होली रंगो से भरा हर्षौल्लास का त्योहार है लेकिन मेरे मन में इसके प्रति कभी उत्साह नहीं रहा। मैंने मन से कभी होली नहीं खेली। कोई मेरे पास आ गया, उसने गुलाल लगाया तो मैंने भी उसके ही गुलाल में से एक चुटकी लेकर उसके माथे पर गुलाल लगा दिया। बस हो गयी मेरी होली।
इस बार तो होली का उत्साह हमारे पूरे परिवार में ही नहीं था क्योंकि चार माह पूर्व ही मेरी पत्नी का निधन हुआ है। हम भले ही किसी के यहाँ होली मिलने नहीं गये लेकिन कुछ लोग हमारे यहाँ होली खेलने व मिलने अवश्य आये। उनमें से एक अभिन्न परिचित रहे योगेश पांडे। योगेश अभी नवयुवक है। वह हमारे परिवार का एक सदस्य सा हो गया है।
होली के दिन मैं, अपनी पुरानी आदत के अनुसार पुराने पत्र-पत्रिकाओं की छँटनी कर रहा था कि अचानक योगेश मेरे नजदीक आया। मैंने उसके हाथ में गुलाल की पुडिया देखी। मैं समझ गया कि वह मुझे गुलाल लगाना चाहता है। मैं गुलाल लगवाने के लिये आगे आया। उसने मेरे माथे पर गुलाल लगाया और चरण स्पर्श किये। मैंने भी उसकी पुडिया में से ही एक चुटकी गुलाल लेकर उसके माथे पर लगा दिया। वह मुझको देखकर मुस्करा कर चला गया।
योगेश के जाने के बाद बहु आराधना बोली - ''पापा, योगेश के पास गुलाल नहीं रंग था। देखो मेरे हाथ, मैंने गुलाल को पानी से साफ किया तो हाथ और मुंह लाल हो गये और साबुन से भी रंग नहीं छूट रहा ।
आराधना के ये शब्द सुनकर मैंने भी अपने माथे पर लगे गुलाल को पानी से साफ करना चाहा तो मेरे भी माथा और हाथ लाल हो गये, जो साबुन से भी साफ नहीं हुए। यह सब देखकर मुझे अन्दर से बहुत गुस्सा आया पर अपने गुस्से को शांत करके मैं फिर पत्र-पत्रिकाओं में खो गया।
दोपहर बाद होली का हुड़दंग जब ठंडा हुआ तो योगेश नहा-धोकर हमारे घर आया। मैंने उससे कहा - ''योगेश, तू झूठ बोलकर होली क्यों खेला ? सच बोलकर होली खेलने में क्या हर्ज था ? उसने जोर से ठहाका लगाया और हँसते हुए बोला - ''सच बता देता तो क्या आप गुलाल लगवाते ?
उसकी उन्मुक्त नेचुरल हँसी और उसके आनन्दित चेहरे को देख मेरे मन में भी आनन्द की गुदगुदी हुई और मुझे झकझोर दिया। मैं अपने पर शर्मिंदा होने लगा कि समाज में जिस हँसी ख़ुशी का माहौल पैदा करने के लिए हम ''बौद्धिक'' लोग अनगिनत रचनाएँ लिखते रहते हैं, वह क्षण जब सामने आया तो सब उल्टा-पुल्टा हो गया। एक नवयुवक अपने को ''बौद्धिक'' समझने वाले प्रौढ को मात दे गया।
तथाकथित बौद्धिकों और समाज के अन्य ऐसे ही लोगों की इस मानसिक स्थिति को महसूस करते हुए ही शायद 'हिन्दुस्तान' दैनिक समाचार पत्र में 20 मार्च 2010 (होली) के अंक में अखबार के प्रधान सम्पादक शशि शेखर ने -''हम होली पर भी हंसना भूल गये है'' शीर्षक से एक लेख लिखा है। लेख के प्रासंगिक अंश यहाँ प्रस्तुत हैं:-
तो आइए, कुछ हंसने-हंसाने की बात करते हैं। दुनिया के पैमाने पर हम भारतीय परंपरागत तौर पर कुछ रूखे-सूखे से माने जाते हैं। पिछले दो दशकों से मैं खुद अपने हमउम्रों के चहेरों पर से मुस्कुराहट गायब होते देख रहा हूं। क्या हंसने का रिश्ता जवानी से है ? ऐसा लगता तो नहीं। फिर हम हंसना क्यों भूल गए हैं ? क्या वजह है कि हमें हंसी खरीदनी पड रही है ? टेलीविजन पर कॉमेडी सीरियल सफलता का नुस्खा बन गए हैं। कुछ अखबार खबरों के पन्नों पर चुटकुले छापने लगे हैं।
आजकल हंसी अगर मन से नहीं उपजती, तो उसे आप खरीद सकते हैं। मुझे खरीदी हुई हंसी से कोई शिकायत तो नहीं, पर यह परंपरा पूरे समाज के लिए खतरनाक हो सकती है।
यही वजह है। शहर दर शहर हास्य क्लब खुलते जा रहे हैं, इकट्ठा होकर लोग हंसी आए बिना ही ठहाके लगा-लगाकर हंसते हैं। उन्हें देखकर अचंभा हो तो हों, पर यह सच है कि इससे उनके तनाव कम होते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 2005 तक मेडिकल साइंस तार्किक तौर पर नहीं जानती थी कि हंसने का हमारी रक्तवाहिनियों पर कितना बेहतर असर पड़ता है। उसी साल यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड मेडिकल सेंटर के शोधकर्ताओं ने पाया कि एक अदद हंसी हमारे लिए कितनी फायदेमंद है। हंसी और स्वस्थ धमनियों का बेहद महत्वपूर्ण रिश्ता है। पिछले छह सालों में हुए तमाम शोध यह साबित कर चुके हैं कि हँसना और गुंनगुनाना तमाम मर्जों की दवा है। इससे तनाव से लेकर अल्सर तक तरह-तरह के रोग दूर भगाने में मदद मिलती है।
तो आइए, इस होली पर यह संकल्प लेते हैं कि पिछले साल के मुकाबले कुछ ज्यादा काम करेंगे। कुछ ज्यादा हंसेगे और अपने आसपास के लोगों को भी हंसाएंगे।
बात रोते हुए बच्चे से शुरू की थी। निदा फ़ाज़ली के शेर के साथ खत्म करना चाहूंगा -
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
सच ही कहा है शशि जी ने अपने लेख में - आज हमें खुश रहने के लिए खुशियाँ ढूँढनी पड़ती हैं।
हमें खुशियाँ ढूंढने की जरूरत नहीं है। वे तो हमारे इर्द-गिर्द ही हैं। बस हमें महसूस करने की जरूरत है। हम तरह-तरह की अपनी उलझनों में इतने खोये रहते हैं कि खुशियाँ हमारे सामने से निकल जाती हैं और हम उन्हें महसूस नहीं कर पाते। अगर हम अपने आस-पास के सुन्दर वातावरण और लोगों की सुखद भावनाओं को समझें तो हमें उन पलों में ही खुशियाँ मिल जायेंगी और धीरे-धीरे ये हमारी आदत बन जायेगी। जब हम परेशानियों में भी खुश रहने लगेंगे तो यह आदत हमें मानसिक रूप से स्वस्थ्य रखने में मदद तो करेगी ही साथ ही परेशानियों से निकलने की ताकत भी देगी।
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