सत्य की खोज में

Monday, December 31, 2012

रतन टाटा की रतन टाटा न बनने की सलाह के मायने

  
देश के सबसे पुराने एवं अति प्रतिष्ठित टाटा उद्योग समूह के चेयरमैन रतन टाटा पद से सेवा निवृत्त हो गए। इस अवसर पर जब विश्वप्रसिद्ध शख्सियत रतन टाटा से किसी ने पूछा कि आपने अपने उत्तराधिकारी साइरस मिस्त्री को कोई सलाह दी है ? इस पर उन्होंने जवाब दिया ‘‘जब मैं चेयरमैन बना था तो सबने यही पूछा कि क्या आप अपने रोल माडल जे0आर0डी0 टाटा की तरह काम करना चाहेंगे ?’’ मैंने उस समय कहा था, ‘‘मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा। मैं अपने तरीके से काम करूंगा। अपने उत्तराधिकारी साइरस मिस्त्री से भी मैंने यही कहा है कि अपने निर्णय उनको स्वतः ही लेने होगें।’’ उनका आशय था कि वह रतन टाटा की नकल न करें। जो वह हैं वही बने रहकर कार्य करने की भरपूर कोशिश करें।
 

  रतन टाटा गत् दिवस-28 दिसम्बर 2012 को टाटा उद्योग समूह के चेयरमैन पद से 75 साल की उम्र में सेवा निवृत्त हुए। इस अवसर पर रतन टाटा अपनी उपलब्धियों के लिए मीडिया में काफी छाये रहे। रतन टाटा का उक्त विचार मेरे एक परिचित की समझ में नहीं आया तो उसने मुझसे पूछा -‘‘हमने तो यही पढ़ा और सुना है कि यदि जीवन में सफल होना है तो सफल व्यक्ति की तरह काम करना चाहिए, उनके बताये रास्ते पर चलना चाहिए। परंतु रतन टाटा तो अपने उत्तराधिकारी से कह रहे हैं कि कभी रतन टाटा बनने की कोशिश मत करना। यह विरोधाभास मेरी समझ में नहीं आ रहा है। मैंने उनसे से कहा - ‘‘प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशेष गुण एवं विशेष प्रतिभा होती है। प्रत्येक व्यक्ति की कोशिश होनी चाहिए कि वह अपने मौलिक गुणों-प्रतिभाओं को पहचाने और उसका भरपूर उपयोग करे। जो ऐसा करते हैं उनमें से ही बड़े उद्योगपति, राजनेता, समाजसेवी, साहित्यकार, खिलाड़ी इत्यादि अपने-अपने कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं। दूसरों की नकल करने वाले व्यक्ति सतही तौर पर सफलता तो पा लेते हैं परन्तु जीवन में बहुत आगे नहीं बढ़ पाते हैं। बहुत आगे बढ़ने के लिए दिमाग में नये-नये विचार आने चाहिए और वे तभी आते हैं जब आप मौलिक होते हैं, अपने मन की सुनते हैं, उस पर ईमानदारी से अमल करके कुछ नया एवं विशेष करने की सोचते हैं। यदि रतन टाटा अपने वरिष्ठ जे0आर0डी0 टाटा की नकल करने की कोशिश करते तो संभवतः वह इतनी उन्नति नहीं कर पाते।

हर व्यक्ति के सामने अलग-अलग परिस्थितियाँ होती हैं और हर क्षेत्र में उनकी प्रतिभायें भी समान नहीं होती हैं। उन परिस्थितियों और अपनी प्रतिभाओं के अनुसार अपने लिए वह अवसर एवं चुनौतियों को चिन्हित करता है। चुनौतियों से वह जूझता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति की समस्या के निदान का रास्ता अलग होता है।

 आवश्यक नहीं कि जिस रास्ते पर चलकर किसी सफल व्यक्ति ने समस्याओं का हल निकाला हो, उसी पर चलकर दूसरे व्यक्ति की समस्या भी हल हो जाए। इसलिए प्रत्येक प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने ढंग से सोचता है और अपने लिए रास्ता बनाता है। अपनी समस्याओं को हल करते समय दूसरे सफल लोगों से इस बात की प्रेरणा तो लेनी चाहिए कि जब अमुक व्यक्ति सफल हो सकता है तो मै क्यों नहीं हो सकता हूँ। लेकिन आँखें बंद करके किसी की नकल करने से सफलता हासिल नहीं होती। इसके लिए एक मुहावरा भी है - ‘‘नकल करो मगर अकल से’’। सफल लोगों के नुस्खों को तो ध्यान में रखना चाहिए पर उन रास्तों को नहीं जिन पर चलकर उन्हें सफलता प्राप्त हुई। अपनी समस्या को अपने ही ढंग से निपटाने की कोशिश करने से दिमाग तेजी से चलता है और समस्या या चुनौती बोझ नहीं लगती है। तनाव पैदा नहीं होता है बल्कि समस्या सुलझाने में आनंद आता है और वह नये-नये इतिहास रचता है। यदि रतन टाटा नकल करते तो वे अपने टाटा उद्योग समूह को इतनी बड़ी विश्वव्यापी तरक्की नहीं दिला पाते। उन्होंने अपने 21 साल के मुखिया कार्यकाल में टाटा उद्योग समूह को बहुत आगे बढ़ाया जो अपने आप में मिसाल है। अतः मिसाल कायम करने के लिए अपना रास्ता स्वयं बनाना होता है।   

इस समय दो परिचितों के चेहरे मेरे सामने घूम रहे हैं। जो बुद्धि में तेज हैं, खूब मेहनती हैं और दोनों एक ही संस्थान में कार्यरत हैं लेकिन उनकी उन्नतियों में जमीन आसमान का अन्तर हो गया है। जो युवक उन्नति की सीढि़याँ तेजी से चढ़ रहे हैं   वह स्थिर रह जाने वाले से उम्र में काफी छोटे हैं। और उस संस्थान में बाद में आये हैं। बाद में आने वाले युवक सबसे आगे निकल गये। जो हैसियत इस युवक ने संस्थान में बनाई दूसरे व्यक्ति उनसे भी आगे जा सकते थे। दोनों में अन्तर यही है कि उन्नति करने वाले युवक किसी की नकल नहीं कर रहे हैं। उनका ध्यान केवल अधिक से अधिक मेहनत करके और विभिन्न समस्याओं का अपने ढंग से निदान करके नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने पर है।

जो स्थिर रह गये वह हमेशा उस व्यक्ति की नकल करने की कोशिश करते रहे जो उन्हें थोड़ा भी सफल दिखायी दिया लेकिन वह कुछ ही समय में उससे ऊब जाते और फिर किसी दूसरे सफल व्यक्ति की नकल करने लगते। मैं देख रहा हूँ कि जो स्थिति उनकी शुरू में थी अब भी वही है और बाद में वह हतोत्साहित भी हो गये।
मुझे पूरा विश्वास है कि यदि यह व्यक्ति विभिन्न सफल व्यक्तियों की नकल करने की अपेक्षा अपने गुणों को पहचानते और उनका भरपूर उपयोग करने के लिए कड़ी मेहनत करते तो निश्चित रूप से चमत्कारिक उपलब्धियाँ हासिल करते और दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बनते।

यह व्यक्ति ही क्यों कोई भी वह व्यक्ति अकल्पनीय कामयाबी हासिल कर सकता है और दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बन सकता है जो अपने गुणों और प्रतिभाओं को पहचान कर उनका उपयोग करने के लिए भरपूर मेहनत करें। 

अपने मौलिक गुणों एवं प्रतिभाओं का उपयोग करके सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचने वालो में देश की प्रमुख हस्तियां - राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, शहीदे आजम़ सरदार भगत सिंह, महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चन्द्र बोस, महान साहित्यकार रविन्द्रनाथ टैगौर, महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन, नोबल पुरस्कार विजेता महान समाज सेवी मदर टेरेसा, महान उद्योगपति भारत रत्न जे0आर0डी0 टाटा, मिसाइल मैन एवं पूर्व राष्ट्रपति ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम, दुग्ध  क्रान्ति के जनक वर्गीज कूरियन, मैट्रोमैन ई0 श्रीधरन, विश्वविख्यात सितार वादक पं0 रविशंकर, क्रिकेट का भगवान माने जाने वाले खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर, महान पाश्र्व गायिका लतामंगेशकर, फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन इत्यादि हैं  । यह सूची और भी लम्बी बन सकती है लेकिन यहाँ पूरी सूची बनाना आवश्यक नहीं है। इन सभी महान हस्तियों ने सफलता पाने के अलग-अलग रास्ते अपनाए व विश्व में अपनी एक अलग पहचान बनाई।


इसीलिए रतन टाटा ने अपने उत्तराधिकारी को सलाह दी कि वह रतन टाटा बनने की अपेक्षा अपने मौलिक गुणों एवं प्रतिभाओं के अनुसार काम करें, ऐसा करेंगे तो वह रतन टाटा से भी आगे जा सकते हैं। यानि साइरस मिस्त्री, साइरस मिस्त्री बनकर ही रतन टाटा की कामयाबियों से भी आगे जा सकते हैं। यदि साइरस मिस्त्री रतन टाटा बनने की कोशिश करेंगे तो वह न रतन टाटा बन पाएंगे और न ही साइरस मिस्त्री रहेंगे।
                                  ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम                      प्रोफेसर यशपाल                          

इस विचार को एक दूसरे अन्दाज़ में एक विश्वविद्यालय में भारतरत्न  ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम की उपस्थिति में उनके गुरू प्रोफेसर यशपाल ने सफलता का गुरूमंत्र देते हुए विद्यार्थियों से कहा है-
                                                 ‘‘कलाम नहीं, कमाल के बनो’’।

Thursday, November 22, 2012

मैं और मेरी पत्नी


समाज में कई प्रकार के लोग होते हैं जिन्हें मैं तीन श्रेणियों में बांट रहा हूँ। प्रथम श्रेणी में वे लोग आते हैं जो दूसरों के लिये जीते हैं अर्थात जो हमेशा दूसरों की भलाई में लगे रहते हैं। दूसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो अपने सुखों  का भी ध्यान रखते हैं साथ ही दूसरों के सुख-दुख का भी ध्यान रखते हैं। तीसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो केवल अपने सुखों के बारे में ही सोचते हैं, उनको दूसरों के सुख-दुःख से कोई मतलब नहीं होता। प्रथम श्रेणी के लोगों को महान कहा जाता है। महानता का यह गुण अधिकतर महिलाओं की खूबी है। यह महानता किसी महिला को विश्वविख्यात समाज सेवी मदर टेरेसा बना देती है तो किसी के लिए यह मीठा जहर बन जाती है और धीरे-धीरे वह स्वयं ही उस मीठे जहर का शिकार हो जाती है। मेरी पत्नी भी महान थी लेकिन उसकी महानता उसे निगल गयी।

   मैंने और मेरी पत्नी ने एक साथ 37 साल का वैवाहिक जीवन बिताया। जिस समय हमारी शादी हुई उस समय मैं देहातनुमा एक कस्बे में साधारण सी नौकरी करता था और वह उस कस्बे से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर शहर में एक मशहूर फैक्ट्री में सम्मानजनक पद पर नौकरी कर रही थीं। शादी के बाद मैंने भी उसी शहर में नौकरी प्राप्त कर ली।

जब वह बी.एस.सी. की पढ़ाई कर रही थीं तभी उनके पिता का निधन हो गया। उस समय उनका छोटा भाई इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा था। घर के आर्थिक संकट को दूर करने के लिए ही उन्हें नौकरी करनी पड़ी। उनके पिता का सपना तो उन्हें डाक्टर बनाने का था।
  
 उनके परिवार की तुलना में मेरा परिवार उनके बराबर का नहीं था। उनका वेतन मुझसे ज्यादा था। एक वाक्य में कहा जाए तो वह हर मामले में मुझसे बीस थीं। केवल एक मामले में उन्हें उन्नीस कह सकते थे, मेरे मुकाबले में उनका कद थोड़ा छोटा था। लेकिन वह नाक-नक्श से सुन्दर थीं।


 वह अपना पूरा वेतन एवं बोनस बिना मांगे मुझे दे देती थीं। उन्होंने अपने वेतन का कोई पैसा कभी अपने पास नहीं रखा। उनका स्वयं का वेतन अच्छा खासा था। लेकिन उन्होनें कभी भी अपने गहनों, कपड़ों और श्रृंगार पर पैसे खर्च नहीं किए। उन्हें ज्यादा फैशन करना पसंद नहीं था लेकिन उनके कपड़े पहनने का एक सलीका था। जबकि मुझमें सलीके से कपड़े पहनने का तौर तरीका नहीं था। वह कपड़ों पर प्रेस करके मुझे पहनने को देती थीं। उनके प्रयास से मैं भी थोड़ा बहुत सलीके से रहने लगा।
 
  मौसम चाहे गर्मी, सर्दी का हो अथवा बरसात का, वह घर की साफ-सफाई एवं खाना तैयार करके घर से लगभग 07 किलोमीटर दूर फैक्ट्री में सुबह 8 बजे तक पहुँच जाती थीं। वह प्रतिदिन सुबह मुझसे पहले सोकर उठती थीं। उन दिनों गैस के चूल्हे नहीं थे। पत्थर के कोयले की अंगीठी जलायी जाती थी जिसमें काफी समय बरबाद होता था और उसके धुएं का सामना भी करना पड़ता था। शाम को 5 बजे फैक्ट्री की छुट्टी के बाद लगभग 6 बजे तक वह घर लौटती थीं। आने के बाद सुबह के कपडों को धोती थीं। उन दिनों कपड़े धोने की मशीन नहीं थी। इसके बाद फिर शाम के खाने की तैयारी करतीं। इन बातों को थोड़ा विस्तार में बतलाने का मतलब यह है कि वह बहुत ही कर्मठ थीं। घर के सभी कार्यों को वह स्वयं करती थीं। किसी भी काम के लिये वह कोई नौकरानी नहीं रखना चाहती थीं। वह मितव्ययी भी थीं। मैंने जोर जबरदस्ती करके दो बार नौकरानी को रखा तो उन्होने कुछ ही दिनों में किसी न किसी कारण से उसकी छुट्टी करा दी।


 उन्होने अपने खाने पीने पर भी कभी ध्यान नहीं दिया। स्थिति यह थी कि रात का खाना यदि थोड़ा बहुत बच जाता तो मुझे बिना बताए लंच बाक्स में रखकर ले जातीं। मतलब यह कि मुझे तो ताज़ा व अच्छा खाना बना कर देतीं मगर स्वयं बासी खाना खा लेतीं। वह अपनी सेहत का तनिक भी ध्यान नहीं रखती थीं।

परिवार की भलाई के लिए मानसिक व शारीरिक रूप से अत्यधिक काम करने और अपनी सेहत का ध्यान न रखने का यह नतीजा निकला कि शादी के कुछ साल बाद से ही वह बीमार रहने लगीं और उन्हे 15 साल बाद नौकरी भी छोड़नी पड़ी। नौकरी छोड़ने के बाद भी स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। जीवन के अंतिम चार वर्ष तो ऐसे बीते कि वह चारपाई से उठकर अपने बल पर खड़ी भी नही हो सकती थीं। अन्तिम चार माह में दो बार एक-एक सप्ताह के लिए वह कोमा (मूर्छित) में भी चली गईं।

जब डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया तो अन्तिम दिनों में उनकी दुर्गति को देखकर मेरे मुख से यह निकलने लगा कि या तो ईश्वर इन्हे ठीक कर दे वरना इस शरीर से मुक्ति दे दे। ईश्वर ने मेरी पहली प्रार्थना को अनसुनी कर दूसरे पर अमल किया।


उनका मन बहुत निर्मल था। वह बिना किसी छल-कपट के निडरता से बात करती थीं। उनमें आगे बढ़ने की क्षमताएं थीं। उनकी कम्पनी के मैंनेजिंग डायरेक्टर उन्हे अपना सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी मानते थे। उनके नौकरी छोड़ने पर उन्हें काफी दुःख हुआ था। वह समाचार पत्र-पत्रिका पढ़ने व टेलीविजन देखने का शौक नहीं रखती थीं। शायद इसीलिए उनकी सोच परिवार तक सिमट कर रह गयी थी।

    उनके जीवन का विश्लेषण करता हूँ तो महसूस होता है कि उन्होने जितना ध्यान परिवार की सुख-सुविधाओं का रखा यदि थोड़ा बहुत वह अपनी सुख-सुविधा पर भी रखतीं तो शायद वह इतनी जल्दी इस दुनिया से न जातीं और न ही उनके जीवन के अंतिम साल इतने कष्टदायक होते। वह हर प्रकार से सशक्त थीं लेकिन उनकी महानता ने उन्हे अशक्त बना दिया और यह महानता विष बनकर उन्हे निगल गयी।


जब वह गंभीर रुप से बीमार थीं तो मैंने नजदीकी कई लोगों से बात की। मैंने उनसे पूछा कि आखिर इतनी महान महिला को ईश्वर किस बात की सजा दे रहा है। मुझे एक ही जवाब मिला, ‘‘शायद यह पिछले जन्म के किसी कर्म का भोग हो’’। मुझे नहीं मालूम कि इस जवाब में कितनी सच्चाई है। लेकिन मैं यह अवश्य महसूस करता हूँ कि अत्यधिक परिश्रम करने वाली पूर्णतः समर्पित पत्नी का जितना ध्यान मुझे रखना चाहिए था उतना मैं नहीं रख पाया। यदि शादी के बाद से ही आवश्यकतानुसार उनकी परवाह की गयी होती तो वह बीमार ही नहीं पड़तीं।

  मुझे लगता है कि परिवार के प्रति ऐसी सेवा भावना और अपने प्रति लापरवाही अधिकांश महिलाओं में पायी जाती है। जो महिलाएं सूझबूझ से जीवन जीती हैं वे परिवार के साथ-साथ अपना भी भला करती हैं। यह सूझबूझ कम महिलाओं में दिखायी देती है। जो औरतें सिर्फ दूसरों के लिये जीती हैं उन्हें अपना भी ध्यान रखना होगा क्योंकि वे एक परिवार की स्तम्भ होती हैं जिसके गिरने पर पूरा परिवार टूट जाता है। पति व बच्चों के बारे में वे जो सपने देखती हैं वे भी अधूरे रह जाते हैं। अपने लिए नहीं तो कम से कम अपने पति व बच्चों के लिए ही उन्हें अपना ध्यान रखना चाहिए।


औरत जब अपने पति एवं परिवार की सेवा करती है तो साधारणतः पुरुष इसे पत्नी का फर्ज समझते हैं। इसीलिए पुरुषों को महिलाओं के प्रति जितना संवेदनशील होना चाहिए वह उतना नहीं हो पाते। हम पुरुषों को महिलाओं से उम्मीदें तो बहुत ज्यादा होती हैं लेकिन हम उनकी भावनाओं और परेशानियों की ओर उतना ध्यान नहीं दे पाते हैं जितना जरुरी होता है। पत्नी के प्रति इस लापरवाही का अहसास पुरुषों को तब होता है जब वे बीमार पड़ना शुरु होती हैं और समय से पूर्व उनका जीवन समाप्त हो जाता है। उनके न होने पर परिवार बुरी तरह प्रभावित होता है। खासकर बच्चे। बच्चों के लिए माता-पिता दोनों ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं, इसलिए पुरुषों को भी इस मामले में विशेष ध्यान देना होगा।

Sunday, October 14, 2012

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नाम खुला पत्र

Shri Manmohan Singh
आदरणीय मनमोहन सिंह जी,
आपके
व्यक्तित्व पर आजकल बहुत उंगलियां उठ रहीं हैं। आप पर लगे आक्षेप जब मैं कहीं पढ़ता हूँ या किसी से सुनता हूँ तो मुझे बहुत पीड़ा  होती है। मैं चाहता हूँ कि आप कुछ ऐसे कार्य करें जिससे लोग आपकी दिल से प्रशंसा  करें। इसके लिए आपको केवल एक सुझाव देना चाहता हूँ। मुझे उम्मीद है कि यदि आपने उस पर अमल किया तो देश  का बहुत भला होगा और आपका नाम भारतीय इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जायेगा।

आदरणीय मनमोहन सिंह जी, आप बेहद ईमानदार, विद्वान एवं कर्मठ व्यक्ति हैं। इन गुणों को तो आपके राजनैतिक विरोधी भी मानते हैं और ये सभी गुण किसी एक व्यक्ति में होना बहुत बड़ी  बात है। आखिर क्या कारण है कि इतना गुणी व्यक्ति आज देश  का प्रधानमंत्री है और देश  के लोगों से प्रशंसा पाने के बजाए उपहास का पात्र बना हुआ है। इसका
मुख्य कारण है कि आज देश  की जनता हर दिन बढती मंहगाई और भ्रष्टाचार  से इतनी त्रस्त है कि उसका जीना दूभर हो गया है।

मेरा ऐसा विश्लेषण  है कि शायद  आज आप अपनी अन्तरात्मा की आवाज को अनसुनी कर रहे हैं और अपने पद पर प्रभावशाली  नहीं रह गये हैं। अपने अधीनस्थ भ्रष्ट मंत्रियों एवं नौकरशाहों  पर अंकुश  नहीं लगा पा रहे हैं। मुझे इसके तीन कारण नजर आते हैं - पहला - आपका विनम्र स्वभाव, दूसरा - गठबन्धन की सरकार और तीसरा - कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी के प्रति आपका कुछ ज्यादा वफादार होना।

मैं समझता हूँ कि आप इस उम्र में अपनी विनम्रता को नहीं छोड  सकते और विनम्रता कोई अवगुण भी नहीं बल्कि सद्‌गुण ही माना जाता है। यह सद्‌गुण उस समय अवगुण बन जाता है जब कठोर बनने की आवश्यकता  हो और व्यक्ति विनम्र बना रहे। इसका दुष्ट  लोग नाजायज  फायदा उठाते हैं। व्यक्ति को अपने पद के अनुरूप अपना दबदबा बनाना पडता है। जो व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाते हैं उसके अधिनस्थ अपनी मनमानी करने लगते हैं और जब व्यक्ति देश  का प्रधानमंत्री हो तो संपूर्ण देश  को उसका खामियाजा भुगतना पडता है। लगता ही नहीं कि देश  में कोई प्रधानमंत्री है और उसकी कोई आवाज भी है।


जहाँ तक गठबन्धन सरकार की मजबूरियों और सोनिया गांधी के प्रति वफादारी की बात है तो मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि राजनैतिक गठबन्धन की बिल्कुल परवाह न करें और न मैं यह कह रहा हूँ कि आप सोनिया गांधी के प्रति वफादार न रहें। सोनिया गांधी ने यदि आपको प्रधानमंत्री बनाया है तो उनके प्रति वफादारी भी होनी चाहिए। लेकिन ये सब एक सीमा तक ही ठीक है। इसके लिए यदि आपने कोई सीमा तय नहीं की तो एक दिन ऐसा आयेगा कि आप कहीं के नहीं रहेंगे। न आप प्रधानमंत्री के पद पर रह पायेंगे और न आप कोई इतिहास रच पायेंगे।


कभी-कभी तो लोगों को ऐसा लगता है कि अब आपकी प्राथमिकता सुशासन  के स्थान पर अधिक से अधिक दिनों तक प्रधानमंत्री के पद पर बनें रहना है। इससे आप कांग्रेस की गठबंधन सरकार में गैर नेहरू परिवार से होते हुए ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री बने रहने का इतिहास तो रच देंगे लेकिन देश  की जनता को इससे कोई मतलब नहीं। इतिहास में वहीं व्यक्ति अमर होता है जो महान काम करता है वह नहीं जो अधिक दिन तक शासन  करे। इससे स्थिति तो यहाँ तक आ सकती है कि लोग आपको नफरत की निगाह से देखने लगें। ऐसा होगा तो शायद  मुझे सबसे ज्यादा दुख होगा क्योंकि मैं किसी ईमानदार व्यक्ति का पतन देखना नहीं चाहता हूँ।

कुछ लोगों का यह कहना है कि सरकार का रिमोट सोनिया गांधी के हाथों में है और जाने-अनजाने मनमोहन सिंह सोनिया गांधी के 'यसमैन' हैं, इसलिए मनमोहन सिंह चाहकर भी कुछ अपने मन से नहीं कर पा रहे हैं। यदि इसमें सच्चाई है तो आपको इससे बाहर निकलना होगा। आपको सोनिया गांधी से ज्यादा देश  की जनता के प्रति वफादारी निभानी होगी। प्रधानमंत्री का पद सम्भालने से पहले आपने यही शपथ  ली थी। इसलिए आप सोनिया गांधी के सामने हर समय नतमस्तक न रहें। मेरा ऐसा अनुभव है कि कोई भी समझदार व्यक्ति जी हजूरी करने वाले व्यक्ति को अन्दर से पसन्द नहीं करता। यदि आप सोनिया जी या गठबन्धन की पार्टी के नेता के सामने उनकी गलत बातों का ससम्मान विरोध करेंगे और अपना कोई अच्छा सुझाव देंगे तो उसे वे अवश्य  मानेंगे क्योंकि इसी में उनकी भी भलाई है। जब जनता के बीच सरकार की छवि खराब होगी तो सरकार ही नहीं बचेगी और ऐसा कोई नहीं चाहेगा।


मेरा मानना है कि ईमानदार व्यक्ति से ही भ्रष्टाचार  पर अंकुश  लगाने की उम्मीद की जा सकती है। जो खुद भ्रष्ट होगा वह भ्रष्टाचार पर अंकुश  नहीं लगा पायेगा।
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अतः आपको मेरा केवल एक सुझाव है कि आप देश की केग यानि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक , केंद्रीय सतर्कता आयोग, भारत चुनाव आयोग एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इत्यादि संवैधानिक संस्थाओं तथा सभी मंत्रालयों के प्रमुख पदों पर ईमानदार, योग्य, कर्मठ एवं देश  के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा रखने वाले व्यक्तियों को नियुक्त करने और कराने का भरपूर प्रयास करें। न केवल ऐसे लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठायें बल्कि उन्हें यथा सम्भव सहयोग दें और दबंग लोगों से उनकी रक्षा करें जिससे वे बिना किसी डर के निष्पक्षता  व स्वतन्त्रता के साथ कार्य कर सकें। यदि आप इसमें कामयाब हो गये तो भ्रष्टाचारियों  पर आपको अंकुश  लगाने की आवश्यकता  नहीं पड़ेगी। स्वतः अंकुश  लग जायेगा और श्रेय आपको मिलेगा। ऐसा नहीं है कि अच्छे लोग अब अपने देश  में नहीं है, जरूरत है तो उन्हें तलाश  कर आगे लाने की।

मैं यह भी महसूस कर रहा हूँ कि देश की मौजूदा राजनैतिक एवं प्रशासनिक  स्थितियों में आपके लिए इस सुझाव पर अमल करना इतना आसान नहीं होगा। आपको हर तरफ से विरोध झेलना पड़ेगा । लेकिन इतिहास के पन्नों में ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिन्होंने विपरीत परिस्थितयों में भी सराहनीय काम किये हैं।
इसके लिए इतिहास में से ऐसे लोगों को ढूढने की जरूरत नहीं है, आप स्वयं भी इसके उदाहरण हैं जब आपने विपरीत माहौल में दृढ  इच्छा शक्ति  व हिम्मत से अपनी मनमानी की। इसी शासन  काल में जब अमेरिका से न्यूक्लीयर डील का मामला था तो आप उसे भारी राजनैतिक विरोध के बावजूद संसद में पास कराकर ही माने। उस समय आपने अपनी सत्ता भी दांव पर लगा दी थी और वर्तमान में भी काफी राजनैतिक विरोध के बावजूद रिटेल ट्रेडिंग में एफ. डी. आई. को लागू करा रहे हैं।


मेरा मामना है कि जिस सूझबूझ से आपने अपने उक्त मामलों पर अमल कराया यदि उसी कौशलता से मेरे सुझाव पर अमल करेंगे तो देश  से भ्रष्टाचार मिट सकता है और मंहगाई कम हो सकती है। इससे देश  आपको हमेशा सम्मान भाव से याद करेगा। आप का नाम
देश के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जायेगा।

आपका शुभेच्छु
अनन्त अन्वेषी

Friday, August 31, 2012

मैं और मेरे माता-पिता


मेरे पोते के नामकरण संस्कार पर तैयार हुई वीडियो फिल्म को मैंने अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर देखा और सबने आनन्द लिया। लेकिन उसे देखते हुए कई बार मैं इतना भावुक हो गया कि मेरी आंखों से आँसू छलक आये। दरअसल उस वीडियो फिल्म को आकर्षक बनाने के लिए उसके निर्माता ने उसमें कई फिल्मी गाने डाल रखे थे। उनमें से तीन गाने ऐसे थे जो माँ-बाप और बच्चे की भावनाओं को प्रकट कर रहे थे कि माँ-बाप अपने बच्चे के पालन-पोषण के दौरान कितने कष्ट उठाते हैं और बच्चे से किस प्रकार की आशाएं करते हैं। उस समय मैं इस सोच में डूब गया कि मैंने अपने माता-पिता की आशाओं  पर कितना ध्यान दिया और उनको कितना पूरा किया।
वे फिल्मी गाने थे -


1. माँ की भावनाएं
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू
जीती हूँ मैं, बस तुझे देखकर, इस टूटे दिल का सहारा है तू
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू
तू खेले, खेल कई, मेरा खिलौना है तू - .....................
जिससे बंधी हर आशा मेरी, मेरा तो सपना सलोना है तू
नन्हा सा है, कितना सुन्दर है तू, छोटा सा है, कितना प्यारा है तू
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू
मुन्ने तू, खुश है बड़ा, तेरे गुड्‌डे की शादी  है आज - .........................
मैं वारी रे, मैं बलिहारी रे, घूँघट में गुडिया को आती है लाज
यूँ ही कभी, होगी शादी तेरी, दुल्हा बनेगा कुँवारा है तू
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू
पुरवायी बन में उड़े , पंक्षी चमन में उड़े  - .......................
राम करे, कभी होके बड़ा , तू बनके बादल गगन में उड़े    
जो भी तुझे, देखे वे ये कहे, किस माँ का ऐसा दुलारा है यह
चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू।

2. पिता की भावनाएं
तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा
मैं कब से तरस रहा था, मेरे आँगन में कोई खेले
नन्हीं सी हँसी के बदले, मेरी सारी दुनिया लेले
तेरे संग झूल रहा है, मेरी बाँहों में जग सारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा
आज ऊँगली थाम के तेरी, तुझे मैं चलना सिखलांऊ
कल हाथ पकडना मेरा, जब मैं बूढा हो जाऊँ
तू मिला तो मैने पाया, जीने का नया सहारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा
मेरे बाद भी इस दुनिया में, जिन्दा मेरा नाम रहेगा
जो भी तुझको देखेगा, तुझे मेरा लाल कहेगा
तेरे रूप में मिल जायेगा, मुझको जीवन दोबारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा
तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा
मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा।


3. बच्चे की भावनाएं
तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, प्यारी-प्यारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
ये जो दुनिया है, ये वन है काँटों का, तू फुलवारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
दुखने लागी हैं, माँ तेरी अंखियाँ, मेरे लिए जागी है तू सारी-सारी रतियाँ
मेरी निदियां पे, अपनी निदियां भी, तूने वारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
अपना नहीं तुझे, सुख-दुख कोई, मैं मुस्काया तू मुस्कायी
मैं रोया, तू रोयी, मेरे हँसने पे, मेरे रोने पे, तू बलिहारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
माँ बच्चों की, जां होती है, वो होते हैं किस्मत वाले जिनके माँ होती है,
कितनी सुन्दर है, कितनी शीतल है, न्यारी-न्यारी है,
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ
तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, प्यारी-प्यारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ



इससे पहले भी कई बार इन गानों को सुन चुका हूँ। लेकिन कभी भी इनके बोल को इतनी गम्भीरता से नहीं सुना और न ही माँ-बाप का खयाल आया।
मेरे माता-पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं। वे दोनों मूलतः गांव वासी थे। मेरा जन्म भी एक गांव में हुआ था। मैं जब एक या दो वर्ष का था तो पिताजी ने एक कस्बे में जाकर व्यापार शुरू किया और मेरी पढ़ाई भी कस्बे में ही हुई। स्वयं शिक्षित न होने पर भी मेरे माता-पिता ने मेरा दाखिला स्कूल में कराया। अन्य अभिभावकों की तरह मुझे पढाना उनका मकसद था। कक्षा पांच उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने मेरा दाखिला कक्षा 6 में एक इण्टर कालेज में करा दिया। अगले वर्ष मैं कक्षा सात में पहुँचा तो एक परिचित की सलाह पर उन्होंने मुझे उस इन्टर कालेज से निकालकर एक जूनियर हाईस्कूल में डाल दिया। इसका कारण पिता जी ने मुझे उस समय बताया था कि चूंकि जूनियर हाईस्कूल में कक्षा आठ की परीक्षा बोर्ड की होती है इसलिए तुझे बोर्ड की परीक्षा पास करने का अनुभव हो जायेगा जो फिर इन्टर कालेज में कक्षा दस की बोर्ड परीक्षा में काम आएगा।
कक्षा सात तक मैं पढाई में साधारण था। न कभी फेल हुआ, न कभी फर्स्ट आया। जूनियर हाईस्कूल में दाखिला लिया तो वहां भी अन्य छात्रों के मुकाबले में साधारण ही था। उस स्कूल के प्रधानाध्यपक रात में अपने घर पर छात्रों को स्वयं पढ़ाते थे। एक-एक छात्र पर ध्यान देते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरे अन्दर इतना निखार आ गया कि मैं कक्षा आठ की बोर्ड की परीक्षा में न केवल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ बल्कि स्कूल में प्रथम स्थान प्राप्त किया और जनपद की मेरिट लिस्ट में भी स्थान पाया।
इसके बाद फिर एक इन्टर कालिज में दाखिला करा दिया गया। यहाँ भी हाईस्कूल की यू.पी. बोर्ड परीक्षा प्रथम श्रेणी में तीन विषयों में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की और गणित में तो 100 में से 97 अंक प्राप्त किये।


जब मैं कक्षा दस में था तो पिताजी दूर एक गांव में जाकर व्यापार करने लगे और मैं आगे की पढ़ाई के लिए इसी कस्बे में रह गया। ट्यूशन करके आगे की पढाई  शुरू की और मैं जल्दी ही पढाई  के साथ नौकरी करने लगा। कुछ समय बाद मेरी शादी पास के शहर में एक प्रतिष्ठित परिवार की लड़की से हो गयी। वह एक बड़ी  फैक्ट्री में सम्मानजनक पद पर नौकरी करती थी। मैंने भी उसी शहर में जाकर नौकरी शुरू कर दी। कहने के लिए मैं शहरी  बन गया। लेकिन मेरा रहन-सहन, चाल-ढाल आज तक शहरी न बन सका।
इस प्रकार मैं अपने माता-पिता से अलग रहने लगा। कभी मैं उनके पास मेहमान की तरह जाता और कभी वे मेहमान की तरह मेरे पास आते।
मैंने अपने माता-पिता को कभी भी किसी भी बात के लिये दोष नहीं दिया लेकिन मुझे उनके प्रति कभी लगाव महसूस नहीं हुआ। इसका कारण समझ में नहीं आता। जबकि मेरा गाँव व कस्बे के वातावरण में लालन-पालन हुआ है। जहाँ बच्चों में माता-पिता के प्रति काफी श्रद्धा रहती है। इसी प्रकार के संस्कार भी मिले हैं। मैंने श्रवण कुमार की वह कहानी भी पढ़ी है जिसमें वह अपने माता-पिता को कांवर पर लेकर पैदल तीर्थाटन कराता है। मैंने रामायण भी सुनी है। जिसमें राम अपनी माता कैकेयी की इच्छा का पालन करते हुए अपना राजतिलक न कराकर 14 वर्ष का वनवास भोगते हैं।


उन्होंने मेरी शिक्षा व नौकरी की कोई योजना नहीं बनायी क्योंकि उन्हें खुद इन बातों की समझ नहीं थी। उन्होंने मुझे कोई विशेष सुख-सुविधा नहीं दी क्योंकि वे खुद अपनी आर्थिक स्थिति को कभी नहीं सुधार पाये। शायद  इन्हीं कारणों से मेरा उनके प्रति लगाव नहीं बन पाया हो और मैंने कभी उनकी भावनाओं को नहीं समझा हो। हालांकि मुझे इसका कभी कोई दुख नहीं हुआ कि मेरी इन्जीनियरिंग या मेडिकल जैसी कोई प्रोफेशनल शिक्षा क्यों नहीं हुई और कोई प्रोफेशनल डिग्री ली होती तो कोई बड़ी नौकरी मिल जाती। मैं जब हाईस्कूल (विज्ञान वर्ग) में था तो विज्ञान या गणित की पुस्तकों को देखकर सोचता था कि मैं बड़ा होकर शिक्षक बनूं और पुस्तकें लिखूं। कुछ बड़ा हुआ तो वैज्ञानिक बनने की इच्छा होने लगी। इसके बाद तो इच्छायें अनगिनत हो गयीं। इनमें से कुछ पूरी हुईं, कुछ पूरी नहीं हुईं। काफी समय से एक इच्छा बहुत प्रबल है कि अपने को जानूं कि मैं क्या हूँ? क्या कर सकता हूँ? और क्या करना चाहिए।

जब इस वीडियों के गानों को सुना तो न मालूम क्यों इतनी आत्मग्लानि हुई। महसूस होने लगा जैसे उनकी परवाह न करके मैंने कोई बड़ा अपराध किया हो। मन में विचार उठने लगे कि भले ही वे मुझे इतना न दे पाये हों जितना देना चाहिए। लेकिन उनकी वजह से मैंने इस दुनिया में आंखें खोली और आज भी शरीर से तथा दिल-दिमाग से स्वस्थ हूँ। जो मन में आ रहा है वह कर रहा हूँ। इस दुनिया को देख पाने का श्रेय उन्हीं को जाता है।

मैं सोच रहा हूँ कि यदि वे जुआरी, शराबी आदि होते तो मेरा जीवन कैसा होता। उनमें यदि दुनिया की समझदारी नहीं थी तो उनमें दुनिया का कोई एैब भी तो नहीं था। क्या मुझे इसका लाभ नहीं मिला। जब मैं छोटा था तो क्या समझदार और सम्पन्न माता-पिताओं की तरह ही उन्होंने मेरा ध्यान नहीं रखा। पिता व बाबा के अनुभवों से गुजरने के बाद यह कहा जा सकता है कि माँ-बाप गरीब हों अथवा अमीर, साधारण हो अथवा असाधारण सभी अपने बच्चों की परवरिश  में अपने स्तर से कोई कमी नहीं करते हैं। खुद भूखे सो जायेंगे मगर बच्चों को भूखा नहीं सोने देंगे। खुद के तन पर कपड़े कैसे भी हों मगर बच्चों को अच्छे से अच्छा पहनाएंगे। खुद चाहे कभी स्कूल न गये हों मगर बच्चों को भरपूर पढ़ाएंगे । बच्चे को जरा सी तकलीफ हुई कि माँ-बाप की नींद उड  जाती है। उसके लिए बड़ी से बड़ी चीज कुर्बान कर देते हैं। इतने पर भी यदि कोई बच्चा बड़ा होकर यह कहे कि उन्होंने मेरे लिए क्या किया है। मैं तो सेल्फमेड हूँ। मेरे विकास में मेरे माता-पिता का कोई योगदान नहीं है, मैं जो कुछ हूँ अपनी बुद्धि व मेहनत के बल पर हूँ। तो यह उसकी कृतध्नता ही होगी।

सभ्य व्यक्ति उसे माना जाता है जिसे यदि कोई व्यक्ति थोड़ी  सी भी मदद करता है तो वह उसका शुक्रगुजार  हो। न केवल शब्दों में शुक्रिया व्यक्त करे बल्कि समय आने पर वह भी उसकी मदद के लिए तत्पर रहे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्ति को अपने माता-पिता का कितना शुक्रगुजार  होना चाहिए।

मुझे इस समय एक मित्र याद आ रहा है। वह मित्र अपने माता-पिता को ईश्वर से भी ज्यादा मानता है। उसका मानना है कि ईश्वर को तो उसने देखा नहीं है, माता-पिता को तो उसने साक्षात्‌ देखा है। माता-पिता अपने बच्चे की भलाई के लिए जितना करते हैं, उतना कोई नहीं कर सकता। वह मित्र कुछ भी खाने से पहले अपने माता-पिता को उसी प्रकार खिलाता है जैसे कोई भक्त अपने भगवान को भोग लगाकर कुछ खाता है। वह मित्र अपने लिए कोई भी कपड़ा खरीदने से पहले अपने माता-पिता के लिए खरीदता है।
अपने माता-पिता के प्रति शुक्रगुजार  होने की यह शायद चरम सीमा है।

Tuesday, May 1, 2012

समारोह ने आइना दिखाया

घर पर किसी समारोह का आयोजन होने पर लोग अपने सभी परिचितों को न्यौता अवश्य  भेजते हैं। परन्तु कुछ लोग निमंत्रण को उतनी गम्भीरता से नहीं लेते जितना लेना चाहिए। निमंत्रण को गम्भीरता से न लेने के दुष्परिणाम  निकलते हैं। इसका अहसास मुझे हाल ही में अपने यहाँ सम्पन्न एक समारोह में हुआ।
  
  गत्‌ दिनों मेरे यहाँ एक समारोह का आयोजन हुआ था जो हर मायने में आशा  से अधिक सफल रहा। समारोह के बाद सभी लोग खुश  दिखायी दे रहे थे। लेकिन मैं अन्दर से कहीं खिन्न था। मुझे कुछ लोगों की अनुपस्थिति कचोट रही थी क्योंकि मैंने बहुत ही चुन-चुनकर निमंत्रण दिया था। मुझे विश्वास था कि ये सभी लोग अवश्य आएंगे।

  मैं समारोह में अनुपस्थित लोगों को बार-बार भूलने का प्रयास कर रहा था। लेकिन जब भी यह सोचता कि हो सकता है उनके सामने कोई विपरीत परिस्थिति बन गयी हो जिसके कारण वे नहीं आ सके तो तुरन्त ही यह विचार भी मन में आता कि वे फोन करके बधाई तो दे ही सकते थे और न पहुंच पाने का कुछ कारण ही बताते। ऐसा करने से मुझे लगता कि उन्हें मुझ से प्रेम है और वे मेरी ख़ुशी  में शामिल  होना चाहते थे लेकिन परिस्थितिवश  नहीं आ सके। एक-दो लोगों ने ऐसा किया भी। उनके प्रति मन में कोई कटुता पैदा नहीं हुई। बल्कि ऐसा लगा जैसे वे भी समारोह में मेरे साथ हैं। जिन्होंने ऐसा नहीं किया उनके प्रति मन में तरह-तरह के कटु विचार घुमड़ने लगे।

अचानक मुझे ध्यान आया कि कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण मैं भी तो कुछ निमंत्रणों में शामिल  नहीं हो पाया था और किन्हीं कारणों से उन्हें फोन भी नहीं कर पाया। जबकि मैं सम्बन्धों को निभाने का भरपूर प्रयास करता हूँ। लेकिन निमंत्रण के मामलों में वह गम्भीरता तो मुझमें भी नहीं दिखायी दी थी। आज समारोह ने मुझे वह आईना दिखा दिया और मुझे समझ में आया कि मेरे अन्दर यह कितनी बड़ी कमी है जो दिखाई नहीं देती लेकिन अपना प्रभाव छोडती है। इस प्रकार की लापरवाही से सम्बन्ध कमजोर होते हैं, नष्ट होते हैं। जबकि जीवन में सम्बन्धों का बहुत महत्व है और सम्बन्धों को बनाए रखने में मैं विश्वास  करता हूँ । इन्हें जतन से संजोकर रखने एवं निरन्तर सींचते रहने की आवश्यकता है|

Wednesday, April 25, 2012

प्रेम और नफरत भी पैदा करते हैं उपहार


शुभ अवसरों पर उपहार ले जाने की हमारी पुरानी परम्परा है जिसे हमने आज भी जीवित रखा हुआ है। परन्तु अब हमारी सोच बदल गयी है। ये उपहार अब हमारी सोच के अनुसार प्रेम और नफरत भी पैदा कर रहे हैं।

गत दिवस मेरे घर पर पोते के जन्म के उपलक्ष्य में प्रीतिभोज का आयोजन था। इसमें शामिल होने वाले लोगों ने नवजात शिशु को उपहार दिये। इन उपहारों में अधिकांशतः विभिन्न प्रकार के खिलौने व रंग-बिरंगे कपड़े थे। कुछ लोगों ने बच्चे के उपयोग के लिए साबुन, तेल, पाउडर आदि के पैकेट दिये तो कुछ ने दूध पीने के लिये थर्मस इत्यादि, लिफाफों में बंद नकदी और चांदी के जेवरात भी मिले।

अगले दिन पूरा परिवार एकसाथ बैठा और उपहारों के सभी पैकेट्‌स व लिफाफे खोले गये। प्रत्येक उपहार पर चर्चा हुई। उपहारों की कीमत रूपयों में आंकी गयी। यह देखा गया कि उपहार जिसने दिया है वह परिवार के किस सदस्य का निमंत्रित था और उसके उससे कितने गहरे सम्बन्ध हैं। यह भी देखा गया कि उपहार देने वाले की आर्थिक स्थिति कैसी है और हमने उसके यहाँ किसी शुभ अवसर पर कितनी कीमत का उपहार दिया था।
अन्त में उपहार देने वालों को तीन श्रेणियों में बांटा गया। एक श्रेणी वह रही जिसमें जिससे जितने बड़े उपहार की उम्मीद थी उससे लगभग उतनी कीमत का उपहार मिला अर्थात उम्मीद पूरी हुई। दूसरी श्रेणी वह रखी गयी जिसमें जिससे जितनी उम्मीद नहीं थी, उससे कहीं ज्यादा कीमत वाला उपहार मिला यानि के उम्मीद से ज्यादा मिला। ऐसे लोगों के प्रति अपनापन बढ़ा, प्रेम पैदा हुआ। तीसरी श्रेणी में वह लोग रहे जिनसे जितनी उम्मीद थी उनसे बहुत कम कीमत वाला उपहार मिला अर्थात उम्मीद से कम मिला। ऐसे लोगों के प्रति अपनत्व में गिरावट आयी। स्थिति तो यह भी रही कि एक दो व्यक्ति के प्रति नफरत सी देखने को मिली।
यह सब देखकर मुझे बड़ा आश्यर्य हुआ। इसकी चर्चा मैने अपने एक मित्र से की तो उसने कहा - ''आपके घर में जो उपहारों पर चर्चा हुई इसमें आश्यर्य की कोई बात नहीं है, प्रायः घरों में ऐसा होता है।'' फिर भी मैने परिवार के उन लोगों को, जो उपहार देने वालों को आर्थिक कसौटी पर तोल रहे थे, समझाया कि उपहारों को इस प्रकार नहीं आंकना चाहिए। उपहार में अपनापन होता है इसको मुद्रा की तराजू में नहीं तोलना चाहिए। उपहार देने वाले की भावना देखनी चाहिए उसकी कीमत नहीं। दूसरी बात सम्बन्ध बनने में बहुत समय लगता है। सम्बन्ध समाप्त तो एक सेकेण्ड में हो सकता है। सम्बन्ध तभी टिकाऊ बनते हैं जब उन्हें धन से न आंका जाय। जहाँ जीवन में सम्बन्धों को आर्थिक आधार पर देखा जाता है वहाँ सम्बन्ध ज्यादा समय तक नहीं चलते। कहा भी जाता है कि वह व्यक्ति गरीब नहीं होता जिसके पास धन नहीं है बल्कि वह व्यक्ति गरीब होता है जिसके पास दोस्ती, रिश्ता  और सम्बन्ध नहीं है। अतः सम्बन्धों को हमेशा  न केवल बचाकर रखना चाहिए बल्कि इनमें प्रगाढ ता लाने का प्रयास करते रहना चाहिए। कम कीमत के जिन उपहार देने वालों के प्रति नफरत पैदा हो रही थी उन्हीं के प्रति प्रेम भी पैदा हो सकता था यदि उन्हें मानवीय पहलू से देखा जाता।

Sunday, March 18, 2012

एक अनूठा उपहार


22 फरवरी 2012। किसी सम्बन्धी अथवा परिचित व्यक्ति की ख़ुशी  के अवसर पर अपनी ख़ुशी प्रकट करने का बेहतर तरीका है उपहार देना। उपहार देने वाला व्यक्ति उपहार देते समय अपनी व सामने वाले की हैसियत, पसन्द-नापसन्द एवं परिस्थिति को ध्यान में रखता है। इसलिए उपहार प्रायः औपचारिकता निभाते प्रतीत होते हैं। प्रायः उनमें भावना की कमी दिखती है।
    ऐसे माहौल में भी कभी-कभी उपहार इस प्रकार का दिया जाता है जो उपहार पाने वाले के दिल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है। मेरे साथ भी आज ऐसा ही हुआ।
    दो दिन पूर्व, 20 फरवरी 2012 सोमवार महाशिवरात्रि  के दिन मुझे पौत्र रत्न प्राप्त हुआ। मैं पहली बार दादा बना। प्रायः लोग बधाई देते समय कह रहे हैं कि आपके घर में तो भोले शंकर का जन्म हुआ है। इस प्रकार की बधाइयों को सुनकर बहु-बेटा भी गदगद हैं। बच्चे के जन्म के दौरान बहू को बड़े  आपरेशन से गुजरना पड़ा । इसलिए हम अभी भी अस्पताल में ही हैं। अस्पताल में दिन-रात बच्चे की देखभाल बहु आराधना की बड़ी बहन अर्चना कर रही है। मौसी के बारे में कहा जाता है  कि वह माँ सी होती है। अर्चना जिस मनोयोग से बच्चे की देख-भाल कर रही है उसे देखने के बाद मैं भी इस बात से सहमत हूँ।
    जब से बच्चा पैदा हुआ है उसे देखने वालों का तांता लगा हुआ है। बच्चे को आर्शीबाद  के साथ-साथ कुछ उपहार भी मिल रहे हैं। हांलाकि अस्पताल में उपहार देने का चलन नहीं हैं लेकिन यहाँ कुछ लोग ऐसा कर रहे हैं। कोई नकद रूपये दे रहा है तो कोई फूल का बुके या ...............। इसी क्रम में आज श्री रत्नाकर सिंह आये। उन्होंने बच्चे को आर्शीबाद देते हुए एक मिठाई का डिब्बा दिया। मैंने डिब्बा खोला तो उसमें मोतीचूर के लड्‌डू के साथ तुलसी के पत्ते भी थे। डिब्बे पर हनुमान मन्दिर, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद का पता छपा था। यह सब देखकर मैं समझ गया कि यह मिठाई सिविल लाइन्स के हनुमान मन्दिर परिसर से खरीदकर हनुमान जी को भोग लगवाकर लाई गयी है। यह जानकर मुझे इतनी ज्यादा ख़ुशी  हुई कि आँखें भी नम हो गयीं। श्री सिंह के इस महान भाव को देखकर मन में बार-बार यही विचार उठता रहा कि गला काट प्रतियोगिता वाले इस घोर स्वार्थी समाज में ऐसे भी लोग हैं जो किसी परिचित के इतने बड़े  शुभचिंतक  हो सकते हैं।

श्री सिंह से मेरा परिचय लगभग डेढ़ साल पूर्व एमवे की वजह से हुआ। वह उत्तर प्रदेश सरकार में सिविल इंजीनियर के पद पर सेवारत हैं। इनकी पत्नी श्रीमती किरन सिंह मल्टी नेशनल कम्पनी एमवे में सिल्वरपिन होल्डर हैं। एमवे से जुड़े  किसी भी शख्स  के लिए यह बहुत सम्मानजनक है। श्री सिंह अपनी पत्नी को एमवे में सहयोग करते हैं।
    श्री सिंह अस्पताल में हमारे साथ लगभग आधा घन्टा रहे। इस दौरान उन्होंने बड़े  इतमिनान से बातें कीं। इस दौरान आखिर मैंने भी उनसे पूछ ही लिया कि क्या आप किसी को मिठाई देते हैं तो ऐसा ही करते हैं अर्थात मन्दिर जाकर ईष्ट को भोग लगाने के पश्चात् किसी को देते हैं। इस पर उन्होंने कहा - ''सभी अवसरों पर ऐसा नहीं होता है। इससे पहले केवल दो-तीन ऐसे अवसर आये हैं। आज यहाँ आते समय अचानक मन में विचार आया कि रास्ते में सिविल लाइन्स वाला प्रतिष्ठित हनुमान मन्दिर पड़ेगा, क्यों न यहाँ हनुमान जी से बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना करते हुए ही उसके पास जाया जाये।'' उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते  हुए कहा - ''मेरा मानना है कि यदि आप खुश  रहना चाहते हैं तो दूसरों की ख़ुशी  के लिए काम करिये और उनकी ख़ुशी  के लिए ईश्वर से प्रार्थना भी करिये। दूसरे खुश  रहेंगे तो आप भी जरूर खुश  रहेंगे।'' वह इस भावना पर किस प्रकार अमल करते हैं, इस सन्दर्भ में उन्होंने एक उदाहरण दिया। उन्होंने बताया - '' प्रत्येक सोमवार की शाम मीरापुर में श्री अनुराग कपूर के घर पर एमवे की होम मीटिंग में मैं पत्नी के साथ जाता हूँ। रास्ते में उनके घर के पास पहले माँ ललिता देवी का प्रतिष्ठित मन्दिर है। मन्दिर के पास पहुँचते ही कुछ क्षणों के लिए अपना मन माँ के चरणों में लगाता हूँ और उनसे प्रार्थना करता हूँ कि जिस सपने को पूरा करने के लिए श्री कपूर एमवे से जुड़े  हैं, वह अवश्य पूरा हो।''

    श्री सिंह के उपहार के पीछे काम करने वाले महान भाव और विचारों ने मेरे मन पर जो छाप
छोड़ी  उससे यह अनूठा उपहार तो हमेशा याद रहेगा ही साथ ही वह छाप उनके इस महान भाव और विचारों का अनुसरण करने के लिए भी प्रेरित करती रहेगी।

Friday, March 16, 2012

साठ साल की उम्र में पहली बड़ी ख़ुशी

20 फरवरी 2012। जीवन में यदि किसी को बड़ी-बड़ी  चीजें बिना संघर्ष  के आसानी से मिल जायें तो उसे उनके महत्व का पता नहीं चलता। और यदि छोटी चीज भी बहुत प्रयास व इन्तजार के बाद मिले तो वह बहुत बड़ी  लगती है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।

अनेक लोगों की शादी बहुत मुश्किल से होती है। शादी हो गयी तो बच्चे के लिए तरसते हैं। मगर मेरी शादी यूँ ही हो गयी। इक्कीस वर्ष की उम्र में दोस्त ने एक रिश्ता  बताया और हो गयी शादी। शादी भी ऐसी कि मानो ईश्वर  कह रहा हो कि बता तुझे क्या चाहिए, मैं सब दूँगा। पत्नी मुझ से ज्यादा शिक्षित , मुझ से ज्यादा वेतन व बड़े  पद वाली मिली। पत्नी का परिवार मेरे परिवार से हर मामले में इक्कीस नहीं बल्कि बाईस था।

शादी के बाद एक साल पूरा ही हुआ था कि हमारी जिंदगी में कोई तीसरा आ गया। एक नन्हा मुन्ना बच्चा। वह भी लड़का । इसके अलावा भी जीवन में कई ऐसी उपलब्धियां रहीं जिन्हें पाकर मुझे तो कोई विशेष ख़ुशी नहीं हुई लेकिन बहुत से लोगों को उन उपलब्धियों से ईर्ष्या जरूर हुई। वे उपलब्धियां चाहे मेरी नौकरी की रहीं हो या मान-सम्मान की या कोई और .............................................।
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आज 20 फरवरी 2012, दिन सोमवार को मुझे पौत्र रत्न प्राप्त हुआ । इसकी ख़ुशी मुझे इतनी ज्यादा हुई  कि अपने साठ साल के जीवन काल में मिली इससे पहले की सभी खुशियाँ  गौण नजर आ रही हैं। बेटे की शादी के चार साल बाद यह बच्चा पैदा हुआ है। चार साल की इस अवधि के दौरान जो देखने व सुनने को मिला उसके बाद मुझे लगता है कि यह उपलब्धि अब तक की सबसे बड़ी  उपलब्धि है।
बेटे की शादी को अभी एक साल पूरा भी नहीं हुआ था कि लोगों ने बच्चे के बारे में पूछना शुरू कर दिया। जिसके जिससे सम्बन्ध थे, वह उससे पूछता था। मेरे जिनसे सम्बन्ध थे, वे मुझ से पूछते - बाबा कब बन रहे हो ? मिठाई कब खिलाओगे ? बेटे से बेटे के परिचित पूछते -बाप कब बन रहे हो ? बहु से बहु के परिचित पूछते। मुझ पर तो इन पूछने वालों का कोई खास असर नहीं पड़ता था मगर बहु आराधना इन पूछने वालों से तंग आ गयी थी। आराधना ने अपनी एक निकट की सम्बन्धी से तो यहाँ तक कह दिया था कि अब आगे से फोन न करना और अगर करना भी हो तो इस सम्बन्ध में बातें न करना। लेकिन निकट की सम्बन्धी तो निकट की थीं वह कैसे इस सम्बन्ध में बात करनी छोड  दे। उसको लगता था कि यदि इसे कोई बच्चा न हुआ तो ससुराल वाले इसका जीवन दूभर कर देंगे। और यही डरावना दृश्य  वह आराधना के सामने रखती। तरह-तरह की सलाह देती कि किसी डाक्टर से इलाज कराओ, अमुक मन्दिर में जाकर मन्नत मांगो, ...........................इत्यादि। आराधना ने उससे यह भी कह दिया कि उसके ससुराल वाले ऐसे नहीं हैं। उन्होंने तो आज तक उससे कुछ भी नहीं कहा है। इसके बावजूद वह आराधना को तरह-तरह से इसके लिए अन्त तक समझाती बुझाती रही। उन्होंने हार नहीं मानी क्योंकि वह तो दिल से भला चाहने वाली उसकी सच्ची हितैषी थी। लेकिन अब आराधना को तो ये भले की बातें चुभने लगी थीं।
लगभग छः माह पूर्व एक शाम को जब मैं घर पहुंचा तो बेटे व बहु ने डाक्टर का एक पर्चा दिखाया जिस पर लिखा था - प्रेगनेंसी पोजीटिव। मैंने इसे पढ कर उनकी तरफ देखा तो उनके चेहरों पर भी इसकी ख़ुशी  साफ दिखाई दे रही थी। उन्हें खुश  देखकर मैं भी बहुत खुश  हुआ। मेरे घर में एक नये मेहमान ने अपने आने की दस्तक दी थी।
अब हम सभी उस दिन का इन्तजार करने लगे जब यह सब सही सलामत से हो जाये और यह अधूरी ख़ुशी  पूरी ख़ुशी  में बदल जाये।

आराधना हमारे परिवार में इस प्रकार रहती है जिससे पहली बार मिलने वाले लोग काफी समय तक समझ ही नहीं पाते हैं कि यह इस परिवार की बहु है या बेटी। उसके रहन-सहन में ही नहीं बातचीत में भी खुलापन है। वह अपने सुख-दुःख को मुझे इस ढंग से बताती रहती है कि उसे देखकर लगता है कि वह मेरी बहु क्या बेटी भी नहीं बल्कि दोस्त है।
जब से आराधना को पता चला कि वह प्रेग्नेंट है तब से वह खुश तो दिखाई देती लेकिन उससे कहीं ज्यादा भयभीत दिखती। भयभीत इसलिए कि उसे तो इंजेक्शन  लगवाना ही जीवन मरण जैसा लगता और यदि डेलीवरी के समय आपरेशन कराना पड़ गया तो उसका तो आपरेशन शब्द सुनकर ही हार्टफेल हो जायेगा।
इन छः महीनों में शायद ही कोई दिन ऐसा गया हो जब उसने अपने इस डर को व्यक्त न किया हो जबकि उसकी नियमित डाक्टरी जांच होती रही और डा० मीरा भार्गव उसे आश्वश्त  करती रहीं कि सब नार्मल चल रहा है। किसी प्रकार की चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। लेकिन चिन्ता तो ऐसी होती है कि वह मात्र किसी के समझाने से जाती नहीं है। वह तो तभी जाती है जब समस्या का निदान होता है। उसे निरन्तर चिन्तित देखकर मैं भी चिन्तित रहने लगा।

जैसे-तैसे छः माह भी बीत गये। आराधना को ड्‌यू डेट के आस-पास दर्द उठने लगे तो उसे अमरदीप अस्पताल में भर्ती करा दिया गया।
डा० मीरा भार्गव ने एक दिन तो प्रयास किया कि डेलीवरी नार्मल हो जाये। परंतु नार्मल डेलिवरी के आसार नजर न आने पर उन्होंने आपरेशन करने का निर्णय लिया। इसकी जानकारी जैसे ही आराधना को मिली तो उसके चेहरे की हवाइंया उड़ने लगीं, होठ सूखने लगें, हाथ-पैर कांपने लगे। उसे देखकर हम लोगों की भी हालत पतली हो गई। आराधना को वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने अपने-अपने ढंग से समझाया। डा० मीरा भार्गव ने भी काफी समझाया कि आपरेशन का पता भी नहीं चलेगा और दस पन्द्रह मिनट में सब हो जायेगा। बहुत प्रयास के बाद वह जैसे ही सामान्य हुई उसे नर्सें आपरेशन थियेटर में ले गयीं।

अभी आधा घन्टा भी नहीं हुआ था कि एक महिला सहायक आपरेशन  थियेटर से एक बच्चे को लेकर बाहर आयी और उसने हमसे कहा - "बधाई हो, लड़का हुआ है, आज महाशिवरात्रि है - आपके घर में भोले शंकर ने जन्म लिया है। इसकी माँ भी ठीक है। इसे लेकर आप ऊपर अपने कमरे में पहुंचिये। हम इसकी माँ को भी लेकर वहाँ आ रहे हैं"। बच्चे को देखकर और उस महिला के शब्दों को सुनकर मेरी आंखों से आंसू छलकने लगे। महिला बोली - "अरे आप रो रहे हैं ? खुश होइये। सब अच्छे से निपट गया"। लेकिन मेरी तो जुबान पर जैसे ताला लग गया हो। चाहकर भी मुंह से शब्द नहीं निकला। ऐसे में उसे कैसे समझाता कि ये ख़ुशी के आंसू है। अपने इन अनायास आए आसुंओं को देखकर समझ आ गया कि इससे पूर्व आराधना की बड़ी बहिन अर्चना की आंखों में भी आंसू क्यों आ रहे थे। अर्चना आपरेशन  थियेटर में ऐसी जगह खड़ी थी जहां से वह झांक कर देख लेती थी कि अन्दर क्या हो रहा है। जैसे ही उसे पता चला कि लड़का हुआ है और जच्चा-बच्चा दोनों ठीक हैं तो उसकी आंखों में भी आंसू आ गये। वह बताने के लिए हमारे पास आयी थी। लेकिन आँखों में आंसू लिए वह बिना कुछ बताये वापस अन्दर चली गयी थी। हम भी नहीं समझे कि वे ख़ुशी के आंसू थे। और उसके आंसू देखकर हम तरह-तरह की बुरी कल्पनाओं में खो गये थे।

खैर !  हम ऊपर कमरे में पहुंचे। पांच मिनट बाद ही आराधना को भी सहायकगण स्ट्रेचर पर लिटाकर कमरे में ले आये। उस समय आराधना को ग्लूकोज  में मिलाकर दवाइयां चढाई जा रही थीं। अभी वह गफलत में थी। बहुत प्रयास के बाद केवल थोड़ी सी आंखें खोलती और हाँ - ना में कुछ जवाब दे देती।
धीरे-धीरे दो-तीन घंटों में उसे पूरी तरह होश आ गया। अब वह अपनी तरफ से भी बताने लगी कि बिना किसी दर्द के आपरेशन हो गया। और जब बच्चा इस दुनिया में आ गया तो वहाँ उपस्थित डाक्टरों ने उसे खुश करने के लिए कहा कि देखो - "तुम्हें लड़का हुआ है, बहुत सुन्दर भी है, तुम यही चाहती थी न ? और देखो बेटा, पैदा होने पर सब बच्चे रोते हैं और तुम्हारा बच्चा - माँ-माँ कहकर चिल्ला रहा है। अनोखा है न"।

जब आराधना यह सब हमें बता रही थी तो उस समय उसका व मेरे बेटे (उसका पति) का चेहरा देखने लायक था। इनके चेहरों पर छायी खुशियाँ बहुत कुछ बयां कर रही थी। इनकी खुशियों को देखकर फिर से मेरी आंखों में आंसू छलक आये। ईश्वर को कोटि-कोटि प्रणाम। मेरा परिवार आज पूर्ण हो गया।