सत्य की खोज में

Wednesday, April 25, 2012

प्रेम और नफरत भी पैदा करते हैं उपहार


शुभ अवसरों पर उपहार ले जाने की हमारी पुरानी परम्परा है जिसे हमने आज भी जीवित रखा हुआ है। परन्तु अब हमारी सोच बदल गयी है। ये उपहार अब हमारी सोच के अनुसार प्रेम और नफरत भी पैदा कर रहे हैं।

गत दिवस मेरे घर पर पोते के जन्म के उपलक्ष्य में प्रीतिभोज का आयोजन था। इसमें शामिल होने वाले लोगों ने नवजात शिशु को उपहार दिये। इन उपहारों में अधिकांशतः विभिन्न प्रकार के खिलौने व रंग-बिरंगे कपड़े थे। कुछ लोगों ने बच्चे के उपयोग के लिए साबुन, तेल, पाउडर आदि के पैकेट दिये तो कुछ ने दूध पीने के लिये थर्मस इत्यादि, लिफाफों में बंद नकदी और चांदी के जेवरात भी मिले।

अगले दिन पूरा परिवार एकसाथ बैठा और उपहारों के सभी पैकेट्‌स व लिफाफे खोले गये। प्रत्येक उपहार पर चर्चा हुई। उपहारों की कीमत रूपयों में आंकी गयी। यह देखा गया कि उपहार जिसने दिया है वह परिवार के किस सदस्य का निमंत्रित था और उसके उससे कितने गहरे सम्बन्ध हैं। यह भी देखा गया कि उपहार देने वाले की आर्थिक स्थिति कैसी है और हमने उसके यहाँ किसी शुभ अवसर पर कितनी कीमत का उपहार दिया था।
अन्त में उपहार देने वालों को तीन श्रेणियों में बांटा गया। एक श्रेणी वह रही जिसमें जिससे जितने बड़े उपहार की उम्मीद थी उससे लगभग उतनी कीमत का उपहार मिला अर्थात उम्मीद पूरी हुई। दूसरी श्रेणी वह रखी गयी जिसमें जिससे जितनी उम्मीद नहीं थी, उससे कहीं ज्यादा कीमत वाला उपहार मिला यानि के उम्मीद से ज्यादा मिला। ऐसे लोगों के प्रति अपनापन बढ़ा, प्रेम पैदा हुआ। तीसरी श्रेणी में वह लोग रहे जिनसे जितनी उम्मीद थी उनसे बहुत कम कीमत वाला उपहार मिला अर्थात उम्मीद से कम मिला। ऐसे लोगों के प्रति अपनत्व में गिरावट आयी। स्थिति तो यह भी रही कि एक दो व्यक्ति के प्रति नफरत सी देखने को मिली।
यह सब देखकर मुझे बड़ा आश्यर्य हुआ। इसकी चर्चा मैने अपने एक मित्र से की तो उसने कहा - ''आपके घर में जो उपहारों पर चर्चा हुई इसमें आश्यर्य की कोई बात नहीं है, प्रायः घरों में ऐसा होता है।'' फिर भी मैने परिवार के उन लोगों को, जो उपहार देने वालों को आर्थिक कसौटी पर तोल रहे थे, समझाया कि उपहारों को इस प्रकार नहीं आंकना चाहिए। उपहार में अपनापन होता है इसको मुद्रा की तराजू में नहीं तोलना चाहिए। उपहार देने वाले की भावना देखनी चाहिए उसकी कीमत नहीं। दूसरी बात सम्बन्ध बनने में बहुत समय लगता है। सम्बन्ध समाप्त तो एक सेकेण्ड में हो सकता है। सम्बन्ध तभी टिकाऊ बनते हैं जब उन्हें धन से न आंका जाय। जहाँ जीवन में सम्बन्धों को आर्थिक आधार पर देखा जाता है वहाँ सम्बन्ध ज्यादा समय तक नहीं चलते। कहा भी जाता है कि वह व्यक्ति गरीब नहीं होता जिसके पास धन नहीं है बल्कि वह व्यक्ति गरीब होता है जिसके पास दोस्ती, रिश्ता  और सम्बन्ध नहीं है। अतः सम्बन्धों को हमेशा  न केवल बचाकर रखना चाहिए बल्कि इनमें प्रगाढ ता लाने का प्रयास करते रहना चाहिए। कम कीमत के जिन उपहार देने वालों के प्रति नफरत पैदा हो रही थी उन्हीं के प्रति प्रेम भी पैदा हो सकता था यदि उन्हें मानवीय पहलू से देखा जाता।