सत्य की खोज में

Wednesday, June 18, 2014

शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट से जुड़ीं दस वर्षों की कुछ यादें- कुछ बातें - अनन्त अन्वेषी

                              महोत्सव में कवि , शायर ,विद्यार्थी एवं संस्था के पदाधिकारी
देखते-देखते दस साल गुजर गए। समय मानों पंख लगाकर उड़ रहा हो।      

इलाहाबाद स्थित शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट आॅफ इन्जीनियरिंग एण्ड टेक्नोलाॅजी (एस0आई0ई0टी0) ने अपने दस वर्ष पूरे कर लिए। इस अवसर पर 12 से 15 अप्रैल-2014 तक चार दिवसीय महोत्सव यूरेका-2014 धूम-धाम से मनाया गया।   

महोत्सव के अन्तिम दिन एस0 आई0 ई0 टी0 के उन नौ फैकल्टी/स्टाॅफ मेम्बर्स को सम्मानित भी किया गया जो इन्स्टीट्यूट के स्थापना वर्ष 2004 से निरन्तर सेवारत हैं। उन नौं में से एक मैं भी रहा। बाकी आठ में सर्वश्री डी0पी0 अग्निहोत्री, निर्भय माथुर, डी0के0 त्रिपाठी, प्रशान्त अवस्थी, सी0एम0 शुक्ला, संजय शुक्ला, पी0सी0 पाण्डे व दीपक पाण्डे हैं।

                  कुछ साथियों ने मुझसे आग्रह किया कि मैं इन दस वर्षों के अपने संस्मरण लिखूं।
                  दस वषों की प्रमुख घटनाओं को याद करके लिपिबद्ध करना बहुत कठिन काम है। इसमें एक बड़ी परेशानी तो यही है कि कुछ प्रमुख घटनाएँ याद आयेंगी तो कुछ छूट जायेंगी। चाहे जितना भी लगे कि समय कितनी जल्दी बीत जाता है, आखिर है तो दस वर्ष। जो याद आयेंगी उनमें भी समस्या यह रहेगी कि किसको और कितना लिया जाये। जो याद नहीं आयेंगी उनका बाद में पछतावा होगा। खैर .......................

  जो घटनायें याद आ रही हैं उनमें कुछ  खठ्ठी हैं तो कुछ मीठी, कुछ रोचक हैं  तो कुछ प्रेरणादायक।  उन खट्टी मीठी यादों को मैं आपके सामने प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूँ -

जब इस इन्स्टीट्यूट की आल इन्डिया काउन्सिल आॅफ टेक्नीकल एजूकेशन (ए0आई0.सी0टी0ई0) नई दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय (यू0पी0टी0यू0) लखनऊ से मान्यता की प्रक्रिया चल रही थी तभी संयोग से मेरी इस संस्था में नियुक्ति हो गयी। यह माह अप्रेल-2004 का समय था।

   जुलाई-2004 में  बी0टेक0 के एडमिशन का कार्य शुरू हुआ। उस समय तक इस संस्था में मैं एक मात्र कर्मचारी था। मुझे उस समय आफिस सुपरिन्टेडेंट का पद दिया गया। एडमिशन तथा कार्यालय के अन्य कार्य करने के लिए मुझे संस्था के पुराने गेट के पास निर्मित तीन गेस्ट हाउसों में से एक दे दिया गया। इस गेस्ट हाउस के बाहर रिसेप्शन आफिस लिखा गया। यह गेस्ट हाउस मेरा आफिस कम रेजीडेंस बना। उस दौरान मैं यहाँ चैबीस घंटे का कर्मचारी था।

   वर्ष-2004 में एडमिशन लेने के लिए जब कोई छात्र/छात्रा और उनके अभिभावक इन्स्टीट्यूट में आते तो मैं शुरू में अपने इन्स्टीट्यूट की विशेषताओं को उन्हें बताता। पहले साल एडमिशन लेने वाले को कनविंस करना बड़ा मुश्किल था। उस समय बताने के लिए हमारे पास न तो यह होता था कि यहाँ की पढ़ाई बहुत अच्छी है या यहाँ का अनुशासन बहुत अच्छा है अथवा यहाँ का परीक्षाफल बहुत अच्छा रहता है या यहाँ का प्लेसमेंट  बहुत अच्छा है .....................इत्यादि। भव्य बिल्डिंग भी नहीं थी जो एडमिशन लेने वाले को आकर्षित करती। उस समय इन्स्टीट्यूट से झलवा चैराहे तक पक्की सड़क भी नहीं थी, खड़ंजा था। उसमें भी जगह-जगह गड्ढे तथा सूनसान इलाका। इसके बावजूद संस्था के सचिव डा0 कौशल कुमार तिवारी ने आँख बन्द करके सीटें नहीं भरीं अर्थात क्वालिटी से समझौता नहीं किया।

संस्था की विशेषताएं बताने के बाद मैं विद्यार्थी संबंधी आवश्यक जानकारी एक रजिस्टर में लिखता। इसके बाद उक्त छात्र/छात्रा को संस्था परिसर में ही कुछ दूरी पर अपने आफिस में बैठे संस्था के सचिव डा0 के0के0 तिवारी के पास भेज देता। वह छात्र/छात्रा का इन्टरव्यू लेकर परखने की कोशिश करते कि यह अभ्यर्थी इन्जीनियरिंग की पढ़ाई कर लेगा या नहीं। उनकी नजर में खरा उतरने पर मैं उस छात्र/छात्रा के एडमिशन की प्रक्रिया पूरी करता अर्थात उससे एडमिशन फार्म भरवाता, उसके सारे डाक्यूमेंट्स लेकर उन्हें सुरक्षित रखता व फीस लेकर रसीद काट देता। कार्यालय के अन्य कार्यों के अलावा यह पूरा कार्य मैं अकेला करता था। उस समय पूरा कार्य हाथों से होता था अर्थात आज की तरह न कम्प्यूटर का प्रयोग होता और न ही फीस की राशि गिनने के लिए कोई मशीन होती थी।

 यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जुलाई-अगस्त के महीने में जब एडमिशन का कार्य चल रहा था, भरपूर गर्मी  थी और बिजली 24 घंटे में मुश्किल से 12 घंटे आती थी। जेनरेटर की व्यवस्था भी नहीं थी। गर्मी से राहत पाने के लिए अखबार को मोड़कर उससे हवा लेता था।

 शुरूआती दौर की ऐसी व्यवस्था का दृश्य इसलिये दिखाया गया है जिससे वे लोग जो इस संस्था में साल-दो साल पहले आये हैं, जान सकें कि जिस हाई-टेक से लैस भव्य संस्था को आज देख रहे हैं, उसकी प्रारम्भ में स्थिति कैसी थी। उन्हें पता चल सके कि यह किसी पूंजीपति की संस्था नहीं बल्कि इसके मुख्य कर्ताधर्ता डा0 के0के0 तिवारी ने बड़ी सूझ-बूझ व कड़ी मेहनत से इसे यह रूप दिया है। संस्था में पढ़ने वाले हर छात्र/छात्रा को संस्था का आरम्भिक इतिहास मालूम होना चाहिए।

बाद के महीनों व सालों में जैसे-जैसे काम बढ़ता गया वैसे-वैसे सहयोगी साथी मिलते गये। उनमें  महेन्द्र भूषण ,  पी0सी0 पाण्डे, मुकेश श्रीवास्तव, बृजेश शर्मा, एस  के अग्रवाल , विजय मिश्रा, सुबोध श्रीवास्तव, कैलाश नाथ प्रजापति, शैलेन्द्र श्रीवास्तव, सुनील कुमार गुप्ता, साक्षी अग्रवाल, अशोक कुमार मिश्रा व राजेन्द्र कुमार आदि हैं जिनसे बड़ी राहत मिली। तीन साल बाद चैबीस घंटे की नौकरी आठ घंटे में तब्दील हो गयी।
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यूँ तो किसी भी संस्था की सफलता का श्रेय हर उस व्यक्ति को जाता है जो उससे जुड़ा हुआ है लेकिन कुछ लोग होते हैं जिनका योगदान उल्लेखनीय रहता है।

               इस मामले में कुछ लोग कहते हैं कि इस संस्था को स्थापित करने एवं इसे इस ऊँचाई तक पहुंचाने में संस्था के अध्यक्ष डा0 डी0एन0 तिवारी का बहुत बड़ा योगदान है। रिटायर्ड आई0एफ0एस0 अधिकारी डा0 डी0एन0 तिवारी भारत सरकार में प्लानिंग कमीशन के मेम्बर रह चुके हैं और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति हैं। उनका शिक्षा, स्वास्थ्य तथा पर्यावरण के क्षेत्र में विशेष योगदान है। उन्हें कई विश्वविद्यालयों ने मानद उपाधि से विभूषित किया है। उन्होंने काफी पुस्तकें भी लिखी हैं।

    गौरतलब है कि ‘उत्थान’ नाम से रजिस्टर्ड सोसायटी इस संस्था का संचालन करती है। डा0 डी0एन0 तिवारी इस सोसाइटी के अध्यक्ष हैं तथा डा0 के0के0 तिवारी सचिव। पर्यावरण के क्षेत्र में विशेष काम करने के लिए ‘उत्थान’ को  वर्ष 2008 में एक मिलियन (पांच करोड़ रूपये) का अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार - ‘एल्कान’ मिल चुका है। इसके अलावा इसे सीताराम जिन्दल सहित कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।

                                             एलकॉन पुरस्कार प्राप्त करते हुए डा डी एन तिवारी  

 जिन लोगों ने डा0 के0के0 तिवारी की माता श्रीमती सीता देवी एवं पिता स्व0 शम्भूनाथ तिवारी को देखा है उनका कहना है कि इस संस्था की सफलता के पीछे डा0 तिवारी के माता-पिता का पुण्य प्रताप है। माता सीता देवी बहुत धर्मपारायण और दानवीर हैं । पिता बहुत ही सज्जन और परोपकारी थे।

 कुछ लोगों का मानना है कि इस संस्था को समय-समय पर बड़े समर्पित किस्म के कुछ शिक्षक/कर्मचारी मिले जिसके कारण यह संस्था प्रगति के पथ पर अग्रसर है। जो लोग डा0 के0के0 तिवारी का संस्था के प्रति पूर्ण समर्पण तथा उनकी सूझबूझ व अथक मेहनत को देखते हैं वे इसका श्रेय तिवारी सर को देते हैं।
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    प्रथम वर्ष के प्रथम बैच में बी0टेक का कोर्स चार ब्रांचों में शुरू हुआ। चारों ब्रांचों की इनटेक 60*4=240 थी।  पहले वर्ष इनमें से केवल 168 सीटें ही भर पायीं। इस समय बी0टेक0 में छः ब्रांचे है। इनकी कुल इनटेक  840 है। इसके दौरान एम0बी0ए0 तथा एम0टेक0 भी शुरू हो गया। इसके अलावा दो इन्स्टीट्यूट और खुल गये - शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट आॅफ फार्मेसी एवं शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट आॅफ मैनेजमेंट। इनमें बी0फार्म, एम0फार्म0 तथा एम0बी0ए0 के कोर्स चल रहे हैं। इस समय अध्ययनरत् कुल छात्र-छत्राओं की संख्या 2,500 है। सभी संस्थाओं में चैबीस घंटे बिजली उपलब्ध है। बिजली गुल होने पर तुरन्त जेनेरेटर चालू हो जाता है। सभी संस्थाएं हाई टेकनोलाॅजी से लैस हैं और आई0एस0ओ0-2001:2008 सर्टिफाइड हैं।
                     इनके अलावा आई0टी0आई0 खुल गया है। अगले साल से बी0टी0सी0 शुरू हो रहा है। लाॅ संस्था, मेडीकल संस्था व यूनिवर्सिटी खोलने की प्रक्रिया चल रही है।
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इस संस्था में बी0टेक0 के प्रथम वर्ष के प्रथम बैच का उद्घाटन शिक्षक दिवस पर - 5 सितम्बर 2004 को हुआ था। उद्घाटन के अवसर पर तिवारी सर ने अपने सम्बोधन में कहा - ‘‘जिन छात्र-छात्राओं ने इस संस्था में एडमिशन लिया है, आज से मैं उन्हें गोद लेता हूँ। आज से आप सभी मेरे बच्चों के समान हैं। आप का सुख- दुःख मेरा सुख-दुःख रहेगा।  कोई भी परेशानी हो आप सीधे मुझे बता सकते हैं। मैं उसे यथा सम्भव दूर करूँगा।’’
              तिवारी सर का यह सम्बोधन बड़ा भावुक था। मेरा मानना है कि जो उन्होंने विद्यार्थियों से कहा उसे वे हमेशा पूरा करने की कोशिश करते रहे हैं। इसकी झलक आगे के उदाहरणों में देखी जा सकती है।

 प्रथम वर्ष जब प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा शुरू हुई तो प्रतिदिन सुबह पाँच बजे मेरे पास तिवारी सर का फोन आ जाता था, यह जानने के लिए कि सभी बसें विद्यार्थियों को उनके घरों से परीक्षा केन्द्र तक पहुँचाने के लिए संस्था परिसर से रवाना र्हुइं या नहीं ? कोई परेशानी तो नहीं?
              इसके एक घंटे बाद वे स्वयं हास्टल में आ जाते और जब अपनी आंखों से देख लेते कि हास्टल में रहने वालों को समय से ठीक ढंग से नाश्ता मिल गया है और परीक्षा केन्द्र पर जाने के लिए सभी विद्यार्थी बसों में बैठकर चले गये हैं, तब संस्था आ जाते। उन्होंने हास्टल की मैस में एक व्यवस्था रखने के लिए सख्त निर्देश दे रखे थे कि परीक्षा के दौरान सभी विद्यार्थियों को नाश्ते में पूरी-सब्जी के साथ मीठी दही भी दी जाये। उनका मानना है कि यह शुभ भी होता है और इससे दिमाग भी तरोताजा रहता है।
           प्रथम बैच के प्रत्येक विद्यार्थी की पूरी जानकारी उनकी जुबान पर रहती थी। वह विद्यार्थी कहाँ का रहने वाला है, उसके पिता क्या करते हैं , वह कितने विषयों में फेल है, उसके किस पेपर में कितने नंबर आये थे इत्यादि। इसलिए पढ़ाई में कमजोर विद्यार्थी उनके सामने पड़ने से बचते थे। अब तो विद्यार्थिर्यो की संख्या बहुत हो गयी है। इसलिए वे स्वयं भी ऐसा प्रयास नहीं करते हैं। अब उनकी प्राथमिकताएं भी बदल गयी हैं। अब वे संस्था के बड़े प्रोजेक्ट्स में व्यस्त रहते हैं। आखिर अब उन्हें आर0के0 सिंह के रूप में एक भरोसेमंद हैन्ड भी तो मिल गया है।
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          तिवारी सर स्वभाव से मितव्ययी हैं। इसलिए जो खर्चा करते हैं बहुत सोच-समझकर करते हैं। उन्हें एक पैसे की भी बर्बादी बर्दाश्त नहीं होती। लेकिन उन्हें यह अहसास हो जाये कि अमुक खर्चा विद्यार्थियों के हित में जरूरी है तब वे खुले दिल से खर्चा करते हैं। यही कारण है कि यहाँ की लैब्स सभी उपकरणों से सुसज्जित हैं। लाइबे्ररीं को बहुत बड़ा बनाया गया है। पूरी संस्था हाई-टेक से लैस है।
                  वर्ष 2008 में डीन (ट्रेनिंग एण्ड प्लेसमेंट) जे0पी0 मिश्रा ने उनके सामने टाइम्स आॅफ इण्डिया न्यूज पेपर  की ओर से आयोजित कराये जाने वाले जाॅब-फेस्ट का प्रस्ताव रखा। इसमें लगभग दस लाख रूपये का खर्चा होना था। शुरूआती दौर में यह खर्चा बहुत बड़ा था लेकिन उन्होंने उसके महत्व को समझा और तुरंत स्वीकृति दे दी। इलाहाबाद एवं आस-पास के इन्जीनियरिंग संस्थाओें के इतिहास में यह पहला जाॅब-फेयर था। इसकी खूब प्रशंसा हुई और विद्यार्थियों को यथा सम्भव नौकरियां मिलीं। इस बड़े आयोजन के लिए न अपने संस्था के विद्यार्थियों से और न बाहर के विद्यार्थियों से किसी प्रकार का शुल्क लिया गया।
                और भी बहुत से उदाहरण हैं जब वे बड़े से बड़ा खर्चा करने में पीछे नहीं हटे।    
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    वर्ष 2006 में मैंने विद्यार्थियों एवं उनके अभिभावकों से फीडबैक लेने का अभियान चलाया था। इसके लिये प्रतिदिन शाम को  छुट्टी   के बाद मैं विद्यार्थियों के घर पर जाता था। अगले दिन तिवारी सर को बताता था कि क्या फीड बैक हैं। उससे बहुत सी कमियां सामने आयीं और बहुत से अच्छे सुझाव भी मिले। एक-दो दिन बाद ही तिवारी सर में फीडबैक जानने की उत्सुकता इतनी हो गयी थी कि सुबह संस्था आते ही वे मुझे अपने कार्यालय में बुलाकर पिछले दिन की सर्वे रिपोर्ट लेते थे। इसमें अच्छी बात यह रही कि तिवारी सर सामने आयी कमियों को दूर करने के लिए तुरंत सक्रिय हो जाते थे।
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     तिवारी सर में एक विशेष बात यह है कि वे प्रतिदिन रात में लगभग दो बजे जग जाते हैं । उस समय वे लगभग दो घंटे चिन्तन-मनन करते हैं। बीते दिन में क्या गलत हुआ, क्या सही, किस पर ध्यान देने की आवश्यकता है और भविष्य में क्या करना है इत्यादि पर खास चिन्तन मनन करते हंै। इस समय लगभग 9 वर्ष पुरानी एक घटना याद आ रही है जो विद्यार्थी एवं उसके परिवार के प्रति तिवारी सर की अति संवेदनशीलता का परिचय देती है।
                     हुआ यह कि एक मुस्लिम छात्रा ने काउसलिंग से इस संस्था में बी0टेक0 की अपनी सीट आवंटित करायी। फीस जमा कराने उसके अभिभावक संस्था आये। उस समय उनके पास पूरी फीस नहीं थीं । वह चाहते थे कि इसे जमा करके ही एडमिशन हो जाये। मैंने इसकी स्वीकृति तिवारी सर से मांगी तो उन्होंने मना कर दिया। इसके कुछ दिन बाद वह अभिभावक पूरी फीस लेकर आये। मैंने फीस जमा करके रसीद काट दी। किसी प्रसंग में मैंने उनसे पूछा कि पूरी फीस का इंतजाम किस प्रकार हुआ तो उन्होंने बताया कि ब्याज पर रकम जुटायी है। उनके जाने के बाद मैंने यह बात  तिवारी सर को बतायी। उस समय तो उन्होंने कुछ नहीं कहा। अगले दिन तिवारी सर ने मुझ से कहा कि अमुक अभिभावक को बुलाकर उसकी उतनी रकम लौटा दो जिसे वह ब्याज पर लेकर आये थे। साथ में वह ब्याज भी जिसका उन्होंने भुगतान कर दिया है। अभिभावक को बुुलाकर वह राशि लौटा दी गयी। मैंने  तिवारी सर से पूछा कि ऐसा क्यों किया? इस पर  तिवारी सर ने कहा ‘‘ आप जानते ही हैं कि मैं प्रतिदिन रात में दो घंटे चिन्तन-मनन करता हूँ। कल रात में यह बात मन में आयी कि यह उस अभिभावक पर अत्याचार हुआ है। इसलिए मन ने ऐसा करने के लिए कहा।’’
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     तिवारी सर की इस उम्र में भी सीखने की आदत है। किसी अखबार, मैग्जीन, पुस्तक, टेलीविजन या अन्य कहीं पर कोई अच्छा विचार मिलता है तो उस पर खुद मनन करते हैं और चाहते हैं कि उनके स्टाफ मेम्बर्स व विद्यार्थी भी उस पर मनन करें और अपने जीवन में उस पर अमल करें।  तिवारी सर को जब कहीं कोई अच्छा विचार मिलता है तो वे उसे मुझे नोट कराते हैं और अपेक्षा करते हंै कि मैं उसे बोर्ड पर लिखवाकर संस्था के मुख्य स्थानों पर लगवा दूं।
उनकी चुनिंदा कोटेशनों में से  दो ये हैं -
                                          1-      सफलता के लिए साधन से ज्यादा संकल्प की आवश्यकता होती है 
                           2-     ‘कत्र्तव्यों पर आरूढ़ रहो, अधिकार स्वयं मिल जायेंगे।
                                         मूलों को सीचोंगे जल से, तो फूल स्वयं खिल जायेंगे।।’’
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    विद्यार्थियों के हितों के लिए तन-मन-धन से समर्पित  तिवारी सर के प्रयासों का नतीजा यह रहा कि प्रथम वर्ष से ही इस संस्था की क्षेत्र में विशेष पहचान बन गयी।
      यह संस्था इस मामले में बहुत भाग्यशाली है कि यहां के विद्यार्थियों का प्लेसमेंट शुरू से ही शानदार रहा है। प्रथम बैच के लगभग सभी विद्यार्थी मशहूर कम्पनियों में नौकरी पा गये हैं। प्रथम बैच में तो एक चमत्कार यह भी  हुआ कि चार वर्षीय बी0टेक0 कोर्स के तृतीय वर्ष में ही एक छात्र-आशीष त्रिपाठी का सुप्रसिद्ध कम्पनी - ‘इंफोसिस’ में केम्पस सेलेक्शन हो गया था।
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 इस संस्था के विद्यार्थियों ने समय-समय पर कीर्तिमान स्थापित किये हैं। बी-फार्मा  प्रथम बैच के छात्र -सागरबंसल ने यूपीटीयू के वर्ष 2010 के परीक्षाफल में पुरे उत्तर प्रदेश में चतुर्थ स्थान  प्राप्त किया।  एक ताजा उदाहरण सिद्ध करता है  कि यहाँ के विद्यार्थियों में राष्ट्रीय स्तर पर नामचीन संस्थाओं के विद्यार्थियों को भी पछाड़ने की कूबत है।
 इस वर्ष आई0आई0टी0 मुम्बई में ‘‘ नेशनल इन्टरप्रेन्योरशिप चेलैन्ज’ शीर्षक से अखिल भारतीय स्तर पर प्रतियोगिता आयोजित हुई। इस प्रतियोगिता में देशभर से लगभग 150 संस्थानों ने भाग लिया जिनमें आई0आई0टी0, एन0आई0टी0, आई0आई0एम0 सहित देश के टाॅप टेन कोलेजों के प्रतिभागी भी शामिल रहे। शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट से बी0टेक0 के 14 विद्यार्थियों की टीम ने भाग लिया और इस टीम ने तृतीय स्थान प्राप्त करके शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट को राष्ट्रीय स्तर पर विशेष पहचान दिलाई। इस टीम का नेतृत्व छात्र -अंकित केसरवानी ने किया। टीम के अन्य सदस्यों में गौरव अग्रवाल, अंकित मिश्रा, दीप्ती धूरिया, अमित तिवारी, मणिका दीक्षित, अनुकृति जायसवाल, अनुप्रीत जायसवाल, अंकिता श्रीवास्तव, स्तुति पांडे, प्रेरणा पाण्डे, शेफाली सिंह, सृष्टि मिश्रा व सम्या श्रीवास्तव हैं । 
                                                मुम्बई में संस्था के प्रतिभागियों की टीम
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इस संस्था की फैकल्टीज़ व स्टाॅफ में भी बहुत क्षमताएं हैं। समय आने पर वे चमत्कारिक काम करते हैं। एक उदाहरण से इसकी झलक देखी जा सकती है।
          संस्था के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी आर0के0 सिंह जब इस दस सालाना महोत्सव की योजना बना रहे थे तो उन्होंने फेकल्टी मेम्बर्स से कहा - ‘महोत्सव के दौरान संस्था में बड़े स्तर पर कई सांस्कृतिक कार्यक्रम तो सम्पन्न होंगे परन्तु कुछ एकेडेमिक कार्यक्रम भी होने चाहिंए।’’  सिंह साहब के प्रस्ताव पर इलेक्ट्रानिक्स एण्ड कम्यूनिकेशन ब्रांच के फेकल्टी अमित त्रिपाठी ने विशेष दिलचस्पी दिखाई। उन्होंने चार दिवसीय राष्ट्रीय स्तर की वर्कशाप आयोजित करने की योजना बनाई। इसके सुचारू रूप से संचालन के लिए उन्होंने अपने विभाग से एक समिति का गठन किया जिसमें प्रो0 सी0बी0 झा, रामरक्षा त्रिपाठी, विवेक सिंह और डा0 आनंद तिवारी को शामिल किया। इसके लिए उन्होंने देशभर से आई0आई0टी0, एन0आई0टी0 तथा विज्ञान शोध संस्थानों के प्रोफेसर्स को आमंत्रित किया।

   ‘‘वर्कशाप आन कम्यूनिकेशन सिस्टम डिजाइन’’ नाम से आयोजित यह वर्कशाप बहुत सफल रही। इसकी सफलता से अमित त्रिपाठी एवं उनकी टीम गदगद हैं। इस वर्कशाप में आई0आई0टी0 खड़गपुर से डा0 एस0एस0 पाठक, मोतीलाल नेशनल राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद से डा0 राजीव त्रिपाठी, आई0आई0टी0, बी0एच0यू0 वाराणसी से डा0 एस जित, आई0आई0टी0, रूड़की से डा0 एन0पी0 पाठक, इसरो अहमदाबाद से डा0 अरविन्द त्यागी तथा डी0 आर0डी0ओ0, लखनऊ से डा0 गौरीश त्रिपाठी ने भाग लिया। इसके अलावा विश्वस्तरीय कम्पनी-गीेगा साॅफ्ट सहित कई मशहूर कम्पनियों ने प्रयोगात्मक कार्यशाला चलायी। इससे न केवल विद्यार्थियों का ज्ञानवर्धन हुआ बल्कि फेकल्टी मेम्बर्स भी काफी लाभान्वित हुए।
                                                             वर्कशॉप का दृश्य
   अमित त्रिपाठी के मुताबिक इस कार्यशाला से विद्यार्थी आश्वस्त हुए कि हमारी संस्था के शिक्षक भी काफी कुछ वही तकनीकी ज्ञान उसी तरीके से पढ़ाते हैं जैसा कि देश के अग्रगण्य संस्थानों के प्रोफेसर्स पढ़ाते हंै। इसके अलावा विद्यार्थियों को बड़ा आयोजन सम्पन्न कराने का अनुभव हुआ। जो विद्यार्थी विभिन्न समितियों में काम कर रहे थे उनका आत्म विश्वास बढ़ा कि अब वे कोई भी आयोजन सफलतापूर्वक आर्गेनाइज कर सकते हैं। कुछ विद्यार्थियों का देश के मशहूर प्रोफेसर्स के साथ निकट का परिचय हुआ जो भविष्य में उनके कैरियर में बहुत सहायक हो सकता है। इस प्रकार के लाभ फैकल्टी मेम्बर्स को भी हुए।

गौरतलब है कि अमित त्रिपाठी संस्था के युवा फेकल्टी मेम्बर्स में से एक हैं। इन्होंने बी0टेक0 की डिग्री इसी संस्था से ली है। ये इस संस्था के प्रथम बैच के विद्यार्थी रहे हैं और इस दौरान उन्होंने एम0टेक0 भी कर लिया है।
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          संस्था अपनी फैकल्टीज़ को हायर स्टडी के लिए समय-समय पर स्पोन्शरशिप भी देती है।
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    महोत्सव में एक दिन काव्य संध्या का आयोजन हुआ जिसमें देश के मशहूर कवि तथा  शायरों   ने शिरकत की जिनमें कवि पद्मश्री अशोक चक्रधर, शायर मुनव्वर राणा, शायर अंजुम रहबर, सरदार मनजीत सिंह, शरीफ भारती तथा श्लेष गौतम हैं। दूसरे दिन यूफोरिया बैंड की धूम रही जिसमें डा0 पलाश सेन एण्ड ग्रुप ने अपना हुनर प्रदर्शित किया। अंतिम दिन विश्वविख्यात् जादूगर हसन रिजवी ने अपने मैजिक शो का कमाल दिखाया। इसके अलावा चार दिन तक सौ से अधिक तकनीकी एवं नान तकनीकी प्रतियोगिताएं आयोजित हुईं। विजेता विद्यार्थियों कोे पुरस्कृत किया गया।
                                                       जादू दिखाते हसन रिज़वी
             इस पूरे आयोजन से संस्था को क्या लाभ हुआ इसका आकलन करना तो मुश्किल है। मगर मुझे निजी स्तर पर एक लाभ हुआ।
                  मेरी धारणा रही है कि मनोरंजन का व्यवसाय करने वाले व्यक्ति लोगों  की भावनाओं को भुनाने में लगे रहते हैं। इन्हें  देश-समाज की कोई चिन्ता नहीं रहती। लेकिन महोत्सव में आये यूफोरिया बैन्ड के मालिक एवं मशहूर गायक, संगीतकार व फिल्म अभिनेता डा0 पलाश सेन से मिलकर यह धारणा टूटी। जिस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में कुछ प्रेरणास्त्रोत होते हैं उसी प्रकार मनोरंजन के क्षेत्र से डा0 पलाश सेन दिखाई दिये।

मेरी मनोरंजन में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही। मनोरंजन की दुनिया की भी जानकारी न के बराबर है। शायद इसलिए डा0 पलाश सेन के बारे में भी अब तक मुझे कोई जानकारी नहीं थी जबकि देश-विदेश में उनके करोड़ों फैन्स (प्रशंसक) हैं । मैंने कभी पलाश सेन का नाम भी नहीं सुना था उनके बारे में कुछ जानना तो अलग बात है।

         संस्था के कार्यक्रमों की प्रेस विज्ञप्ति मैं ही लिखता हूँ। महोत्सव की पहली प्रेस विज्ञप्ति तैयार की तो पता चला कि संस्था में यूफोरिया बैन्ड आ रहा है जिसमें डा0 पलाश सेन धूम मचायेंगे। तब उनके बारे मे इन्टरनेट से तथा संस्था के कुछ ऐसे लोगों से जानकारी हासिल की जो डा0 पलाश सेन को पहले से जानते थे। शाम को समय से प्रेस विज्ञप्ति तैयार करके भेजने के कारण महोत्सव के पूरे कार्यक्रमों को नहीें देख पाता था। डा0 पलाश सेन के कार्यक्रम को भी शुरू से नहीं देख पाया। रात्रि में लगभग नौ बजे जब कार्यक्रम स्थल पर मैं पहुँचा तो छात्र-छात्राएं  आनंद ले रहे थे। सभी विद्यार्थी डा0 पलाश सेन के गानों पर झूम रहे थे।
                                               कार्यक्रम प्रस्तुत करते डा पलाश सेन
               मैं यह सब देखकर सोचने लगा कि ये छात्र-छात्राएं क्या अपनी पढ़ाई भी इसी जोश व उत्साह से करते हैं । मैं सोच रहा था कि डा0 पलाश सेन ने इन विद्यार्थियों की भावनाओं को कैश करने में महारथ हासिल कर रखी है। साथ में यह भी सोच रहा था कि मनोरंजन की दुनिया में काम करने वाले डा0 पलाश सेन जैसे लोग युवा पीढ़ी को दिशा भ्रमित कर रहे हैं  ।
                 लगभग आधा घंटा यह सब देखकर मैं घर चला आया। डा0 पलाश सेन होटल यात्रिक में ठहरे थे और दूसरे दिन उन्होंने वहाँ पर प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की थी। सिंह साहब ने मुझसे प्रेस कांफेंस में  उपस्थित रहने के लिए कहा। न चाहते हुए भी मैं वहाँ पहुंचा  तो प्रेस कांफेंस चल रही थी। मैं भी चुपचाप जाकर बैठ गया और प्रेस वार्ता को ध्यान से सुनने लगा। पत्रकारों के सवालों के जवाब में डा0 पलाश जो बोल रहे थे उसे सुनकर मैं दंग रह गया। उनके हर जवाब से उनकी जबरदस्त देशभक्ति झलक रही थी। यह सब सुनकर लगा कि यह व्यक्ति युवा पीढ़ी को बर्बाद करने के लिए नहीं बल्कि उसका निर्माण करने में लगा है। बस उसने रास्ता वह चुना है जिसमें खुद की भी रूचि है और युवा पीढ़ी की भी दिलचस्पी ज्यादा है।
                 मैं यहाँ उनके केवल एक जवाब को दे रहा हूँ जिससे उनके व्यक्तित्व की एक झलक मिलेगी। उन्होंने कहा था - ‘‘मैं देखता हूँ कि युवा पीढ़ी ग्लैमर के पीछे भागती है। वह अभिनेताओं, राजनेताओं, क्रिकेट खिलाडि़यों को अपना रोल माडल बना रही है। जो चिन्ता का विषय है। उन्हें शिक्षक, डाक्टर, किसान आदि उन व्यक्तियों को अपना आदर्श बनाना चाहिए जिनके बिना यह देश-समाज नहीं चल सकता। मनोरंजन की दुनिया के लोग नहीं रहेंगे तब भी देश चलेगा।’
                  मुझे नहीं लगता कि मनोरंजन क्षेत्र की किसी सेलीब्रिटी ने कभी युवा पीढ़ी से कहा हो कि वे अपना रोल माॅडल मनोरंजन क्षेत्र की सेलिब्रिटी के बजाए राष्ट्र निर्माता शिक्षक, जीवन दाता किसान व डाक्टर जैसे लोगों को बनायें। अब मैं उनकी देशभक्ति के जब्बे से अभिभूत हो चुका था।
                   मैंने देखा कि प्रेस कांफे्रंस के बाद पत्रकारों ने अलग-अलग उनका एकक्लूसिव इन्टरव्यू भी लिया और उनके साथ अपने फोटो भी खिंचवाये। इससे मुझे पता चला कि डा0 पलाश सेन कितनी बड़ी सेलीब्रिटी हैं और उन के प्रति प्रबुद्ध वर्ग में भी कितनी क्रेज है।
                  अंत में मैंने भी उनसे दो मिनट का समय मांगा और दो सवाल पूछे। सबसे पहले मैंने उनसे उनके प्रति अपनी अनभिज्ञता के लिए क्षमा माँगी और बताया कि कल मैं किस प्रकार उन्हें और उनके कार्यक्रम को नापसन्द कर रहा था और अब मैं भी उनका फैन हो गया हूँ और दिल से हो गया हूँ, विशेष रूप से उनके देश भक्ति के जज्बे का।
                    डा0 सेन शुरू में तो मेरी बातें चुपचाप सुनते रहे और सोचते रहे कि जब यह व्यक्ति मुझे जानता तक नहीं है और मेरे कार्यक्रम को भी पसन्द नहीं करता है तो यह मुझसे क्या बात करना चाहता है। लेकिन जैसे ही मैंने उन्हें बताया कि आज से मैं भी उनका फैन हो गया हूँ। वे कुर्सी से उछले और आगे बढ़कर मुझसे हाथ मिलाते हुए बोले - ‘‘इलाहाबाद विजिट की यह मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि रहेगी।’’
                    गौरतबल है कि होटल में मेरे पहुंचने से पहले शंभूनाथ इंस्टीट्यूट आॅफ मैनेजमेंट के डायरेक्टर - डा0 श्रीश मिश्रा, एस0आई0ई0टी0 के प्रो0 नमीर-अल-हसन, रजनी त्रिपाठी, आशुतोष श्रीवास्तव, विकास मिश्रा, प्रशांत तिवारी व दिब्य सेन सिंह सहित कुछ फेकल्टी मेम्बर्स व छात्र-छात्राएं उपस्थित थे। इनमें से कई लोगों ने दूसरे दिन मुझे बताया कि डा0 पलाश सेन जब इलाहाबाद से वापस दिल्ली जा रहे थे तब उन्होंने विशेष तौर पर मेरी मुलाकात को अपनी उपलब्धि बताते हुए कहा कि इतनी अधिक उम्र का व्यक्ति इतने खुले दिमाग का मेरा फैन बन गया, यहाँ की मेरे लिये यह यादगार उपलब्धि रहेगी।
                    डा0 पलाश सेन ने प्रेस कांफ्रेस में एक सवाल के जवाब में कहा था कि उनकी अब तक छः म्यूजिक विडियो एलबम आ चुकी हैं। प्रत्येक गाने में कोई न कोई सन्देश  है। उन्होंने बताया कि मई 2014 में ‘वाकआॅन’ नाम से नयी म्यूजिक वीडियो एलबम आ रही है (जो अब आ चुकी है) जिसमें  जीवन में आने वाली कठिनाइयों से बचने एवं उन पर विजय प्राप्त करने के उपाय बताये गये हैं।
                      बाद में विभिन्न स्त्रोतों से पता चला कि डा0 सेन बोलने में ही इतनी महान बातें नहीं करते हैं बल्कि उनकी करनी भी ऐसी ही है, अर्थात उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं है। वह पेशे से चिकित्सक हैं। उन्होंने मेडीकल में मास्टर डिग्री ली हुई है। दिल्ली में अपनी क्लीनिक  चलाते हैं। उनका मरीजों के प्रति, बैंड कर्मियों के प्रति बहुत ही अपनेपन का व्यवहार रहता है। दोनों क्षेत्रों से प्राप्त आय में से बहुत कम हिस्सा अपने पास रखते हैं  बाकी समाज हित में उपयोग करते हैं।
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    महोत्सव के अंतिम दिन जिस समय मेरे सहित उन नौ फैकल्टी/स्टाफ मेम्बर्स को तिवारी सर  द्वारा सम्मानित कराने के लिए मंच पर बुलाया जा रहा था जो इस संस्था में शुरू से सेवारत हैं, उस समय मेरे मन में द्वन्द चल रहा था कि सम्मानित होने के लिए मंच पर जाऊँ या न जाऊँ। न जाने की इच्छा का कारण यह था कि मुझे यह सम्मान निरर्थक लग रहा था। मैं सोच रहा था कि सम्मान व्यक्ति के सराहनीय काम का होना चाहिए न कि उसकी लम्बी सेवा अवधि का। जाने की इच्छा का कारण यह था कि यदि न गया तो यह मैनेजमेंट की सद्भावना का अपमान होगा। मैनेजमेंट तो अपनी ओर से अच्छा ही कर रही है।
                   इस सम्मान के प्रति आकर्षण इसलिए भी नहीं हो रहा था क्योंकि असली सम्मान तो मैं पहले ही पा चुका हूँ। तिवारी सर का तो मैं अनेक बार प्रशंसा का पात्र बन चुका हूँ। लेकिन तिवारी सर की प्रशंसाओं से भी ज्यादा खुशी मुझे उस दिन हुई जब मुझे पता चला कि इस संस्था के विद्यार्थियों ने मुझे महामहिम ‘प्रणव मुखर्जी‘ का टाइटिल दे रखा है।
                                                     महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी
                 पिछले साल की बात है कि एक दिन किसी प्रसंग में मेरे विभागीय साथी विजय मिश्रा ने यह बताकर चैंकाया। उन्होने कहा -‘‘क्या आपको मालूम है कि विद्यार्थियों ने सभी फेकल्टी मेम्बर्स को नाम (टाइटिल्स) दे रखे हैं और इसमें आप भी शामिल हैं। वे आपको संस्था का प्रणव मुखर्जी मानते हैं जो देश के राष्ट्रपति हैं। मैं यह सुनकर सुखद आश्चर्य में पड़ गया। यह जानकर मुझे अत्यधिक खुशी हुई। मुझे लगा कि मेरा तो विद्यार्थियों से निकट का और प्रतिदिन का कोई संबंध भी नहीं है। मेरे पास तो विद्यार्थी को कभी-कभी आना पड़ता है। इतने पर भी यदि उनके मन में मेरे प्रति इतना सम्मानजनक भाव है तो इसका मतलब है कि उनके प्रति मेरा कार्य एवं व्यवहार सराहनीय है। इससे बड़ा सम्मान मेरे लिए और कौन सा हो सकता है?
                    गौरतलब है कि विजय मिश्रा को यह बात उनकी बेटी ऋचा मिश्रा ने बतायी थी जो इस संस्था में बी0टेक0 की छात्रा है।
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 मेरा मानना है कि किसी भी संस्था में यदि कोई व्यक्ति सफलतापूर्वक लम्बी अवधि से सेवारत है तो निश्चिित रूप से उसे चारों तरफ से सहयोग मिल रहा है। इसलिए मैं इस संस्था के टाॅप मैनेजमेंट से लेकर प्रत्येक फेकल्टी, स्टाफ मेम्बर एवं विद्यार्थियों का धन्यवाद करता हूँ और उनका आभार प्रकट करता हूँ कि मुझे उनका गत दस वर्षो में भरपूर सहयोग मिला।
                     मैं यहाँ चार व्यक्तियों का नाम लेकर विशेष रूप से आभार प्रकट कर रहा हूँ। वे हैं -सर्व श्री के0के0 तिवारी, आर0के0 सिंह, जे0पी0 मिश्रा व विजय मिश्रा।
                     संस्था के सचिव डा0 के0के0 तिवारी से मुझे हर प्रकार का सहयोग मिला है। चाहे संस्थागत हो या निजी पारिवारिक। वे मुझे अपने परिवार के सदस्य की तरह मानते हैं। मेरे हर दुख-सुख में सबसे आगे खड़े रहते हैं।
             उन्होंने शुरू में मुझे आफिस सुपरिन्टेडेंट का पद दिया। कुछ वर्षों के बाद फाइनेंस आफीसर बना दिया। लेकिन काम मेरे पास शुरू से ही विविध प्रकार के रहे जिसमें अकाउन्ट्स एवं रूपये-पैसों का लेन-देन प्रमुख रहा। जबकि मेरी अकाउन्ट्स में और रूपयों के लेन-देन में न पहले रूचि थी और न अब है। हांलाकि तिवारी सर मेरे कार्य से संतुष्ट हैं और यदा-कदा लोगों से परिचय कराते हुए कहते हैं - ‘‘गर्ग साब अकाउन्ट्स के आदमी नहीं थे, मैंने इन्हें परफेक्ट अकाउन्टेंट बना दिया।’’ मेरा मानना है कि अकाउन्ट्स का परफेक्ट आदमी तो मैं  आज भी नहीं हूं लेकिन उनकी जो अपेक्षाएं मुझसे रहती हैं उन्हें मैं अच्छी तरह से पूरा कर लेता हूं।

  तिवारी सर का मानना है कि ईमानदार आदमी कुछ भी कर सकता है। वे ‘ईमानदारी’ को भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं  कि केवल रूपये के लेन-देन में ईमानदार होना ही ईमानदारी नहीं होती। ईमानदार व्यक्ति वह होता है जो अपनी बातचीत में, व्यवहार में, और कार्यों में भी ईमानदार होता है।
                        अब मैं यहाँ दो ऐसी घटनाओं का जिक्र कर रहा हूँ जिनसे  तिवारी सर के साथ हुए मेरे खट्टे-मीठे अनुभवों का पता चलेगा।
                    संस्था के शुरूआती दौर में संस्था का अपना कोई निजी टेलीफोन कनेक्शन नहीं था। एक पब्लिक फोन था जिसमें एक रूपये का सिक्का डालकर बातें होती थीं। वह टेलीफोन ‘उत्थान’ के प्रबंधक उमेश शुक्ला के कमरे के बाहर दीवार पर टंगा रहता था। मैं प्रतिदिन सुबह लगभग छः बजे अपने घर (झूंसी इलाहाबाद) पर पत्नी से बात करने के लिए उस टेलीफोन बक्से के पास आ जाता था। एक दिन जैसे ही मैं वहाँ पहुंचा तो टेलीफोन में घन्टी बजने लगी। मैंने टेलीफोन का रिसीवर उठाकर कान पर लगा लिया। उधर से आवाज आयी - ‘‘जीप मिश्रा जी के घर चली गयी?’’ मैं समझ गया कि यह आवाज  तिवारी सर की है। मैंने अभिवादन करके उन्हें उत्तर दिया कि मुझे मालूम नहीं। मैं आगे कुछ बोलता कि इतना सुनते ही  तिवारी सर  ने कहा - ‘‘यहाँ कोई जिम्मेदार व्यक्ति हो तो उससे मेरी बात कराओ’’। मैंने तुरंत कमरे में उपस्थित ‘उत्थान‘ कर्मी सुनील शुक्ला को बुलाया और बात करायी।
        दरअसल हुआ यह था कि बीती रात में तिवारी सर ने इसी फोन से सुनील शुक्ला से कहा था कि कल सुबह अशोक नगर में मिश्रा जी के घर जीप भेज देना। उनके पिता का निधन हो गया है। उसे ही वे इस समय सुनिश्चित कर रहे थे।
             जैसे ही तिवारी सर ने कहा कि किसी जिम्मेदार व्यक्ति से बात कराओ तो मेरे दिमाग में तरह-तरह के विचार आने लगे। क्या वे मुझे जिम्मेदार आदमी नहीं समझ रहे हैं जबकि इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। लगने लगा कि बस आज यहाँ से छुट्टी हो जायेगी आदि-आदि। इसे लेकर मैं पूरे दिन बड़ा परेशान रहा। जबकि तिवारी सर यह कह कर तुरन्त भूल गये कि उन्होंने ऐसा कुछ कहा। मुझे यह बाद में पता चला कि वे फुटबाॅल खिलाड़ी रहे हैं, उनमें स्र्पोट्समैन स्पिरिट है, इसलिए उनका स्वभाव ही ऐसा है। उन्हें जो महसूस होता है उसे कहने में चूकते नहीं हैं और दिल में कुछ गाॅँठ बाँधकर रखते नहीं हैं । मेरी चूँकि शुरूआती दौर की पहली घटना थी इसलिए तरह-तरह के बुरे विचार मन में उठ रहे थे।
                    गौरतलब है कि उन दिनों मेरा परिवार झूंसी (इलाहाबाद)  में रहता था । उस समय संस्था से झूंसी तक जाने के लिए कोई सीधा साधन नहीं था। यदि अपना कोई साधन नहीं है तो तीन घंटे जाने व तीन घंटे आने में लगते थे। इसके कारण मुझे संस्था में रहना पड़ता था।
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    इसके लगभग दो सप्ताह बाद एक सुखद घटना हुई। हुआ यह कि एक दिन वे घर से संस्था के उस ब्रोशर को लेकर आये जिसे छपने के लिए देना था। वे चाहते थे कि इसे फाइनली विष्णु भगवान पब्लिक स्कूल के प्रिंसीपल शंकर शरण त्रिपाठी को दिखा लिया जाये जिससे उसमें कोई गलती न रह जाये। उन्होंने उस ब्रोशर को मुझे यह कहकर दिया कि जैसे ही दोपहर में प्रिंसीपल साहब आएं , उन्हें दे देना। गौरतबल है कि उन दिनों विष्णु भगवान पब्लिक स्कूल इसी इंजीनियरिंग संस्था की बिल्डिंग के 5-6 कमरों में चलता था।
             इत्तेफाक से प्रिंसीपल त्रिपाठी साहब उस दिन नहीं आये। मैं खाली बैठा था। कोई छात्र-छात्रा यदि आता तो केवल उन्हें अटैन्ड कर लेता था। खाली समय में मैंने उसे पढ़ डाला। मुझे उसमें कुछ गलतियां नजर आयीं। मैंने पेंसिल से उन्हें चिन्हित कर दिया। शाम को जब  तिवारी सर के जाने का समय हुआ तो उन्होंने मुझसे उस ब्रोशर के बारे में पूछा। ब्रोशर देते हुए मैंने उन्हें बताया कि प्रिंसीपल साहब तो नहीं आये लेकिन मैंने इसे पढ़ा और मुझे कुछ गलतियां दिखी हैं। आप देख लीजियेगा। उन्होंने ब्रोशर को ध्यान से देखा और बोले - ‘‘आपकी अंग्रेजी तो मुझसे भी अच्छी है।’’ मैं यह सुनकर आश्चर्य में पड़ गया। एक बार तो लगा कि ये कहीं मुझ पर व्यंग्य तो नहीं कर रहे हंै। लेकिन थोड़ी देर में ही मैं समझ गया कि इन्होंने जो महसूस किया उसे खुले दिल से कह दिया। इस घटना के बाद मैं सोचने लगा कि यह कितने महान हैं। संस्था का सर्वेसर्वा होते हुए भी अपने एक अदने से और वह भी नये कर्मचारी का किस अन्दाज में उत्साह वर्धन कर रहे हैं।
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                गत वर्ष हुई एक घटना के बाद से तो उन्होंने मुझे थिंक टैंक भी कहना शुरू कर दिया।
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     तिवारी सर संस्था के स्टाफ के बीच अक्सर यह कहते हैं कि मैं बुजुर्गों  का बहुत सम्मान करता हूँ। वे मुझे भी बुजुर्गो की श्रेणी में रखते हैं। यह अलग बात है कि मंै अपने को वैसे ही बुजुर्ग नहीं मानता हूं जैसे बहुत से बुजुर्ग अपने को बुजुर्ग नहीं मानते हैं। 

    उपरोक्त बातों को पढ़कर उन लोगों को जो  तिवारी सर के सामने जाने से डरते हैं, लग सकता है कि मैं कितना भाग्यशाली हूँ।  तिवारी सर मेरा कितना सम्मान करते हैं, कितना चाहते हैं। मैं उन्हें बता देना चाहता हूँ कि मैं भी उनके सामने पड़ने से घबराता हूँ। यह अलग बात है कि मेरी घबराहट उन जैसी नहीं होती है। मैं उनके सामने जाने से कतराता नहीं हूँ। मेरी घबराहट में सिर्फ अपने को अलर्ट रखना होता है। मेरी कोशिश रहती है कि उनकी बातों को ध्यान से सुनूं जिससे उनके प्रश्न का तुरंत और सटीक जवाब दे सकूं।
              दरअसल  तिवारी सर का स्वभाव है कि यदि सामने वाले की बातों में या कार्यो में कहीं कोई चूक हुई तो वह उससे कड़ा बोलने में संकोच नहीं करते हैं। इसके पीछे उनका मानना है कि जिस प्रकार घर में जो माता-पिता अपने बच्चों को उनकी गलती पर टोकते नहीं है या उन्हें दण्ड नहीं देते तो बच्चा और बड़ी गलती करने लगता है। एक समय ऐसा आ जाता है कि आप उन्हें सुधारना चाहें तो भी नहीं सुधार पाते। इसी भाव से वे आवश्यकता पड़ने पर टोकने में संकोच नहीं करते हैं। उनका मानना है कि समाज में अपराध इसलिये बढ़ रहे है क्योंकि अपराधी को तुरंत दण्डित नहीं किया जाता है।
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     तिवारी सर स्वयं बहुत परिश्रमी एवं समय के पाबंद (पंकचुअल) हैं । एक फौजी की तरह हमेशा चैकन्ने व कमर कसे हुए रहते हैं। यही अपेक्षा वे अपने कर्मचारियों से भी रखते हैं। जो उनके खास हैं, उनसे तो और भी ज्यादा अपेक्षा रखते हैं। शुरूआती दौर में मुझे अक्सर एक कहावत सुनाकर अप्रत्यक्ष रूप से समझाते थे कि उनकी किस प्रकार की अपेक्षाएं हैं। वह कहावत है - ‘‘महाराणा प्रताप की पुतली फिरी नहीं कि तब तक चेतक मुड़ जाता था।’’
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             तिवारी सर की याददाश्त बहुत तेज है। उनकी आँखों-कानों के सामने से कोई तथ्य गुजर जाये, उन्हें हमेशा याद रहता है।
         उन्हें लिखकर हिसाब रखने की आदत नहीं है। वे सब जुबानी याद रखते हैं। मेरे पास आय-व्यय का प्रमुख कार्य है। उन्हें प्रतिदिन शाम को रिपोर्ट करता हूँ कि आज कुल इतनी तथा इस प्रकार प्राप्ती हुई है। मुझसे यदि वे पूछंे कि कल-परसों में कितनी प्राप्ति हुई थी तो मैं बिना रिकार्ड़ देखे नहीं बता सकता लेकिन वे पिछले एक सप्ताह की प्रतिदिन की अलग-अलग प्राप्ति अपनी याददास्त के बल पर बता सकते हैं। उनकी टिप पर रहता है कि उनके अमुक खाते की स्थिति क्या है।
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           आर0के0 सिंह संस्था के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी हैं। इनका व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों अद्भुत हैं। इसमें अतिश्योक्ति नहीं कि इतनी छोटी उम्र में इन्होंने पूरी संस्था सम्भाल रखी है। इनका भी मुझे हर प्रकार का सहयोग मिला है। वह संस्थागत हो या निजी पारिवारिक। सिंह साहब भी मेरे हर दुख-सुख में आगे खड़े मिलते हैं।
          अगस्त सन् 2012 से पहले फाइनेंस एवं अकाउन्ट्स विभाग कई स्थानों पर बंटा हुआ था। सिंह साहब ने उसे एक बड़े हाल में स्थानान्तरित कर मेरे लिए उसमें वातानुकूलित शीशे का चेम्बर बनवाया। सिंह साहब से मैंने कहा कि ऐसा करने की क्या आवश्यकता थी तो उन्होंने कहा - ‘‘मैंने यह आप पर कोई अहसान नहीं किया। ऐसा इसलिए किया ताकि लगे कि यह किसी प्रोफेशनल इन्स्टीट्यूट का फाइनेंस एण्ड अकाउन्ट्स आफिस है।’’ उन्होंने आगे कहा - ‘‘इन्जीनियरिंग संस्थाओं के लिए यह संक्रमण काल है। स्पर्धा भरे इस दौर में वही संस्था टिक पायेगी जो अपना चैतरफा विकास करेगी।‘‘
               सिंह साहब दिल व दिमाग दोनों से बहुत बड़े हैं। कर्मठ इतने कि बड़े से बड़े कर्मयोगी के छक्के छुड़ा दें। इन्हीं सब गुणों के कारण उनकी इस संस्था में आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थिति है। वे दूसरों के लिए प्रेरणास्त्रोत् बन गये हैं।
              गौरतबल है कि वे इस संस्था में वर्ष 2005 में भौतिक विज्ञान के साधारण फेकल्टी मेम्बर के रूप में आये थे। वे संस्था परिसर में बायज़ हास्टल के पास बने स्टाॅफ क्वार्टर में रहते हैं । इसलिये जाने-अनजाने उनकी  नौकरी भी 24 घंटे की बन गयी है। उनके सोने-जागने का कोई समय नहीं है। उनके आ जाने से उस समय मुझे बड़ी राहत मिली थी।
                शुरूआती दौर की मुझे एक घटना याद आ रही है। मैं उन दिनों संस्था परिसर में ही रहता था। मुझे संस्था परिसर में बने गल्र्स हास्टल का वार्डन भी बना रखा था। सिंह साहब गल्र्स व बाॅयज दोनों हास्टल के चीफ वार्डन थे। एक दिन रात में लगभग दो बजे हास्टल की एक छात्रा ने मुझे फोन से सूचना दी कि उसके पेट में जारों का दर्द है। तुरन्त कहीं अस्पताल ले जाने की आवश्यकता है। मैंने तुरन्त सिंह साहब को फोन करके स्थिति से अवगत कराया। वे दस मिनट में अपनी कार लेकर आ गये और उस छात्रा को प्रीतम नगर स्थित एक प्राइवेट अस्पताल में दिखाया। अस्पताल में उसे भर्ती कराना पड़ा। दूसरे दिन उसे छुट्टी मिल गयी।
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    एक घटना पिछले वर्ष की है। एक छात्रा की घर से संस्था आते समय संस्था के पास सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी। इससे गुस्साये विद्यार्थियों ने संस्था में थोड़ी तोड़-फोड़ की और गेट के पास धरना-प्रदर्शन करने लगे। मामले को शांत करने के लिए पुलिस-प्रशासन को आना पड़ा।
           ताकि मामला तूल न पकड़े  सिंह साहब ने दिन -रात मेहनत करके मामले को पूरी तरह शांत किया और संस्था में शांतिपूर्वक पढ़ाई शुरू कराई। इस घटना से एक कुशल प्रशासक के साथ-साथ सिंह साहब का एक दूसरा अति मानवीय चेहरा सामने आया।
           हुआ यह कि सिंह साहब ने मामले को शांत कराने के बाद जब तक छात्रा का शान्ति पाठ नहीं हुआ तब तक शोक में अपनी दाढ़ी नहीं बनाई और प्रतिदिन अपने घर पर उसकी आत्मा की शान्ति के लिए पाठ किया। शान्ति पाठ के दिन संस्था में हवन कराकर उसकी आत्मा की शान्ति के लिए सामूहिक प्रार्थना करायी।
          मुझे नहीं लगता कि कभी किसी संस्था में किसी प्रशासक अथवा शिक्षक ने अपने छात्र के प्रति इतनी संवेदनाशीलता रखी है।
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          सिंह साहब को प्रोब्लम शूटर माना जाता है। उनके सामने समस्या रखिये। समस्या का तुरन्त समाधान मिलेगा। वे बहुत कल्पनाशील हैं। उनका हस्तक्षेप संस्था के हर काम में है। इस वर्ष उन्हें लगा कि अपने संस्था के रिजल्ट व प्लेसमेंट को और अधिक बेहतर बनाना है। उन्होंने इसके लिए एक अनूठी योजना बनाई और स्टाॅफ की मीटिंग कर उससे उन्हें अवगत कराया। उस पर काम किया और दोनों को दुरस्त कर दिया। इसके लिए उन्होंने प्रत्येक फेकल्टी को सात विद्यार्थियों की जिम्मेदारी दी कि वे उनकी समस्यायें समझें और उन्हें दूर कर उनमें गुणात्मक परिवर्तन लायें।
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सिंह साहब की एक और पहचान है। भले ही उम्र व कद में वह छोटे हैं लेकिन साहस उनमें गज़ब का है। जब किसी विद्यार्थी की हरकत असहनीय हो जाती है तो वे उस पर टूट पड़ते हैं चाहे वह उनके मुकाबले कितना ही बड़ा हो, कितना ही ताकतवर हो और चाहे संख्या में एक से अधिक हांे। इससे संस्था में अनुशासनहीनता नहीं है। सुरक्षा का वातावरण है।
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    जे0पी0 मिश्रा संस्था में डीन, ट्रेनिंग  एण्ड प्लेसमेंट हैं। वे संस्था में वर्ष 2006 में आये। उन्होंने आई0आई0टी0 कानपुर से इन्जीनियरिंग की पढ़ाई की है और वे भारत सरकार के उपक्रम -इन्डियन टेलीफोन इन्डस्ट्रीज से महाप्रबन्धक के पद से सेवा निवृत्त हैं। इनका मुझे जो सहयोग मिला है वह दूसरे ढंग का है लेकिन है बहुत महत्वपूर्ण।
                दरअसल मैं जिज्ञासु प्रवृत्ति का व्यक्ति हूँ। मेरे दिमाग में हर समय विभिन्न किस्म के सैकड़ों प्रश्न घूमते रहते हैं। जिस व्यक्ति से मुझे लगता है कि इससे जिज्ञासाओं को शान्त किया जा सकता है, वहीं मैं शुरू हो जाता हूँ। एक बार मुझे लगा कि मिश्रा जी से भी यह प्रयास किया जाये। पहली बार में ही लगा कि मिश्रा जी तो शायद डिक्शनरी की तरह हैं । मुझे लगा कि जिस प्रकार किसी भी शब्द का अर्थ शब्दकोष से ढूंढा जा सकता है उसी प्रकार मुझे मेरे प्रश्नों का जवाब मिश्रा जी से मिल सकता है। उसके बाद से मैं इनसे निकट से जुड़ गया। लगभग प्रतिदिन मेरा मिश्रा जी के साथ घंटे-आधे घंटे का ‘सत्संग‘ हो जाता है। मिश्रा जी को जब भी समय मिलता है तो वे मेरे आफिस में ही चले आते हैं। इससे लगता है जैसे कुआँ ही प्यासे के पास आ गया। मुझे लगता है कि पिछले दस वर्षों में मेरी सोच व व्यक्तित्व में जो भी विकास हुआ है उसमें मिश्रा जी का विशेष योगदान है।
                एक दिन मैंने मिश्रा जी से पूछा कि आपने पढ़ाई तो इन्जीनियरिंग में की है लेकिन आप को साहित्य, कला, संस्कृति, राजनीति आदि विभिन्न विषयों की जानकारी कैसे मिली। इस पर उन्होंने कहा - ‘‘आई0आई0टी0 कानपुर में विभिन्न क्षेत्रों की जानी मानी हस्तियों को बुलाकर विद्यार्थियों से परिचय कराया जाता है। इससे वहाँ विद्यार्थियों की जानकारी प्रत्येक क्षेत्र की हो जाती है। जिस विद्यार्थी की जिस क्षेत्र में रूचि होती है, उसमें उसे मार्गदर्शन भी मिल जाता है। यही कारण है कि बहुत से विद्यार्थी इन्जीनियंरिग की पढ़ाई पूरी करके दूसरे क्षेत्रों में भी अपना कैरियर बना लेते हैं। यह काम प्राइवेट इन्जीनियरिंग संस्थाओं को भी करना चाहिए।
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    इस समय मेरे दिमाग में पी0 आर0 भट्टाचार्या का व्यक्तित्व भी घूमने लगा है। वह अब इस दुनिया में नहीं हैं। हांलाकि उनका सानिध्य मुझे मुश्किल से एक वर्ष का ही मिला लेकिन उनकी छाप भी मेरे व्यक्तित्व पर जे0पी0 मिश्रा जी की तरह रही।
                    स्व0 भट्टाचार्या अंग्रेजी के मूर्धन्य पत्रकार थे। उन्होंने इलाहाबाद के नार्दन इण्डिया पत्रिका में लम्बे समय तक वरिष्ठ पद पर रहकर पत्रकारिता की। इसके बाद अंग्रेजी के कई प्रसिद्ध अखबारों में काम किया। वह पटना में हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक  रहे। उन्होंने स्वतंत्र पत्रकारिता भी की।
                  वर्ष 2008 में संस्था ने एक वार्षिक पत्रिका प्रकाशित करने की योजना बनायी। ‘संगम’ नाम की  उस पत्रिका का हिन्दी सेक्शन का प्रभारी मुझे बनाया गया और  अंग्रेजी सेक्शन का प्रभारी बी0डी0 जोशी को बनाया गया। उस समय जोशी संस्था में अंगे्रजी के वरिष्ठतम फैकल्टी थे।
                  उसी दौरान पी0आर0 भट्टाचार्या तिवारी सर के सम्पर्क में आये। उनके अंग्रेजी ज्ञान को देखते हुए     तिवारी सर ने उन्हें संस्था का ब्रोशर तैयार करने का काम सौंपा।
                 तिवारी सर ने मुझसे कहा - ‘‘मैं तुम्हारे पास दादा (भट्टाचार्या) को भेज रहा हूँ। इनका सहयोग लेकर संस्था का ब्रोशर तैयार कर लो।’’
                  भट्टाचार्या जी मुझसे मिले तो लगा कि इनके पास समाचार पत्रों के सम्पादन और प्रकाशन का जो अनुभव है उसका लाभ संस्था की पत्रिका के लिये लिया जाये। मैंने जब उनसे पत्रिका की बात की तो उन्हें भी अच्छा लगा और हो गया पत्रिका पर काम शुरू।
                  उन्होंने जिन्दगी भर अंगे्रजी की पत्रकारिता की थी लेकिन हिन्दी का भी अच्छा ज्ञान था। उन्होंने हिंदी सेक्शन में भी काफी सहयोग किया। उनमें विनम्रता बहुत थी। मैंने यदा कदा उनके अंगे्रजी सेक्शन के लिए कोई सुझाव दिया तो उन्होंने उसे बड़ी सहजता के साथ स्वीकार किया। यह पत्रिका मील का पत्थर बनी। उनके निधन के बाद श्रद्धाजंलि स्वरूप मैंने उन पर एक घंटे की डॉक्यूमेंट्री  फिल्म बनायी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मीडिया सेंटर में भी उसे प्रदर्शित किया गया। वहाँ इस फिल्म को खूब सराहा गया। यह फिल्म ‘यू-ट्यूब’ पर उपलब्ध है।
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    विजय मिश्रा अकाउन्टेंट के पद पर कार्यरत हैं और संस्था में वर्ष 2008 में आये है। वह अकाउन्ट्स के अच्छे जानकार हैं। उससे मुझे बड़ी राहत मिली। इसके अलावा मुझे निजी स्तर पर भी उनका बड़ा सहयोग मिला है। आप इन्टरनेट के माध्यम से जो मेरे लिखे इन संस्मरणों को पढ़ रहे हैं वह सब मिश्रा जी की ही देन है।
               हुआ यह कि लगभग चार वर्ष पहले एक दिन मिश्रा जी ने मुझसे कहा -‘‘आप बहुत सोचते हैं, लिखने की भी सोचते रहते हैं  लेकिन लिखकर कहीं पब्लिश नहीं कराते हैं। आप इन्टरनेट पर अपना ब्लाग क्यों नहीं बना लेते?’’ मैं इन्टरनेट की दुनिया से परिचित नहीं था। इसलिए उनकी बात समझ नहीं पाया। उन्होंने विस्तार से समझाया - ‘‘ इसके लिए किसी शीर्षक से इन्टरनेट पर अपने लिए स्थान लेना होता है। इसमें कोई खर्चा भी नहीं होता। उस पर चाहे जितने लेख डाल सकते हैं। उन्हें फिर दुनिया में कहीं भी, कोई भी पढ़ सकता है और मैं आपका यह सारा काम कर दूंगा। बस, आप कोई शीर्षक सोच लीजिये। अपने नाम से भी शीर्षक बनाया जा सकता है।’’
           इसके बाद उन्होंने ‘‘अनन्त अन्वेषी’’ शीर्षक से मेरे लिए स्थान सुरक्षित कर दिया। जब ब्लाॅग बन जाने के बाद भी मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया तो वे बोले -‘‘कुछ लिखिये वरना वह ब्लाॅग बंद हो जाएगा’’ इस पर मैं चैंका और मैंने कुछ लिखने के लिए सोचना शुरू किया।
          मेरे बहु-बेटे ने कुछ दिन पूर्व मेरा जन्म दिन मनाया था वह भी मेरी इच्छा के विरूद्ध। सोचा कि उसके दिलचस्प अनुभवों को लिखा जाये। मैंने आफिस में ही उसे आधे-धंटे में लिख डाला और उसे शीर्षक दिया -
 ‘‘55 साल की उम्र में पहला जन्म दिन’’
          मिश्रा जी ने उसे मेरे ब्लाॅग पर पोस्ट कर दिया। उन्होंने देर शाम बताया कि ब्लागवाणी ने आपके ब्लाॅग को आज का सर्वश्रेष्ठ ब्लाॅग घोषित किया है। यह सुनकर मुझे अद्भुत खुशी हुई। उस पर कई पाठकों की अच्छी प्रतिक्रियाएं आयीं। एक तो कनाड़ा से मिली। इससे खासा उत्साहवर्धन हुआ। इसके बाद लिखने का सिलसिला शुरू हो गया।
              कुछ समय बाद एक दिन मिश्रा जी ने बताया कि दैनिक जागरण समाचार पत्र ने ‘‘जागरण जंक्शन’’ के नाम से ब्लाॅग वेबसाइट बनायी है। इस पर भी ब्लाॅग पोस्ट किया जा सकता है। मेरी सहमति पर उन्होंने ‘जागरण जंक्शन’ पर भी मेरे लिए स्थान ले लिया। जब ‘जागरण जक्शन’’ पर ब्लाॅग डालने शुरू किये तो वहाँ ज्यादातर मेरे ब्लाॅग उस दिन के टाॅप टेन में सेलेक्ट हुए। जब पता चलता कि मेरा अमुक ब्लाॅग खूब सराहा जा रहा है तब अद्भुत खुशी होती। वर्ष 2009 बैच की महिला आई0ए0एस0 टाॅपर इवा सहाय का मैंने इन्टरव्यू लिया था जो खासा चर्चित रहा।
         हालांकि कुछ कारणों से अब लिखना बहुत कम हो गया है। पिछले दो वर्षो में पांच-छः ब्लाॅग ही लिख पाया हूँ।
            इस काम में मुझे अपने विभाग के साथी मुकेश श्रीवास्तव, कैलाश नाथ प्रजापति व अशोक मिश्रा का भी विशेष सहयोग मिला। मुकेश श्रीवास्तव भी अकाउन्टेंट हैं । ये संस्था के शुरूआती सालों में ही आ गये थे। इन्होंने भी कुछ चीजें दुरस्त कीं। इनसे भी मुझे काफी राहत मिली। मुझे लगता हैं कि इनमें अकाउन्ट्स मेनटेन से ज्यादा आडिट की प्रतिभा है। शायद इसीलिये ये किसी के लिखे हुए में कमी निकालने में काफी सिद्धहस्त हैं। इसलिए मैं लिखकर इन्हें जरूर पढ़वाता हूँ और आवश्यक समझने पर अपने लिखे में संशोधन भी करता हूँ। कैलाश नाथ प्रजापति और अशोक मिश्रा ने मेरे लिखे ब्लाग्स को कम्प्यूटर पर टाइप किये। यदि इनका सहयोग नहीं मिलता तो शायद यह काम जारी नहीं रह पाता।
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    संस्था में मेरे शुरूआती तीन महीनों - अप्रेल, मई, व जून 2004 की स्थिति को पढ़कर कुछ पाठकों को यह लग सकता है कि दस वर्षों में से ये तीन माह मेरे सबसे बुरे रहे होंगे क्योंकि बिजली की सुविधा बहुत अच्छी नहीं थी व कोई खास काम भी नहीं था इससे बड़ी बोरियत झेली होगी। इस मामले में मेरा मानना है कि इन तीन महीनों का समय मेरे लिए अभिशाप नहीं वरदान रहा। यदि यह कहूँ कि यह मेरा गोल्डन पीरियड रहा तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
               दरसअल मुझे पढ़ने, लिखने, लोगों से बात करने व घूमने-फिरने में बहुत आनन्द आता है। लेकिन ये सभी शौक समय की माँग करते हैं और मेरे पास हमेशा से इसका अभाव रहा। इन तीन महीनों में मैंने कई पुस्तकें पढ़ डालीं। इनमें से प्रमुख रही - स्टीफन आर0 कवि द्वारा लिखित पुस्तक - ‘‘सेविन हैबिट्स आॅफ हाइली इफ़ैक्टिव पीपुल’’। पहले यह पुस्तक अंग्रेजी में आयी बाद में ‘‘अति प्रभावशाली लोगों की सात आदतें’’ शीर्षक से हिन्दी में भी आ गयी। मैंने दोनो संस्करण पढ़ डाले।
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इस संस्था में समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों की विभूतियां आती रही हैं जिन्होंने संस्था का निरीक्षण करके विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया। इन विभूतियों में देश के पूर्व राष्ट्रपति डा0 ए0 पी0 जे0 अब्दुल कलाम का विजिट प्रमुख है। वे संस्था में लगभग 6 घंटे रहे। उन्होंने संस्था का बारीकी से निरीक्षण किया और विद्यार्थियों को सम्बोधित किया व उनकी जिज्ञासाओं को शांत किया। अपने सम्बोधन में भारत रत्न डा0 कलाम ने संस्था की बड़ी प्रशसां की।
                           संस्था का निरक्षण करते हुए पूर्व राष्ट्रपति डा ए पी जे अब्दुल कलाम
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    शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट ने गत दस वर्षो में हर क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बनाई है। संस्था प्रगति के पथ पर तेजी से अग्रसर है। इस संस्था की बेहतरी के लिए जब मैंने कुछ फेकल्टी मेम्बर्स से बात की तो एक बात प्रमुख रूप से उभर कर सामने आयी। उनका मानना है कि संस्था में प्रोफेशनल एप्रोच की कुछ कमी है। यदि इस कमी को दूर कर दिया जाए तो इस संस्था की गिनती बहुत शीध्र देश की प्रथम पंक्ति की संस्थाओं में होने लगेगी।
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अनन्त अन्वेषी