सत्य की खोज में

Tuesday, July 27, 2010

दंगों में दिखता पुलिस का असल चेहरा

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वर्तमान धार्मिक या मजहबी आतंकवाद साम्प्रदायिकता  की एक विकृत परिणति है, जिसमे दूसरे सम्प्रदाय की भावनाओं को आहत करने और उन्हें अधिकाधिक क्षति पंहुचाने का तत्व निहित है | साम्प्रदायिकता की बढ़ती विकृतियों से निबटने के लिए वर्ष 2005 में कैबिनेट द्वारा पारित " साम्प्रदायिक हिंसा निषेध विधेयक : रोकथाम , नियंत्रण और पुनर्वास " का पुनर्लेखन हो रहा है | इसी को केंद्र में रखकर " राष्ट्रीय सहारा " दैनिक समाचार पत्र ने अपने साप्ताहिक परिशिष्ट " हस्तक्षेप " में विशेष सामग्री प्रकाशित की है | चार पृष्ठीय इस हस्तक्षेप के मुखपृष्ठ पर प्रथम लेख " दंगों में दिखता पुलिस का असली चेहरा " शीर्षक से प्रकाशित है | शोधपरक इस लेख में समस्या की पड़ताल गहराई से की गयी है | इस लेख के लेखक विभूति नारायण राय हैं  जो लम्बे समय तक भारतीय पुलिस सेवा में उत्तर प्रदेश में रहे हैं और वर्तमान में महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में कुलपति के पद पर कार्यरत हैं |   
 



विभूति नारायण राय 




यहाँ साभार प्रस्तुत है उक्त लेख --
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साम्प्रदायिक हिंसा के विरुद्ध बिल के बहाने सबसे पहले इसके द्वारा बढ़े अधिकारों का उपयोग करने वाली संस्थाओं की क्षमता, इच्छा शक्ति और पूर्व में उनके द्वारा विधि से प्राप्त अधिकारों के उपयोग अथवा दुरुपयोग के इतिहास को खंगालना आवश्यक है। मुझे पूर्व में इसी बिल के ड्राफ्ट पर विचार करने के लिए आयोजित एक गोष्ठी की याद आ रही है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने बहुत अच्छा सवाल उठाया कि क्या भारत के मौजूदा कानून साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए पर्याप्त नही है? वे सम्भवत: पूछना चाहते थे कि अगर भारतीय राज्य में मौजूदा कानूनों की तरह इस नए कानून को लागू करने के लिए भी जरूरी इच्छाशक्ति का अभाव रहा तो इसका भी हश्र उन्हीं जैसा तो नही हो जाएगा?


अब जब यह कानून की शक्ल लेने जा रहा तो मेरे मन में एक और सवाल कौंध रहा है। क्या भारतीय राज्य की जिस संस्था को मुख्य रूप से इन प्रावधानों का उपयोग करना है वह इसके योग्य है भी या नहीं? अदालतों तक पहुंचने के पहले पुलिस इस नए कानून का उपयोग या दुरुपयोग करेगी। पिछला अनुभव बताता है कि विधि में उपलब्ध प्रावधानों का उपयोग पुलिस ने इस तरह किया है कि दंगों में पीड़ितों, खासतौर से अल्पसंख्यकों, के मन में हमेशा यह कसक रही है कि भारतीय राज्य ने वह सब नहीं किया जो उसे ऐसी स्थिति में करना चाहिए था या उसने वह सब किया जो उसे नहीं करना चाहिए था।

1960 के बाद के हर साम्प्रदायिक दंगे में पुलिस के ऊपर पक्षपात के आरोप लगे है। आरोप लगाने वालों मे सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि मानवाधिकार संगठनों से जुड़े लोग, स्वतंत्र मीडिया और विभिन्न जांच आयोगों की रपटे शामिल हैं । यदि हम सरकारी आंकड़ों का ही यकीन करे तब भी हम यही पाएंगे कि हर दंगे मे मरने वालों मे ज्यादातर मुसलमान थे। न सिर्फ ज्यादा बल्कि अधिकतर मामलों में तो तीन-चौथाई से भी ज्यादा। उस पर तुर्रा यह कि इनमें पुलिस कार्यवाही भी अधिकतर मुसलमानों के खिलाफ ही हुई। अर्थात जिन दंगों में मरने वाले अधिकतर मुसलमान थे उनमें भी पुलिस की गाज उन पर ही गिरी। मतलब ज्यादा मुसलमान गिरफ्तार हुए, अधिकतर तलाशियां भी उन्हीं के घरों की हुईं और उन दंगों में भी जहां मरने वाले तीन-चौथाई से अधिक मुसलमान थे; वहां भी अगर पुलिस ने गोली चलायी तो उनके शिकार भी मुख्य रूप से मुसलमान ही हुए। मुसलमानों मे पुलिस के प्रति अविश्वास इतना अधिक है कि अपने एक शोध के दौरान जब मैने दंगा पीड़ितों से एक बहुत साधारण सा प्रश्न पूछा कि क्या उस समय जब उनकी जान और माल खतरे में हो तो वे मदद के लिए पुलिस के पास जाना चाहेगे? दुनिया के किसी भी दूसरे मुल्क मे इस तरह का सवाल केवल पागल ही पूछ सकता है क्योंकि कहीं भी खतरे मे पड़ने पर नागरिक राज्य की तरफ ही स्वाभाविक रूप से देखेगे। राज्य का मुख्य कर्त्तव्य ही नागरिकों की जान-माल की हिफाजत करना है और राज्य का सबसे दृश्यमान अंग पुलिस इस भूमिका को निभाता है। पर आप इस पर क्या कहेगे कि मेरे प्रश्न या के उत्तर में अल्पसंख्यक दंगा पीड़ितों की बहुसंख्या ने कहा कि वे उस समय भी जब उनकी जान-माल खतरे में हो पुलिस के पास नहीं जाना चाहेगे।


उनका यह संकोच या अविश्वास किसी शून्य से नहीं उपजा है। इसके पीछे ठोस ऐतिहासिक कारण है। उन्होंने विभिन्न साम्प्रदायिक दंगों मे पुलिस के पक्षपातपूर्ण व्यवहार का दंश झेला है। मैंने खुद अपने शोध के दौरान और 35 वर्षों की भारतीय पुलिस सेवा की अवधि में ऐसे बहुत से मामले देखे है जब साम्प्रदायिक हिंसा की आग में लुटा-पिटा कोई मुसलमान पुलिस के पास पहुंचा तो बजाय कन्धों पर आश्वस्तिकारक थपथपाहट के उसने अपने गालों पर एक झन्नाटेदार झापड़ पाया। 1984 में सिखों के अनुभव भी कुछ-कुछ ऐसे ही थे जब दिल्ली जैसे शहर में पुलिस ने अधिकतर मामलों में मुसीबतजदा सिखों की मदद करने की जगह बलवाइयों का साथ दिया और कई मामलों में तो अगर पुलिस न पहुंची होती तो सिख अपनी जान बचाने में कामयाब हो गये होते।


मैंने जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है उनमें किसी में भी वर्तमान कानूनों की अपर्याप्तता अथवा अक्षमता जिम्मेदार नहीं है। सभी के पीछे एक ही कारण है और वह है हमारे मन में गहरे पैठी गहरी दुर्भावना जो हमे खाकी पहनने के बाद भी हिन्दू या मुसलमान बनाये रखती है। भारतीय राज्य के विभिन्न अवयव आज भी ‘हम और वे’ की मनोग्रंथि से पीड़ित है । मुसलमान उनके लिए अब भी वे है। पुलिस के अधिकतर लोग मानते हैं कि दंगा मुसलमान शुरू करते है और दंगे को रोकने के लिए उनके पास सबसे आसान नुस्खा है मुसलमानों के साथ सख्ती। इसीलिए उन दंगों में भी, जिनमें शुरुआत से हिन्दू हमलावर दिखते है, पुलिस की कार्यवाही मुसलमानों के विरुद्ध ही होती दिखती है। एक औसत पुलिसकर्मी के मन में यह बात इतने गहरे बैठी है कि आम तौर से मुसलमान हिंसक और क्रूर होता है कि उसके लिए यह मान पाना कि कोई दंगा हिन्दुओं ने शुरू किया है या किसी दंगे में हिन्दू हमलावर हो सकते है लगभग असम्भव है। उसके लिए औसत हिन्दू आमतौर से उदार या अहिंसक होता है।


मुझे याद है कि 1990 मे जब रामजन्मभूमि आन्दोलन अपने चरम पर था और मैं इलाहाबाद में नियुक्त था, मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि पुलिस थानों में साम्प्रदायिकता के मोर्चे पर सिर्फ मुसलमानों के विरुद्ध इंटेलिजेस उपलब्ध था। विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन, जो खुले आम हिंसा भड़का रहे थे, के बारे में न के बराबर सूचनाएं थीं। पुलिसकर्मियों को यह समझाने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी कि उन परिस्थितियों में हमारे रडार पर हिन्दू संगठन होने चाहिए न कि मुस्लिम। ऐसा नहीं कि भारतीय राज्य के अवयओं में सिर्फ पुलिस ही इस ग्रंथि से पीड़ित है। न्यायपालिका ने बहुत से मौकों पर निराश किया है। राजनीतिक नेतृत्व ने तो हमेशा उस इच्छाशक्ति का अभाव दिखाया है जो साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए जरूरी है। भारतीय समाज की सच्चाई जानने वाले सहमत होंगे कि दंगे भड़क तो सकते है पर लम्बे तभी खिंचते है जब राज्य चाहता है। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि यदि कोई दंगा 24 घण्टे से अधिक चल रहा है तो इस बात की जांच होनी चाहिए कि क्या राज्य का कोई अंग उसमें शरीक तो नहीं है।


इस सन्दर्भ में हमे साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ बनने वाले किसी भी कानून को परखना चाहिए जब इस बिल का पहला ड्राफ्ट विचार विमर्श के लिए वितरित हुआ था तब से आज तक कई बार इस पर विस्तार से चर्चा हुई है। इस पर हुए विमर्शों में राजनीतिक दलों, नागरिक अधिकार संगटनों तथा साम्प्रदायिकता से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं से जुड़े लोगों ने भाग लिया है। मुझे भी कई बार इनमें भाग लेने का मौका मिला है। हर जगह एक आम राय बनी कि इस नये कानून में पहले से ही बहुत अधिकार प्राप्त पुलिस को और अधिक अधिकार दिये जा रहे हैं। क्या पुलिस इन अधिकारों का प्रयोग अल्पसंख्यकों की हिफाजत के लिए करेगी या इनका प्रयोग भी उनके खिलाफ ही होगा? ये बढ़े हुए अधिकार भारतीय राज्य को फासिस्ट तो नही बनाएंगे? इन सारे सवालों पर हमे विस्तार से विचार करना होगा। इस नये कानून को लेकर एक बहुत अच्छी बात यह हुई है कि पहली बार किसी कानून में हिंसा के शिकार व्यक्तियों के लिए क्षतिपूर्ति की वैधानिक व्यवस्था की गयी है। साथ ही अपने कर्तव्यों में असफल सरकारी कर्मचारियों को उनका उत्तरदायित्व निर्धारित करते हुए दंडित करने के प्रावधान भी इसमें हैं। मेरे विचार से यह एक बहुत महत्वपूर्ण कदम है। अंत में फिर वही एक प्रश्न कि क्या महज कानून को अधिक सख्त बनाने से साम्प्रदायिकता की समस्या से निजात पायी जा सकती है? या इसके लिए भारतीय राज्य की संस्थाओं को अधिक संवेदनशील और वैज्ञानिक चेतना से लैस करना होगा? मुझे लगता है कि कानूनों से अधिक हमे अपने दिमागी जालों को साफ करना होगा।