सत्य की खोज में

Sunday, April 14, 2013

संजय दत्त के जीवन से सबक लेने की आवश्यकता





 देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट द्वारा फिल्म अभिनेता संजय दत्त को आर्म्स  एक्ट के अंतर्गत  दोषी मानते हुए 5 साल की सजा सुनाये जाने के बाद बालीवुड का नायक कानून की नजर में खलनायक बन गया।
 
सवाल यह है कि क्या वास्तव में संजय दत्त भीतर से खलनायक हैं। उनके गलत रास्ते पर चलने के कुछ और भी कारण हो सकते हैं जिनकी वजह से बार-बार वह राह भटक जाते हैं। कहीं कम या ज्यादा लाड़ प्यार या गलत सोहबत या फिर कुछ और कारणों ने तो उन्हें नहीं बिगाड़ दिया? आइये करते हैं इसकी पड़ताल और लेते हैं सबक -    
समाज में परिवारों की स्थितियों को देखते हुए उन्हें मोटे तौर पर तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। एक वे परिवार जिनके दम्पत्ति बहुत भले थे लेकिन उनकी सन्तान बुरी निकल गयी। दूसरे वे परिवार जिनके दम्पत्ति बुरे थे लेकिन उनकी सन्तान अच्छी निकल गयी और तीसरे वे परिवार जिनके जैसे दम्पत्ति रहे वैसी उनकी सन्तान निकली।

   तीसरे प्रकार के परिवारों को देखकर तो कोई आश्चर्य नहीं होता है और यह स्वाभाविक लगता है लेकिन पहले व दूसरे प्रकार के परिवारों को देखकर जरूर आश्चर्य होता है कि अच्छे दम्पत्ति की बुरी व बुरे दम्पत्ति की अच्छी सन्तान कैसे निकली। इसमें भी पहले प्रकार का परिवार ज्यादा कौतुहल पैदा करता है कि उसके बच्चे कैसे बुरे निकल गये जबकि प्रत्येक माता-पिता चाहते हैं कि उनकी सन्तान अच्छी निकले। 

    इस प्रकार के मामलों में दो धारणायें पायी जाती हैं। एक धारणा वह जो पूरी तरह कर्म में विश्वास रखती है। इसका मानना है कि व्यक्ति जैसा कर्म करेगा वैसा फल पायेगा। दूसरी धारणा उन लोगों की है जिनका विश्वास प्रारब्ध (पिछले जन्मों के कर्मों का शेषफल) में रहता है। इनका मानना है कि व्यक्ति कर्म तो करता है और करना भी चाहिए लेकिन जीवन में प्रारब्ध की भूमिका बड़ी होती है। इसके लिए एक कहावत भी है कि व्यक्ति को समय से पहले और किस्मत से ज्यादा कुछ नहीं मिलता।

    प्रारब्ध की धारणा को सिद्ध करना लगभग असम्भव है। यदि असम्भव न भी माने तो बहुत मुश्किल है, और गहराई में जाएँ  तो यह धारणा भी मूलतः कर्म पर ही आधारित है। इसलिए कर्म वाली पहली धारणा को केन्द्र में रखकर परिवारों का विश्लेषण करना उचित दिखाई देता है। 

    अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के माता-पिता चाहते हैं कि उनकी सन्तान अच्छी निकले। फिर क्या कारण रहता है कि बहुत से अच्छे दम्पत्ति की सन्तान बुरी निकल जाती है। बहुत से सफल-असफल दम्पत्तियों से बात-चीत और स्वयं के अनुभव व चिन्तन-मनन करने के बाद निष्कर्ष निकलता दिखाई देता है कि जिन दम्पत्तियों ने अपनी सन्तान की परवरिश प्रारम्भ से ही बड़ी सूझबूझ व सतर्कता से की, उनकी सन्तानें अच्छी निकलीं और जिन्होंने केवल अच्छी सन्तान की कामना तो की मगर उस दिशा में कोई गम्भीर प्रयास नहीं किये उनकी सन्तान वैसी निकली जैसी जाने-अनजाने उन्हें संगत यानि सोहबत मिली।

    जिन लोगों ने अपनी सन्तान को अच्छा बनाने के लिए गम्भीर प्रयास किये या नहीं किये उन सभी का मानना है कि बच्चों के बनने व बिगड़ने में उनकी संगत की भूमिका बहुत बड़ी रहती है। इसलिए बच्चे की संगत या सोहबत पर विशेष ध्यान दें। कहीं उनकी संगत में बुरे बच्चे, बुरे लोग या बुरा माहौल तो नहीं हैं। जिन लोगों ने अपने बच्चों को बुरी संगत से बचा लिया या वे बच्चे जाने-अनजाने स्वयं बच गये, वे ही बच्चे अच्छे बन पाते हैं। ऐसे बच्चों का जीवन सुखी रहता है और माता-पिता भी अपने आपको सौभाग्यशाली मानते हैं। जो लोग किसी भी कारण से इसमें चूक जाते हैं उनकी सन्तान प्रायः बुरी निकल जाती है। परिणाम स्वरूप बच्चों का जीवन तो अंत तक कष्टमय होता ही है मगर उनके माता-पिता भी कम दुखी नहीं रहते। कभी-कभी तो अपने
 बच्चों के बुरे कारनामों के कारण इतनी ज्यादा जलालत भोगनी पड़ती है कि उनके मुख से निकल जाता है - इससे तो अच्छा होता ये पैदा ही न होते। मगर वे यह नहीं सोचते कि इसके लिए जिम्मेदार ये बच्चे नहीं बल्कि वे स्वयं हैं। यदि उन्होंने अपने बच्चों की परवरिश पर ध्यान दिया होता तो संभवतः उन्हें आज ये बुरे दिन देखने को न मिलते। 


    संजय दत्त के जीवन को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। संजय दत्त एक अच्छे माता-पिता की बिगड़ी सन्तान सिद्ध हुए। उनके पिता सुनील दत्त व माता नरगिस दत्त थीं। दोनों ही न केवल फिल्मी पर्दे के बेहतरीन कलाकार थे बल्कि उनकी गिनती बहुत ही अच्छे इन्सानों और दम्पत्तियों में रही।    

भारत की सुपर स्टार जोड़ी सुनील दत्त और नरगिस के घर मुम्बई में 29 जुलाई 1959 को संजय दत्त का जन्म हुआ।    

वह छोटी उम्र में ही ऐसी कुछ हरकतें करने लगा था जिससे चिन्तित होकर उन्होंने संजय को इस माहौल से दूर हिमाचल प्रदेश स्थित एक मशहूर स्कूल में दाखिल करा दिया जिससे वह हास्टल में रहकर कुछ सुधर जाये और उसको ग्लैमर की दुनिया की बुराइयों से बचाया जा सके। वह उस समय मात्र पांच साल का था। 
बताया जाता है कि उनमें कुछ सुधार तो हुआ लेकिन बाद में ड्रग्स लेने की आदत पड़ गयी। वर्ष 1981 में उनकी पहली फिल्म राकी आयी और इसके रिलीज होने से 3 दिन पहले नरगिस की कैंसर की बीमारी से जूझते हुए मौत हो गयी। माँ के निधन के बाद वे नशे में और डूब गये। वर्ष 1982 में ड्रग्स रखने के आरोप में 5 माह के लिए पहली बार जेल भी गये। संजय दत्त की एक फिल्म ‘नाम‘ में एक डायलाग था, ‘गुनाह की दुनिया में दाखिल होना आसान है, लेकिन इससे निकलने का कोई आसान रास्ता नहीं है।‘ शायद वह भी धीरे-धीरे इस दुनिया के करीब आ रहे थे।

सुनील दत्त ने जब देखा कि उनके बेटे संजय की नशे की लत बढ़ती जा रही है तो उन्होंने संजय को अमेरिका के एक नशा मुक्ति केन्द्र में भेज दिया। कुछ साल वहाँ रहने के बाद नशे से मुक्ति मिल गयी और वे फिल्मी दुनिया में सक्रिय हो गये। उनकी काफी फिल्में आयीं। उनमें से कुछ हिट, कुछ फ्लाप रहीं। बेहतरीन एक्टिंग के लिए उन्हें समय-समय पर कई सम्मान मिले। 

1993 में उनकी फिल्म खलनायक आयी जो हिट रही। इसी दौरान उन्हें मुम्बई में बम विस्फोटों की साजिश के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 21 मार्च 2013 को 5 साल की सजा सुनाई। इससे फिल्मी पर्दे का खलनायक असल जिन्दगी में भी खलनायक बन गया। 

नशे के दुष्परिणाम कितने घातक होते हैं उससे ठोकर खाने के बाद संजय ने एक टीवी चैनल के एक कार्यक्रम में नसीहत दी - ‘‘मैं लोगों से यही कहना चाहूँगा कि वे बाइकिंग, गैजेट आदि का शौक भले ही पालें, लेकिन नशे का शौक न पालें‘‘। 

    मेरा मानना है कि सुनील दत्त की निजी व घरेलू परिस्थितियां चाहे जो भी रही हों उन्हें संजय को हास्टल में नहीं भेजना चाहिए था बल्कि उसको अपनी आँखों के सामने रखकर उसकी एक-एक गतिविधि पर पैनी नजर रखते हुए उसे अच्छी संगत, अच्छा माहौल उपलब्ध कराना चाहिए था। उस समय पिता-पुत्र में दोस्ती होनी चाहिए थी। यदि उन्हें उस समय संजय को हास्टल में रखकर ही पढ़ाई कराने का विकल्प दिख रहा था तो भी संजय पर बहुत सतर्कता की आवश्यकता थी। यदि उस समय यह सतर्कता बरती गयी होती तो सुनील दत्त को बाद में अपने बेटे संजय की करतूतों के कारण जीवन में जो जलालत झेलनी पड़ी थी, समझौते करने पड़े थे वे सब न करने पड़ते। जिस उम्र में उन्हें बेटे का सुख भोगना था उस उम्र में उन्हें बेटे के कारण अनेक दुःख झेलने पड़े। वे इन कष्टों से बच सकते थे यदि उन्होंने उस समय अपने निजी भविष्य के साथ बच्चे के भविष्य को भी संवारने में लगाया होता। 

 मेरे दिमाग में इस समय कई ऐसे परिवारों के दृश्य सामने आ रहे हैं जिनकी स्थिति सुनील दत्त जैसी या इससे मिलती जुलती रही। लेकिन मैं इस समय यहाँ एक ऐसा उदाहरण दे रहा हूँ जो सिद्ध करता है कि बच्चों का भविष्य अच्छा बनाने के लिए उनके माता-पिता कितने सतर्क थे और उन्होंने अपने कैरियर के बजाए बच्चे के भविष्य की चिन्ता ज्यादा की। वे ऐसे समझदार माता-पिता सिद्ध हुए जो अन्य लोगों के लिए भी प्रेरणादायक बन गये। 








 वर्ष 2009 बैच की आई.ए.एस. महिला टापर रहीं - इवा सहाय। अपने ब्लाग पर लिखने के लिए मैंने उस समय इवा सहाय एवं उनके माता-पिता से उनके घर पर जाकर विस्तार में बातचीत की। उस बातचीत में पता चला कि इवा सहाय के माता-पिता दोनों बिहार राज्य के दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों में शिक्षक थे। पिता विजय शंकर सहाय ने इवा के जन्म के समय ही फैसला कर लिया था कि उसे आई.ए.एस. बनाना है। इसके लिए जरूरत पड़ने पर पिता ने अपना शिक्षण स्थान बदला। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आ गये और बेटी के साथ अकेले रहे। उस समय इवा कक्षा चार में पढ़ती थीं। बाद में माँ डा0 वत्सला सहाय ने अपना शिक्षण कार्य ही छोड़ दिया और वह भी इलाहाबाद आ गयीं। दोनों ने मिलकर इवा की इस प्रकार परवरिश की कि वह प्रथम प्रयास में ही आई.ए.एस. की परीक्षा में सफल रहीं और न केवल सफल रहीं बल्कि देशभर में तीसरा तथा महिलाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इवा के माता-पिता ने केवल अपनी बेटी की पढ़ाई पर ही ध्यान नहीं दिया बल्कि उनके अन्दर देशभक्ति एवं नैतिकता का जज्बा कूट-कूट कर भरा। इसका नतीजा है कि आज वह बच्चा और उसके माता-पिता भी सम्मान के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। बेटी की सफलता से माता-पिता का सिर और भी ज्यादा ऊँचा हो गया।

    देखने में आ रहा है कि समाज में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो अपने बच्चों की परवरिश वैसी करते हैं जैसी करनी चाहिए। ऐसे लोग ज्यादा हैं जो बच्चों को अपनी सामर्थ्य  से भी ज्यादा सुविधा देने की कोशिश में दिनरात लगे रहते हैं। इसके फलस्वरूप वह अपने में ही सिमटकर रह जाते हैं। न उन पर पैनी नजर रखते हैं और न ही उनका मार्ग दर्शन करते हैं। ऐसी स्थिती में बच्चे प्रायः भटक जाते हैं। बच्चों को कुछ समझ ही नहीं आता कि उन्हें क्या करना चाहिए। कुछ बुरी संगत में फंसकर अपना जीवन बर्बाद कर डालते हैं। कुछ ही ऐसे निकल पाते हैं जिन्हें परिवार से तो मार्गदर्शन नहीं मिलता लेकिन जाने-अनजाने में उन्हें ऐसी संगत मिल जाती है जिससे उनका भविष्य बिगड़ने से बचता ही नहीं बल्कि संवर जाता है। जिन लोगों के बच्चों का भविष्य अच्छा नहीं बन पाता वे इसके लिए अपनी गलती नहीं मानते। उन्हें महसूस नहीं होता कि उन्होंने बच्चों की प्रभावशाली ढंग से निगरानी नहीं की बल्कि प्रायः उनका जुमला होता है - ‘‘हमने बच्चों को अच्छा भोजन दिया, अच्छे कपड़े पहनायें, अच्छे स्कूल में दाखिला कराया, अच्छा ट्यूटर लगाया यानि भरपूर सुविधाएं दीं, इतने पर भी वे न पढ़ पाये तो इसमें हमारी गलती क्या है। इनकी किस्मत ही ऐसी होगी।‘‘ वे यह नहीं सोचते कि बच्चों को केवल सुविधाएं ही नहीं चाहिए बल्कि अभिभावकों का  आत्मीय भरा समय भी चाहिए। उनकी भावनाओं, इच्छाओं, आवश्यकताओं को समझने की जरूरत थी।  

    इससे एक बड़ा सबक लेने की आवश्यकता है विशेषकर नई पीढ़ी को जो माता-पिता बनने की कतार में हैं या हाल ही में बने हैं कि वे अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दें। माता-पिता दोनों को या किसी एक को बच्चों के प्रति अति सतर्क रहने की जरूरत रहती है। उन्हें केवल सुविधाएं न दें बल्कि समय दें। प्रायः लोग जो समय उनके साथ बिताते भी हैं, उस दौरान केवल उनकी इच्छाओं और मांगों को पूरा करने में ही लगे रहते हैं। होता यह है कि बड़े होने पर उनकी यह आदत बनी रहती है और विकराल समस्या बन जाती है फिर वे कोई भी काम करने से पहले उसके दुष्परिणामों के बारे में नहीं सोचते। इसलिए उनके दोस्त बनें लेकिन उन पर पैनी नजर रखें। 

 बच्चे की परवरिश करते समय माता-पिता का यह प्रयास होना चाहिए कि वे उस पर हर समय अंकुश लगाने की बजाए बच्चे को ऐसे संस्कार दें जिससे बच्चा विवकेशील बन जाये, अच्छे-बुरे की पहचान करके बुराइयों से स्वयं दूर रह सके अर्थात् सन्तान की प्रकृति को उत्तम बनाने पर जोर दिया जाये। यदि इसमें माता-पिता सफल हो गये तो फिर सन्तान पर हर समय नजर रखने की आवश्यकता भी नहीं रहेगी और जो सम्भव भी नहीं है। इस सम्बन्ध में रहीम का एक दोहा बहुत प्रासंगिक है -
                             जो रहीम उत्तम प्रकृति, का कर सके कुसंग।
                             चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
    अर्थात् जो उत्तम प्रकृति का है उसका कुसंग (बुरी संगत) भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार चन्दन पर विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता जबकि उस पर भुजंग (जहरीले सर्प) लिपटे रहते हैं।

    सन्तान को उत्तम प्रकृति का बनाने के लिए गर्भ से ही प्रयासरत रहना चाहिए। गर्भवती स्त्री के सामने इस प्रकार का कोई माहौल नहीं रहना चाहिए जिससे उस स्त्री के मन पर बुरा प्रभाव पड़े क्योंकि उसका प्रभाव बच्चे के मन पर भी पड़ता है। जब बच्चे का जन्म हो जाये तो उसके साथ भावनात्मक रूप से जुडे़ं यानि अधिक से अधिक समय उसे अपने पास रखें, उसे प्यार करें, उसके साथ बात करने का और उसकी समस्याओं को समझने व उसका समाधान करने का प्रयास करें। 

जब वह बोलना शुरू कर दे तो उसके साथ संवाद स्थापित करें ताकि बच्चा अपनी जरूरतें खुलकर बता सके और आप अपनी सामर्थ्य एवं सीमाएं बता सकें। संवाद के बिना दोनों एक दूसरे की स्थितियों को नहीं समझ पाएंगे और इससे अलगाव शुरू हो जाता है। यहाँ अपने को भी व्यवस्थित रखने की आवश्यकता है। बच्चे को कोई काम करने से मना करने से पहले स्वयं पर ध्यान दें। यदि आप बच्चे को मना करते हैं और खुद वही काम करते हैं तो आपकी मनाही का कोई मतलब नहीं रहेगा क्योंकि बच्चे तो बड़ों को देखकर ही सीखते हैं। 

    इसी दौरान उन्हें कानून का और समाज का सम्मान करना सिखायें। उन्हें नैतिकता की कहानियां सुनाएं, उन्हें महापुरूषों की जीवनियाँ पढ़ने का चस्का लगाएं। आपने स्वयं जो गलतियां की और उनके क्या दुष्परिणाम हुये उनसे बच्चे को अवगत करायें। उन्हें मेहनत करके उन्नति करने के लिए प्रेरित करें न कि शार्टकट से आगे बढ़ने की। उनका चहुंमुखी विकास करने का प्रयास करें। जिससे वे जीवन की चुनौतियों का मुकाबला करते हुए सम्मान से जी सकें। आज इन्टरनेट का समय है। यह इन्टरनेट बच्चों के लिए जरूरी व उपयोगी है तो यह उनका शत्रु भी सिद्ध होता है। इन्टरनेट की बुराइयों से भी उसे अवगत कराना होगा। 

    इस मामले में यह भी माना जाता है कि पांच साल की उम्र तक बच्चे को लाड़-प्यार से समझाना चाहिए। पांच से पन्द्रह साल की आयु तक की सन्तान से आवश्यकता पड़ने पर सख्ती करनी चाहिए अर्थात जरूरत पड़ने पर सख्ती से समझाना चाहिए। पन्द्रह से इक्कीस वर्ष की आयु के बीच की सन्तान को समझाने का प्रयास करना चाहिए और इसके बाद उससे मित्रवत् व्यवहार करते हुए अपनी बात समझानी चाहिए। यदि वे गंभीरता से प्रयास करेंगे तो अवश्य ही सफल होंगे। समाज में इस प्रकार के प्रयास की आज बहुत आवश्यकता है।