हें स्वतः सहयोग देते हैं |
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इस बातचीत के दौरान जोन चेयरपर्सन लायन डा. आर.के. श्रीवास्तव भी उपस्थित रहे | इन्हें गत दिवस वर्ष 2010-11 के लिए मण्डल का डिस्ट्रिक्ट चेयरपर्सन (साइट फर्स्ट) डिस्ट्रिक्ट गवर्नर लायन के.एल.के. चंदानी (321 ई. ) के द्वारा मनोनीत किया गया है |