सत्य की खोज में

Saturday, June 12, 2010

मैं और मेरा शौक

मुझे लिखने का कम पढने का शौक ज्यादा है | यह अलग बात है कि जितना पढना चाहता हूँ, उतना नहीं पढ़ पाता |

मैं प्रतिदिन कई समाचार पत्र खरीदता हूँ, पुस्तकें व पत्रिकाएँ भी खरीदता रहता हूँ | इसी के चलते घर में पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों का अम्बार  लगा है |  इनमें से अधिकांश अभी तक पढ़ी ही नहीं गयीं  |

जिस दिन कोई पुस्तक व पत्रिका खरीदता हूँ, उस दिन चार-छह घंटे उसको खूब उलटता पलटता हूँ, बीच-बीच से कुछ अंश पढ़ भी लेता हूँ और यह सोचकर पुस्तक/पत्रिका कहीं सुरक्षित  रख देता हूँ कि समय मिलने पर अवश्य पढूंगा | लेकिन वह समय शायद ही कभी आता है | कुछ पुस्तकें  और पत्रिकाएं ही ऐसी होंगी जिन्हें मैंने पूरा पढ़ा  होगा |


मेरे इस शौक से मेरे परिवार के कुछ सदस्य परेशान रहते हैं | उनका मानना है कि पुस्तकों, पत्रिकाओं एवं अख़बारों पर जो रकम खर्च होती है उसे घर की आवश्यकताओं में खर्च किया जाना चाहिए | परिवार के ये लोग कभी-कभी मुझसे कहते हैं - "देखना,  किसी दिन हम इन पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकों को रद्दी में दे देंगे...........|"

उनकी आपत्ति के चलते मैंने इस शौक को कई बार कम करने का मन बनाया लेकिन आज तक सफल नहीं हो पाया |

आज मैंने एक पुस्तक फिर खरीदी | किताब लेकर घर में घुसा ही था कि परिवार का एक सदस्य बोला- "पुरानी पुस्तकें अभी पढ़ी नहीं गयीं  और आज फिर एक नई पुस्तक ले आये  .........|"

"ठीक है, अब कोई पुस्तक नहीं खरीदूंगा" यह कह कर मैं अपने कमरे में चला गया  और पुस्तक को उलटने पलटने लगा |

समझ में नहीं आ रहा कि मैं परिवार के इन लोगों को कैसे समझाऊँ - ये पुस्तकें मेरी बहुत मदद  करती हैं | मैं जिस बैकग्राउन्ड का और जिस 'साधु' स्वभाव का हूँ उसे देखते हुए मैंने काफी उपलब्धियां हासिल की हैं  और जो उपलब्धियां हासिल की हैं उसमें इन पुस्तकों का बहुत योगदान है |

                               उपलब्धि गाथा


मैं देहातनुमा कस्बाई साधारण परिवार से सम्बन्ध रखता हूँ | न मेरे परिवार में कोई खास पढ़ा-लिखा है, न मैं हाइली क्वालिफाइड  हूँ | छात्र जीवन में यह भी मालूम नहीं था कि कौन-कौन सी  नौकरियां होती हैं और उन्हें प्राप्त करने के लिए क्या करना होता है |

          अंग्रेजी व कम्प्यूटर की अच्छी  जानकारी आज के कैरियर के लिए पहली जरुरत है | मैं अंग्रेजी फर्राटेदार नहीं बोल सकता, काम चलाऊं जानता हूँ | कम्प्यूटर तो बिलकुल नहीं आता | इसके बावजूद एक महानगर में प्रतिष्ठित प्राइवेट संस्थान में महत्वपूर्ण पद पर नौकरी कर रहा हूँ | तनख्वाह ठीक-ठाक है, घर का खर्च चल जाता है | हांलाकि अब तक रहने के लिए अपना एक छोटा सा मकान  भी नहीं बनवा पाया हूँ | संस्थान में अच्छी-खासी प्रतिष्ठा है | लोग भरोसा करते हैं | उनकी नजर में मैं एक 'महान' व्यक्ति हूँ | 


  मैं कितना 'महान' हूँ इसका तो मुझे नहीं पता लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि आप एक  संवेदनशील   व धनात्मक विचारों वाले व्यक्ति हैं, इसमें जरुर कुछ न कुछ सच्चाई होगी क्योंकि मैं दूसरों की वेदनाओं को महसूस करके उन्हें दूर करने का हर सम्भव प्रयास करता हूँ | आज के स्वार्थी समय में यदि किसी व्यक्ति में बड़ी उम्र तक संवेदनशीलता बची है तो यह भी कुछ कम नहीं है |

        कई बार ऐसा होता है कि दूसरों का मेरे साथ व्यवहार मेरी अपेक्षाओं के अनुसार नहीं होता | उस समय मेरा मन एक बार तो उसे सबक सिखाने को आतुर हो उठता है, लेकिन कुछ ही समय बाद मन स्थिर हो जाता है और बदले की भावना नहीं रहती | यह भी क्या कुछ कम है ?

      मैं प्रायः तनावमुक्त एवं प्रसन्नचित रहता हूँ | शारीरिक रूप से जरूर कुछ कमजोर हो गया हूँ, उम्र हो गई है न, लेकिन काम करने में हर समय युवाओं जैसा जोश रहता है |

       विभिन्न क्षेत्रों के कई अतिशिक्षित एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों  से मेरे दोस्ताना सम्बन्ध हैं | और अब तो ब्लॉग के माध्यम से दूर-दूर तक (विदेशों तक) लोग मुझे जानने लगे हैं और मेरे कार्य की सराहना कर रहे हैं |

         मुझे कई बार विपत्तियों ने घेर लिया | ये विपत्तियाँ कभी मेरी मूर्खताओं के कारण आयीं तो कभी दूसरों की दुष्टताओं के कारण | लेकिन मैं विपत्तियों में टूटा नहीं, हमेशा विपत्तियों से उबरा  और न केवल उबरा बल्कि पहले से ज्यादा ताकतवर बनकर उबरा |


 मैं  तो यही मानता हूँ कि ये उपलब्धियां कम  नहीं हैं और इन सभी उपलब्धियों का अधिकांश श्रेय पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकों को ही जाता है |


   क्या मेरी इन उपलब्धियों का लाभ  मेरे परिवार को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नहीं मिलता है ? या फिर नहीं मिलेगा ?

                    बताइए, मैं अपने इस शौक को छोडूं तो कैसे छोडूं ?  

Wednesday, June 9, 2010

मैं और मेरी मुलाकात

मैं जिज्ञासु हूँ | शायद कुछ ज्यादा ही जिज्ञासु | अनगिनत प्रश्न दिमाग में कुलबुलाते रहते हैं | इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने के लिए यथा संभव पुस्तक, पत्रिका, अख़बार आदि पढता रहता हूँ, टेलीविजन देखता हूँ व लोगों से बातचीत करता हूँ |

चार  माह पूर्व जिस दिन से ब्लॉग जगत में प्रवेश किया है उस दिन से ब्लॉग जगत को जानने की कोशिश में लगा हूँ | इसी के चलते पिछले माह एक मित्र के माध्यम से जानकारी मिली कि इलाहाबाद के कोषाधिकारी श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी "सत्यार्थ मित्र" के नाम से ब्लॉग लिखते हैं | उन्हें ब्लॉग के बारे में अच्छी जानकारी है | उन्होंने ब्लागिंग पर हाल ही में महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) एवं हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद के संयुक्त तत्वाधान में तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार आयोजित कराया  था |

मैं उनसे उनके आवास पर मिला | लगभग दो घंटे बातचीत हुई | बातचीत बड़ी ज्ञानवर्धक व दिलचस्प रही | श्री त्रिपाठी जी ने पहली ही मुलाकात में जिस आत्मीयता से बातचीत की उससे उनसे मिलना एक बड़ी उपलब्धि रही |

मैं लिक्खाड़ नहीं हूँ लेकिन बहुत सालों से कुछ न कुछ लिखने के लिए बेचैन रहता हूँ | न लिख पाने के कई कारण लगते हैं उनमे से एक मन में बैठी यह धारणा है कि लिखने से कुछ 'फायदा' तो है नहीं फिर लिखने में समय एवं ऊर्जा क्यों खर्च की जाये |

मैं सोचता हूँ कि कुछ ऐसा लिखूं जिसे पढ़कर लोगों की सोच मेरे अनुसार हो जाये, दुनिया में क्रांति हो जाये | फिर सोचता हूँ कि बहुत से लोगों ने बहुत-बहुत अच्छा लिखा है उसे पढ़कर भी दुनिया  नहीं बदली तो मेरे लिखे को पढ़कर ही क्या हो जायेगा | लिखने की इस निरर्थकता के बोध ने भी कुछ नहीं लिखने दिया |

श्री त्रिपाठी जी से भी मैंने इस प्रश्न का उत्तर जानना चाहा कि ब्लॉग लिखने का क्या फायदा है | इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने इस प्रकार दिया - "लिखने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि लिखने के लिए आप एक विषय पर अपनी जानकारियों को सुव्यवस्थित करने की कोशिश करते हैं जिससे अपने विचारों में स्पष्टता आती है | इससे व्यक्तित्व का विकास होता है | विकसित व्यक्तित्व से अच्छे  काम होते हैं | अच्छे कार्य करने में ख़ुशी मिलती है, आनंद मिलता है | जंहा तक ब्लॉग लिखने की बात है तो यह एक बहुत बड़ा मंच है जिस पर लिखकर आप की रचना एक ही क्षण में दुनिया भर के पाठकों तक पहुँच सकती है | ब्लॉग पर किसी भी ढंग से, कुछ भी  लिख सकते हैं जिसे शायद कोई पत्र-पत्रिका न छापे चाहे वह कितनी ही अच्छी क्यों न हो | इसमें आपको पूरी स्वतंत्रता है |

श्री त्रिपाठी जी से मुलाकात के बाद वापस घर आते समय रास्ते भर उनसे हुई बातचीत और विशेषकर  उपरोक्त  प्रश्नोत्तर पर सोचता रहा | और निश्चय किया कि अब ब्लॉग के लिए अधिक से अधिक समय देना है | इस कार्य में बहुत संतुष्टि मिलेगी | 

आज मैंने "इनफ़ोसिस" के संस्थापक श्री एन.आर. नारायणमूर्ति की पेंगुइन बुक्स  से प्रकाशित पुस्तक "बेहतर भारत बेहतर दुनिया" के कुछ पृष्ठ पढ़े | उन पृष्ठों में उन्होंने उन घटनाओं का वर्णन किया है जिन्होनें उनके जीवन की दिशा मोड़ दी | उनमें से एक घटना का वर्णन करते हुए उन्होंने बताया है कि साल 1968 में जब वह आई.आई.टी. कानपुर में ग्रेजुएशन  के छात्र थे तब उनकी मुलाकात एक मशहूर कम्प्यूटर वैज्ञानिक से हुई, जो एक नामी-गिरामी अमेरिकी यूनिवर्सिटी से अवकाश पर आये हुए थे | इस मुलाकात ने उन पर ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि उन्होंने निश्चय  किया कि वह कम्प्यूटर साइंस ही पढ़ेगें | श्री नारायणमूर्ति अन्त में कहते हैं कि इस अनुभव ने उन्हें सिखाया कि कीमती सलाह कभी कभी अप्रत्याशित स्रोंतों  से भी मिल जाया करती हैं और सयोंगवश हुई घटनाएँ कभी-कभी सफलता के नये दरवाजे खोल सकती हैं  |

श्री नारायणमूर्ति की उपरोक्त घटना को पढ़ते हुए बार-बार गत माह श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी से हुई मुलाकात की याद आती रही |

Sunday, June 6, 2010

मैं और मेरा ब्लॉग "अनंत अन्वेषी"

ब्लॉग और ब्लागिंग के बारे में मैं चार महीने पूर्व तक कुछ नहीं जानता था | इसी साल फरवरी माह में किसी दिन मेरे एक साथी- विजय मिश्रा ने मुझसे कहा -  "सर, आप बहुत सोचते-विचारते हैं, बहुत दिनों से एक किताब लिखने की भी बात कर रहें हैं | एसा क्यों नहीं करते कि अपना एक ब्लॉग बना लें | जो लिखें, उस ब्लॉग पर डाल दें |  इस प्रकार आपकी किताब की पूरी सामग्री तैयार हो जायेगी | "मैंने उनसे पूछा  कि यह ब्लॉग क्या होता है | उन्होंने बताया - "इसके लिए इन्टरनेट पर एक ब्लॉग बनाना होगा | इसके लिए एक नाम रखना होगा |" मैंने कहा - "तो बना दीजिये मेरे नाम से एक ब्लॉग" और उन्होंने तुरन्त बना डाला |

ब्लॉग बन गया, बात आयी-गयी हो गयी | लगभग एक माह बाद मिश्रा जी ने मुझसे कहा कि सर, ब्लॉग के लिए कुछ लिखा नहीं ? मैंने कहा - "हाँ, लिखूंगा लेकिन समय तो मिलना चाहिए |" इस पर वह बोले -"समय तो  निकालना होगा | समय की  परेशानी तो सबको है लेकिन लिखने वाले लिखने के लिए समय निकालते ही हैं |"  मैं इस पर गम्भीरता से विचार करने लगा | आफिस का काम खत्म हुआ तो लिखना शुरू कर दिया | लगभग आधा घंटे बाद मैंने उन्हें और अपने अन्य साथियों को  लेख पढ़ कर सुनाया | सभी साथियों की  प्रतिक्रिया  उत्साह जनक थीं |

मैंने मिश्रा जी से कहा - "मुझे तो कंम्प्यूटर आता नहीं | अब आपको ही इसे टाइप करना होगा | "  टाइप हो गया | मैंने प्रूफ पढ़ दिया | उन्होंने उसे पोस्ट भी कर दिया | इस प्रकार मेरी पहली प्रवष्टि 28 मार्च 2010 को "55 साल की उम्र में पहला जन्मदिन" शीर्षक से प्रकाशित हुई |

अगले  दिन पता चला कि यह प्रवष्टि  "ब्लागवाणी" पर उस दिन की हिट प्रवष्टि  रही, उसे सर्वाधिक पढ़ा गया | यह जान कर बेहद ख़ुशी हुई |

लिखने का सिलसिला तो शुरू हो गया मगर गति नहीं बन पायी | नतीजा यह कि उसके बाद एक माह में एक प्रविष्ट ही भेज पाया | इस प्रकार अभी तक केवल चार प्रवष्टि  ही भेज सका हूँ | लेकिन इस दौरान पाठकों की जो टिप्पणियाँ  मिलीं उससे बहुत उत्साह बढ़ा |

"डिग्री से ज्यादा महत्वपूर्ण है योग्यता हासिल  करना |" शीर्षक से प्रकाशित तीसरी प्रवष्टि  को  "जागरण जंक्शन" ने दो दिन तक रीडर ब्लॉग के होम पेज पर टॉप टेन ब्लाग्स  में पांचवे क्रम पर दिखाया था |

मैंने ताजा प्रवष्टि  1 जून को भेजी | "आई. ए. एस. महिला टापर इवा सहाय से विशेष मुलाकात" शीर्षक से प्रकाशित इस प्रवष्टि  को  ब्लॉग जगत में जो स्वीकार्यता मिली है उससे तो अपार ख़ुशी हो रही है | "चिठ्ठा चर्चा"  ने इस प्रवष्टि  पर चर्चा की और अदभुत समीक्षा प्रकाशित की | इसके लिए मैंने "चिठ्ठा चर्चा" का आभार प्रकट  करते हुए एक धन्यवाद पत्र लिखा जो इस प्रकार था -

आदरणीय भाई,
       सादर अभिवादन |
यह देखकर बड़ी ख़ुशी हुई कि "चिठ्ठा चर्चा" ने मेरी पोस्ट- "आई.ए.एस. महिला टापर इवा सहाय से विशेष मुलाकात" को 1 जून 2010 का सर्वश्रेष्ठ पोस्ट चुना और उसपर समीक्षा प्रकाशित की | मैंने  ब्लॉग की दुनिया में तीन महीने पूर्व ही प्रवेश किया है  और प्रति माह केवल एक पोस्ट ही दे पा रहा हूँ इस अवधि में ब्लॉग जगत  को जो थोड़ा बहुत जाना उससे लगा कि इस दुनिया में शायद गिरोह बाजी भी चल रही है |  ब्लॉग की दुनिया में मैं तो अभी न के बराबर किसी को जानता हूँ और शायद ही कोई मुझे जानता है | ऐसी स्थिति  में मेरी पोस्ट को "चिठ्ठा  चर्चा" ने जो महत्व दिया उससे मेरा वास्तव में उत्साह  बढ़ा है और "चिठ्ठा चर्चा" के प्रति विश्वास  जगा है |
बहुत बहुत धन्यवाद | 
                                                                                             आपका अपना
                                                                                             अनंत अन्वेषी
इसके बाद "चिठ्ठा चर्चा" के संयोजक श्री अनूप शुक्ल जी ने मुझे पत्र भेजा जो इस प्रकार है-

आदरणीय अनंत जी
कल  आपने    चिठ्ठा चर्चा में अपनी प्रतिक्रिया  देते हुए लिखा-
यह देखकर  बहुत ख़ुशी हुई कि "चिठ्ठा चर्चा" ने .........................चिठ्ठा चर्चा के प्रति विश्वास जगा है |
आपकी प्रतिक्रिया का आभारी हूँ | आपकी प्रतिक्रिया के बाद मैंने आपकी दूसरी पोस्ट भी पढ़ी | आपकी बहू की पहल पर आपका जन्मदिन मनाने वाली बात पढ़कर बहुत अच्छा लगा | आपकी उस पोस्ट का जिक्र मैनें आज की चर्चा में किया |
मैं ब्लॉगजगत में पिछले पांच से अधिक वर्षों से हूँ | मैंने देखा है यहाँ कोई गिरोह काम नहीं करता | अंततः लोग यह देखते हैं कि आपकी अभिव्यक्ति कैसी है |
जंहा तक चर्चा की बात है तो मैंने आपकी पोस्ट पढ़ी मुझे बहुत अच्छी लगी तो मैंने अपनी ख़ुशी के लिये इसका जिक्र किया |
चर्चा के सम्बन्ध में मैनें दो पोस्ट लिखी थीं देखियेगा |
आप नियमित लिखें और महीने के स्थान पर सप्ताह में एक पोस्ट लिखें तो अच्छा होगा | आपको लोग जानेंगे आप संवेदनशील हैं और धनात्मक विचार वाले भी |
सादर
अनूप शुक्ल


प्रवष्टियों  पर जो टिप्पणियाँ मिल रही हैं उससे उत्साहवर्धन तो जबरदस्त हो रहा है लेकिन कहीं डर भी लग रहा है कि मैं अनजाने में ऐसे मंच पर आ गया हूँ जंहा एक से एक दिग्गज काम कर रहे हैं |