सत्य की खोज में

Saturday, December 28, 2013

आई0आई0एम0 लखनऊ के डा0 संजय कुमार सिंह को सबसे युवा प्रोफेसर बनने का गौरव


इलाहाबाद। देश के सर्वोच्च प्रबंधन - संस्थान "इन्डियन इन्सटीट्यूट आफ मैनेजमेंट " (आई0आई0एम0) लखनऊ में कार्यरत् अर्थशास्त्र के एसोसियेट प्रोफेसर डा0 संजय कुमार सिंह को सबसे युवा प्रोफेसर बनने का गौरव प्राप्त हुआ है। 40 वर्ष की उम्र में बने प्रोफेसर श्री सिंह अपने बैच में सबसे कम उम्र के हैं। कहा जा रहा है कि श्री सिंह इन्सटीट्यूट के सबसे युवा प्रोफेसर हैं ।

श्री सिंह ने अपने कैरियर की शुरूआत वर्ष 2001 में सेंट्रल इन्स्टीट्यूट आफ रोड ट्रांसपोर्ट, पुणे से फेकल्टी मेम्बर के रूप में की। इसके बाद एक्स0एल0आर0आई0, जमशेदपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त हुए। यहाँ से इसी पद पर आई0आई0टी0 कानपुर चले गये। कानपुर में लगभग पाँच वर्ष के अध्यापन के बाद आई0आई0एम0 लखनऊ में एसोसियेट प्रोफेसर के रूप में फरवरी 2008 में नियुक्त हुए।


यूँ तो श्री सिंह ने वर्ष 1995 में इन्स्टीट्यूट आफ इन्जीनियरिंग एण्ड टेक्नोलाजी लखनऊ से बी0टेक0 इलेक्ट्रीकल इन्जीनियरिंग में किया था। लेकिन इसके बाद वर्ष 1997 में नेशनल पावर ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट, दुर्गापुर से पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन थर्मल पावर प्लान्ट इन्जीनियरिंग करते हुए वर्ष 2003 में इन्दिरा गाँधी इन्स्टीट्यूट आफ डेवलपमेंट रिसर्च, मुंबई से डेवलपमेंट स्टडीज़/अर्थशासत्र में पी0एच0डी0 पूरी की।

इस दौरान श्री सिंह ने दो पुस्तकें लिखीं जो जर्मनी से प्रकाशित हुई हैं। इनमें से पहली पुस्तक वर्ष 2006 में ‘‘प्रोडक्टीविटी, कास्ट स्ट्रक्चर एण्ड प्राइसिंग इन अर्बन बस ट्राँसपोर्ट’’ शीर्षक से तथा दूसरी पुस्तक वर्ष 2010 में ‘‘प्रोडक्टीविटी एण्ड एफीसियेन्सी इन स्टेट ट्राँसपोर्ट अन्डरटेकिंग्स इन इन्डिया’’ शीर्षक से प्रकाशित हुईं। इनके देश-विदेश के जर्नल्स में लगभग 3 दर्जन रिसर्च पेपर्स प्रकाशित हुए हैं। लगभग इतनी ही राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय मीटिंग/सेमीनारों में भाग लिया और प्रेजेन्टेशन दिये  हैं। लगभग एक दर्जन रिसर्च एण्ड कन्सलटेंसी प्रोजेक्ट्स पर काम किया है।


श्री सिंह तीन छात्रों - नरान एम0 पिंदोरिया, मोहम्मद इरफान व सरोजीत दास के रिसर्च गाइड रह चुके हैं। इन तीनों छात्रों को पी0एच0डी0 की डिग्री मिल चुकी हैं। ये सभी शिक्षा के क्षेत्र में उच्च पदों पर कार्य कर रहें हैं। एक दर्जन से अधिक विभिन्न प्रतिष्ठित समितियों के चेयरमैन, सेक्रेट्ररी, कोआडिर्नेटर जैसे महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं। इस प्रकार इन्हें खासा प्रशासकीय अनुभव भी हासिल है।


6 मई 1973 को जन्मे श्री सिंह की शुरू से ही  प्रतिभाशाली छात्रों में गिनती रही है। उन्हें पढ़ाई के दौरान नेशनल एवं मेरिट स्कालरशिप मिली। इन्हें वर्ष 2000 में बेस्ट अर्टिकिल का  अवार्ड  मिला है। यह आर्टिकिल ‘इन्डीयन जर्नल आफ ट्राँसपोर्ट मैनेजमेंट'  के मई 2000 अंक में प्रकाशित हुआ था। श्री सिंह को वर्ष 2006 में ‘‘मानस चटर्जी अवार्ड फार एक्सीलेंस इन रिसर्च इन रीजनल साइन्स’’ से नवाजा गया। इस अवार्ड़ की स्थापना अमेरिका की बांघिमटन यूनिवसिर्टी के स्कूल आफ मैनेजमेंट में कार्यरत प्रोफेसर मानस चटर्जी ने की है।
         PHOTOGRAPH  WITH PROF. MANAS CHATERJI DURING AWARD FUNCTION

श्री सिंह का नाम वर्ष 2011 के मारकुइस हू इज हू इन दी वर्ल्ड  2011 में शामिल किया गया है। इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नासी-स्कोपस यंग साइन्टिस्ट अवार्ड और ‘नेशनल एकेडमी आफ साइंस आफ इन्डिया’ वर्ष 2012 के लिए अन्तिम चार चयनितों में सूची बद्ध किया गया।

गौरतबलब है कि इतनी कम उम्र में राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त श्री सिंह की इन्टरमीडिएट तक की शिक्षा हिन्दी माध्यम से हुई है। इनका पैतृक निवास जौनपुर (उत्तर प्रदेश) है। वहीं इनका जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा हुई।




श्री सिंह के पिता वीरेन्द्र प्रताप सिंह जौनपुर के एक जूनियर हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त हैं और समाज सेवा से जुड़े हैं। श्री सिंह चार भाई एवं एक बहन हैं। दो बड़े भाई - एक डा0 अजय सिंह आई0आई0टी0 पवई में सीनियर साइंटिस्ट है तथा दूसरे डा0 विजय प्रताप सिंह गवर्नमेंट पोस्ट ग्रेजुएट कालिज झालावाड़ (राजस्थान) में एसोसियेट प्रोफेसर हैं। बहन डा0 तरूणा सिंह, हिन्दी से पी0एच0डी0 हैं और छोटे भाई धनजंय कुमार सिंह एस0आई0एम0 में फेकल्टी मेम्बर हैं व सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे हैं । परिवार में पत्नी पूनम सिंह व दो बच्चे शिवेंद्र व सौर्या हैं। बहनोई आर0के0 सिंह शम्भूनाथ ग्रुप आफ इन्स्टीट्यूट्स, इलाहाबाद में चीफ एक्यूक्यूटिव आफिसर के पद पर कार्यरत हैं।


श्री आर0के0 सिंह से जब इस उपलब्धि पर अपनी टिप्पणी देने का आग्रह किया तो उन्होंने बधाई देते हुए कहा कि संजय सिंह प्रतिभाशाली हैं और शुरू से ही बहुत परिश्रमी हैं तथा शिक्षा क्षेत्र के लिए समर्पित हैं। उन्होंने बताया कि संजय सिंह की नियुक्ति दिल्ली ट्राँसपोर्ट में जी0एम0 के पद पर हो गयी थी लेकिन वह उसमें नहीं गये। जो व्यक्ति प्रतिभाशाली हो, परिश्रमी हो और किसी एक दिशा में पूरी तरह समर्पित हो वह जीवन में नये-नये कीर्तिमान स्थापित करता है। संजय सिंह इसकी मिसाल है। ये आगे भी कीर्तिमान स्थापित करेंगे।
जब इन पंक्तियो के लेखक ने संजय सिंह से फोन पर बातचीत की और जानना चाहा कि उनके जीवन का सपना क्या है तो उन्होंने बड़े सहज़भाव से कहा कि वह चाहेंगे कि शिक्षा के क्षेत्र में अधिक से अधिक ऐसा किया जाये जो देश व समाज के काम आये।

Monday, April 22, 2013

कुलपति विभूति नारायण राय द्वारा विद्यार्थियों को सफलता के लिये दिये गये कुछ टिप्स




सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं वर्धा (महाराष्ट्र) स्थित महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने इलाहाबाद स्थित शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट आफ इन्जीनियरिंग एण्ड टेक्नोलाजी के बी0टेक0 प्रथम व द्वितीय वर्ष के छात्र-छात्राओं के बीच गत दिनों वहाँ के मैनेजमेंट के आग्रह पर एक प्रेरक व्याख्यान दिया। व्याख्यान के बाद विद्यार्थियों ने प्रश्नों द्वारा उनसे अपनी जिज्ञासाएं  शान्त कीं। इस ज्ञानवर्धक, शिक्षाप्रद एवं प्रेरक व्याख्यान को सभी ने बहुत सराहा। यहाँ प्रस्तुत है उस व्याखान के सम्पादित प्रमुख लेकिन विस्तृत अंश -
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बच्चों को सम्बोधित करते समय मुझे हमेशा सत्यजीत राय की एक ट्रिलोजी याद आती हैं। तीन किताबों या फिल्मों की श्रृंखला को ट्रिलोजी कहते हैं। आप में से जो फिल्में देखते होंगे, जिन्होंने सत्यजीत राय को देखा होगा उन्हें याद होगा कि उनकी पाथेर पांचाली, अपराजितो, एवं अपूर संसार की एक अदभुत ट्रिलोजी है। इसमें एक फिल्म अपूर संसार है। अपूर संसार का मतलब अपू की दुनिया। अपू नाम का एक लड़का है। वह अपने जीवन में प्रवेश करने जा रहा है, तो फिल्म की शुरूआत में एक बड़ा मार्मिक दृश्य आता है कि एक बच्चा जो अब निकल रहा है अपनी यूनिवर्सिटी से, पास आउट कर रहा है और अब उसे अपनी दुनिया में प्रवेश करना है। तो वह अपने अध्यापक से मिलने आता है जो उसके सबसे प्रिय अध्यापक हैं। वह अध्यापक भी उस बच्चे को बहुत चाहते हैं। मकान की ऊपरी मंजिल के एक कमरे में दोनों बात कर रहे हैं। नीचे एक बड़ा जुलूस निकल रहा है, नारे लगाता हुआ, जिन्दाबाद-मुर्दाबाद करता हुआ। बातचीत में अध्यापक अपू से कहते हैं - देखो अभी तक तुम जिस दुनिया में थे वह बड़ी सुरक्षित दुनिया थी। तुम्हारे साथ तुम्हारे मां-बाप थे, तुम्हारे साथ तुम्हारे अध्यापक थे, इन्स्टीट्यूशन था जिसमें तुम पढ़ते थे। तुम्हें महीने का खर्चा तुम्हारे मां-बाप देते थे। तुमने कभी यह महसूस किया कि इसके बाद जो जीवन आने जा रहा है वह कैसा होगा ? वह जीवन बहुत कठिन और मुश्किल होने जा रहा है। उस जीवन में यह सारी सुरक्षा नहीं मिलेगी। तुम्हारे फैंसले तुम्हारे मां-बाप ले लेते थे। खर्च के लिए पैसे भेज देते थे। विद्यालय में तुम चाहे जितनी शरारतें करो, अध्यापक वहाँ होते थे, तुम्हें समझाते थे। तुम्हें मनुष्य बनाने की कोशिश करते थे। अब तुम्हें जीवन में खुद प्रवेश करना है। यह जो तुम्हारे सामने मुश्किल भरी जिन्दगी आ रही है उसका मुकाबला खुद करना है। मैं जो कह रहा हूँ आप यह मत सोचियेगा कि मैं आपको डराने के लिए कह रहा हूँ। यह जब फिल्म बनी थी वह साठ का दशक था। अबसे चालीस साल पुरानी वह दुनिया थी। वह पुरानी दुनिया जितनी मुश्किल थी, आज की दुनिया उससे ज्यादा मुश्किल है। मजेदार बात है कि जो दुनिया आपके सामने खुलने जा रही है वह पहले जैसी नहीं है। यहाँ बी0टेक0 सेकेंड ईयर के बच्चे बैठे हुए हैं। दो साल बाद, तीन साल बाद आपको जिस जगत में प्रवेश करना है उसमें सम्भावनाएं अकूत हैं। सत्तर के दशक में इतनी सम्भावनाएं नहीं थीं। हम सत्तर के दशक में जब पढ़ रहे थे तो, मुझे याद आता है कि हमारे सामने बहुत सीमित रास्ते थे। हमें उन्ही रास्तों से जाना था। उस समय इलाहाबाद में कम्पटीशन का बड़ा दौर था। इस समय जिन्हें सिविल सर्विसेज एक्ज़ाम कहा जाता है उस समय उन्हें आई.ए.एस. एटसेट्रा एक्जाम कहते थे। ज्यादातर लगभग 30 प्रतिशत बच्चे यहीं से आते थे। तो हमारे मन में आत्म-विश्वास रहता था कि जब ये आ गये तो हम भी आ जायेंगे।

 आज से जब सात-आठ साल पहले मेरा बेटा अपनी दुनिया में प्रवेश करने जा रहा था तो मैंने देखा कि उसके सामने अकूत सम्भावनाएं थीं। उसने सरकारी नौकरी के बारे में सोचा ही नहीं। चूंकि प्राइवेट सेक्टर, जो गैर सरकारी  स्पेस था वह इतना विविध हो गया था, इतना बढ़ गया था कि उसके सामने तमाम सम्भावनाएं थीं। तो जो मैं आपसे कह रहा हूँ कि यह समय पहले के मुकाबले ज्यादा मुश्किल है, इसकी विशेषता यह भी है कि इसमें सम्भावनाएं बहुत हैं। लेकिन इसके साथ जो सबसे बड़ी समस्या आ रही है वह यह है कि इसमें खास तरह की गला-काट प्रतिस्पर्धा है, खास तरह की प्रतियोगिता है। एक बड़ी निर्मम किस्म की प्रतियोगिता है। इसमें कोई आपकी मदद करने वाला नहीं है। कोई आपको रास्ते में हाथ पकड़ कर चलाने वाला नहीं है। इसमें आपको अपने रास्ते भी बनाने हैं और दिशा भी तय करनी है। यह दुनिया इतनी मुश्किल है कि यदि इसमें आप असफल हो जायें तो आपकी कोई परवाह नहीं करेगा।

हमारे समय में राज्य का बड़ा हस्तक्षेप होता था। राज्य शिक्षा की व्यवस्था करता था, राज्य स्वास्थ्य की व्यवस्था करता था। राज्य यह सुनिश्चित करता था कि कोई भूखा न मरे। लेकिन यह जो ग्लोबलाइजेशन का दौर आया हैं इसमें विचारधारा के अंत की बात कही जा रही है। कहा जा रहा है कि आप बड़े सपने मत देखो, इस दुनिया को बदलने की बात मत करो। इस दुनिया में जो लूट है उसमें अपना हिस्सा हासिल करने की बात करो। इसमें राज्य धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है। राज्य कह रहा है कि यदि आप अपना इलाज नहीं करा सकते तो आप मर जायें। आप बच्चे को पढ़ा नहीं सकते तो पढ़ाने की क्या जरूरत है। तो यह एक निर्मम किस्म की दुनिया है जिसमें आपको अपना रास्ता खुद बनाना है और मजेदार तथ्य यह है कि इसमें सम्भावनाएं भी इतनी अकूत हैं कि उसके बारे में अपने समय में हम सोच ही नहीं सकते थे। अगर हम इसे वेतन के अनुपात में लें तो जिस तनख्वाह पर मैं रिटायर हुआ उस तनख्वाह पर मेरे बेटे ने नौकरी शुरू की, मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता था कि इस तरह की नौकरियां भी मिल सकती हैं। लेकिन कितने लोगों को ऐसी नौकरियां मिल रही हैं। यह जो समय है जिसमें कहा जाता है कि हमें इतने लाख रूपये का पैकेज मिलेगा। वे कितने लोग हैं जो इस सपने को पूरा कर पा रहे हैं। बहुत कम हैं जो इस सपने को पूरा कर पा रहे हैं। और जो पूरा नहीं कर पा रहे हैं उनके लिये इस राज्य के मन में या समाज के मन में कोई दुःख दर्द नहीं बचा। कोई चिन्ता नहीं बची। अगर आप उस दौड़ में शरीक नहीं हुए तो आप किनारे होते जाइये। आप गड्ढ़े में गिरते जायें, आप हाशिये पर पहुंचा दिये जायें और आपके लिए कोई चिन्ता करने वाला नहीं। वह समय जो अपू के जमाने का समय था उससे भी ज्यादा मुश्किल समय है यह। अब इस मुश्किल समय के लिए अपने को खुद को तैयार करना है, इस लड़ाई में न सिर्फ आपको लड़ाई जीतनी है बल्कि इस लड़ाई में अपने को सर्वश्रेष्ठ दिखा करके लड़ाई को जीतना है। तभी आप जीत पायेंगे। इस समय में जो मीडियाकर है, वह इस लड़ाई में बहुत दूर तक नहीं जा पाता। इसमें जो श्रेष्ठ है, सर्वश्रेष्ठ है वही लड़ाई में आगे तक जा पाता है। तो इस लड़ाई के लिए आपको तैयार कौन करेगा ? कैसे आप तैयार होंगे ? इस लड़ाई के लिए जिस इन्स्टीट्यूट में आप पढ़ रहे हैं, इस प्रकार के इन्स्टीट्यूट ही तैयार कर सकते हैं। देखिये, इस समय हमें बहुत सारी चीजें बुरी लगती हैं। जिस समय हम छात्र थे, हमें भी बुरी लगती थीं। हमसे कहा जाता था कि यूनिफार्म पहन कर आओ, तो हम कहते थे कि नहीं, हम तो जीन्स पहनकर आयेंगे। क्लास यदि साढ़े नौ बजे शुरू होती थी तो कहा जाता था कि नौ बजकर पच्चीस मिनट तक क्लास में आ जाओ। लेकिन हम कहते थे कि नहीं, हमें दस या साढ़े दस बजे तक हाथ हिलाते हुए आने दिया जाये। हमें नकल करने की इजाजत दे दी जाये। अटैन्डेन्स के लिए हमसे कोई कुछ कहे नहीं। ठीक है। मैं थोड़ी देर पहले तिवारी जी (इसी इन्स्टीट्यूट के सचिव डा0 के0के0 तिवारी) से कह रहा था कि अगर आप एक ऐसी संस्था बनाएं जिसमें आप कहें कि हम तो इसमें खुलेआम नकल करायेंगे, आप को क्लास में आने की जरूरत नहीं, आप कहीं भी रहिये और डिग्री लेकर चले जाइये। लेकिन उस डिग्री का कोई अर्थ नहीं। आप यहाँ से जो डिग्री लेकर निकलेंगे उसके कोई अर्थ नहीं। आज आप इस हालत में हैं कि विश्वविद्यालय जो भी डिग्री देते हैं वह कागज के टुकडे़ से ज्यादा नहीं होती। मैं आपको नोएडा में बी0टेक0 पास लोगों को 4-5 हजार रूप्ये के लिए जिस प्रकार लेबर चैराहे पर मजदूर खड़े होते हैं, उस तरह से उन्हें खड़े हुए दिखा सकता हूँ। वे सारे उन संस्थाओं से पढ़कर आ रहे हैं जो संस्थाएं सिर्फ फीस लेती थीं, जो संस्थाएं घटिया किस्म के अध्यापकों से पढ़वाती थीं, जो संस्थाएं इस बात पर ध्यान नहीं देती थीं कि उनके बच्चे कक्षाओं में जा रहे हैं या नहीं, जो संस्थाएं नकल कराती थीं। वहां के लोग बी0टेक0 की डिग्री लेकर हाथ हिलाते हुए सड़क पर खड़े हैं, हजारो-लाखों की संख्या में। कोई पूछेगा नहीं इनको। अब हालत यह आ गयी है कि आप को बड़ी से बड़ी यूनिवर्सिटी भी डिग्री दे दे तो भी आपका एम्पलायर आपका दुबारा से टेस्ट लेगा। अपनी परीक्षा लेगा। हमारे समय में ऐसा नहीं था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय का मुझे याद है कि हम लोग जो कम्पटीशन में बैठ रहे थे उनमें बहुत सारे लोग थे जिनके घर की स्थिति ऐसी नहीं थी कि दो-तीन साल की तैयारी के लिए घर वाले पैसा दे दें। वे लोग ए0जी0 आफिस चले जाते थे। दूसरे दिन उनका अपाइन्टमेंट हो जाता था और वहाँ से जो 400-600 रूपया मिलता था उससे तैयारी करते थे। आज ऐसा नहीं है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय आपको 80-90 प्रतिशत अंक पाने की डिग्री थमा दे तो भी उसका कोई महत्व नहीं है। उस डिग्री का एक कागज के टुकड़े से ज्यादा महत्व नहीं रह गया। उसी तरह आपकी इस उत्तर प्रदेश टेक्नीकल यूनिवर्सिटी की जिसकी तैयारी आपका शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट करा रहा है, नकल करके डिग्री ले लीजिये, अच्छे नम्बरों की ले लीजिये। उस डिग्री का कागज के टुकडे से ज्यादा महत्व नहीं हैं। आपका एम्पलायर आपका दुबारा टेस्ट लेगा। दुबारा आपका इम्तहान लेगा। उस इम्तहान में वे ही पास हो पायेंगे जो यहाँ पर शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट में डिसीप्लीन है, पढ़ाने का जो तरीका है, जो सुविधाएं यहाँ मिली हुई हैं जो उनका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।

ये तीन-चार साल बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन तीन-चार सालों में आप खूब एन्ज्वाय कर सकते हैं और बाकी 40-50 साल में आप रोते रह सकते हैं। इन तीन-चार सालों में आप मेहनत करके अपने आगे के 40-50 सालों को सुरक्षित कर सकते हैं। एक ऐसे नागरिक का जीवन बिता सकते हैं जिसे सारी सुरक्षाएं मिली हुई हैं, जिसमें आर्थिक सुरक्षा भी हो, सामाजिक सम्मान भी हो और जो समाज के लिए उपयोगी भी हो। ये आप्शन आपके पास हैं। यहाँ के अध्यापक रोते रहें, कहते रहें, आप मत मानिये इनकी बात, मत पढि़ये। ये जो यूनिफार्म है यह तो एक छोटा सा सिम्बल है आपको फोकस्ड तरीके से सोचने का। आपका अभ्यास कराया जा रहा है। आप इसे मत मानिये। ठीक है, आप कहिये कि आप हमारी अटैन्डेन्स की चिन्ता मत करिये, यह तो हमारी चिन्ता है। हम भी तिवारी जी से आग्रह करेंगे कि इन्हे छोड़ दीजिये। इन्हें नकल भी करने दीजिये और इन्हें नम्बर भी खूब दे दीजिये। लेकिन इसे लेकर आप करेंगे क्या। इस डिग्री को आप हाथ हिलाते हुए लेकर जायेंगे, उसका होगा क्या। तो एक विद्यालय का, एक विश्वविद्यालय का, एक इन्जीनियरिंग कालिज का जो सबसे बड़ा योगदान हो सकता है वह तो यही है कि आपको फोकस्ड तरीके से तैयारी करने के लिए तैयार करें। आपको समाज में से जो चुनौतियाँ सामने आने जा रही हैं उनका मुकाबला करने के लिए तैयार करें। आपको वे औजार दे जिनके सहारे आप इस दुनिया में जो मुश्किल रास्ते हैं उनके कांटे और उनके झाड़ी-झंकार और उनके कंकरीले व पथरीले जो पथ हैं, उनको साफ करते चलें। अगर इसके लिये ये तैयार नहीं कर रहे हैं तो ये भी अपनी जिम्मेदारी से च्युत हो रहे हैं। और अगर आप इसके लिए खुद को जिस तरह के अनुशासन की जरूरत है उसके अनुरूप आप अपने को नहीं ढाल रहे हैं तो सबसे ज्यादा नुकसान तो आप अपना ही कर रहे हैं। मैं जो पाथेर पांचाली वाली ट्रिलोजी के अपू का उदाहरण दे रहा हूँ वह आपको निराश करने के लिए नहीं या आपको डराने के लिए नहीं कि यह तो बड़ी मुश्किल दुनिया है इसमें तो हम टिक ही नहीं पायेंगे। इस दुनिया में आप ही जैसे लोग टिक रहे हैं।

  मैं अभी एकेडमिक की दुनिया में पिछले 4-5 साल से आया हूँ। तो मैं ध्यान से जो कान्फ्रेंसेज होती हैं वहाँ पर समझने की कोशिश करता हूँ। जो पढ़ने की सामग्री मिलती है उसे पढ़कर समझने की कोशिश करता हूँ। उन्हें पढ़कर बड़ा अद्भुत सुख मिलता है कि ज्यादातर जो लोग अच्छा कर रहे हैं  वे आप ही जैसे लोग हैं जो छोटे शहरों से आये है। बड़े शहरों में दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता से निकले हुए बच्चे उतना अच्छा नहीं कर रहे हैं जितना इलाहाबाद, लखनऊ, भोपाल या इन्दौर के कर रहे हैं। इसकी वजह है कि यहाँ पर एक खास तरह की जिसे कह सकते हैं  कि फोकस्ड तरीके से उन्हें तैयार करने के लिए इक्विप किया जा रहा है। बड़े शहरों में आपको भटकाने के लिए बहुत तरह के रास्ते खुले हुए हैं । और नई पीढ़ी उसमें भटक रही है। आपको यह मौका मिला है। मैं समझता हूँ कि जितनी अच्छी सुविधाएं मैं यहाँ देख रहा हूँ मैंने कम जगहों पर देखी हैं। इतनी सुविधाएं मैंने तो अभी तक महाराष्ट्र में जहाँ मैं हूं, भी नहीं देखीं। वहां कालिजों में जाता हूँ, वहाँ बिल्डिंग तो बहुत शानदार दिखाई देती हैं लेकिन वहां की लाइबे्ररी और लेबोरेट्री में घुसते ही आप की समझ में आने लगता है कि बाहर से जो बहुत सुन्दर है उसके अन्दर जो कन्टेन्ट है, उसके अन्दर की विषयवस्तु में कहीं न कहीं लोच है।
  
यहाँ आपको बहुत बड़ी सुविधा मिली है और इतना सुरम्य माहौल है। चारों तरफ प्रकृति है। इलाहाबाद शहर न तो बहुत करीब है, न बहुत दूर है। करीब होता तो आपको भटकाता, दूर होता तो आपके लिए परेशानी पैदा करता। यहाँ तो आपको जम करके तैयारी करनी चाहिए। और अपने को जो ग्लोबल दुनिया बन रहीं, जो ग्लोबल विलेज में भारत तब्दील हो रहा है, उसके सम्मान जनक नागरिक बनने के लिए तैयार करना चाहिए।
 
 हालांकि मेरी उम्र में पहुंचे लोगों को अभ्यास हो जाता है और आनन्द आने लगता है कि अपने बाद की जेनरेशन वालों से कहने का कि आप यह करिये, यह मत करिये। मैं इस चक्कर में नहीं पडँूगा। लेकिन 2-3 चीजें बताऊँगा जो मुझे लगता है कि जो हर जेनरेशन के लिए जरूरी है। जब मैं तैयारी कर रहा था इन्होंने मेरी मदद की, और बाद में मेरे बेटे की मदद की। मैं उन 2-3 चीजों की तरफ आपका ध्यान आकर्षित करूँगा।
 
 एक तो पढ़ने की आदत डालिये। पढ़ने से मेरा मतलब यह नहीं है कि जो आपका विषय है सिर्फ उसे पढ़ने की आदत डालिये। इन्जीनियरिंग या टेक्नीकल शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों का विकास अक्सर  एकांगी हो जाता है। इनका समाज के लिए उपयोगी जो दूसरे विषय हैं उनके साथ उस तरह का रिश्ता नहीं हो पाता जिस तरह से हयूमिनिटीज या सोसल साइंसेज के बच्चों का हो जाता है। तो मेरा तो आपसे आग्रह है कि आप महीने में कम से कम एक उपन्यास पढ़ने की आदत डालिये। आप हिन्दी का पढ़ना चाहते हैं, हिन्दी का पढि़ये, अंग्रेजी का पढ़ना चाहते हैं, अंग्रेजी का पढि़ये, बांग्ला का पढि़ये चाहे जिस भाषा का पढि़ये। महीने में एक अवश्य पढि़ये। अखबार जितना ज्यादा से ज्यादा पढ़ सकें, पढि़ये। आपकी लाइब्रेरी बहुत अच्छी है तमाम अखबार व पत्रिकाएं आयी हुई हैं। जैसे ही समय मिले भागकर जाइये । वहाँ खूब पढि़ये। पत्रिकाएं पढि़ये। आपका जो अपना विषय है उसे कक्षाओं में पढ़ाया जा रहा है। परीक्षा के डर से आप अपने स्तर से भी पढ़ते ही हैं, लेकिन ये पत्रिकांए और किताबें आपको बेहतर इक्विप करेंगी। ये जो एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज होती हैं ये आपको बेहतर तरीके से भविष्य के लिए तैयार करेंगी। अगर आप की दिलचस्पी न भी हो तो भी दिलचस्पी पैदा कीजिये। क्रियेटिव राइटिंग में, उपन्यास में, कहानी में, कविता में, नाटक में इन सब में अपनी दिलचस्पी पैदा कीजिये और तय कीजिए कि महीने में एक साहित्यिक पुस्तक अवश्य पढ़ेंगे। आजकल आन लाइन भी हजारों लाखों पुस्तकें उपलब्ध हैं। तो अब आप यह भी शिकायत नहीं कर सकते कि यहाँ कोई ऐसी अच्छी दुकान नहीं है जहाँ साहित्यिक किताबें मिल सकें। अंग्रेजी की एक वेबसाइट है क्लासिकरीडरडाटकाम, इस वेबसाइट पर अब तक अंग्रेजी में जो कुछ भी महत्वपूर्ण लिखा गया है वह सब उपलब्ध होगा। हमारे विश्वविद्यालय की एक वेबसाइट है - हिन्दीसमयडाटकाम, उसमें 1 लाख से ज्यादा पृष्ठ हिन्दी के हम डाल चुके हैं। हर महीने कई हजार पृष्ठ और डालते जा रहे हैं। हम कोशिश कर रहे हैं कि हिन्दी में जो भी महत्वपूर्ण लिखा जा रहा है, वह सब इस पर आन लाइन उपलब्ध हो। मैंने जब नौकरी की शुरूआत की तो इलाहाबाद के पालिटेक्नीक में पढ़ाता था। उस समय तो ऐसी व्यवस्था थी कि इन्जीनियरिंग के विद्यार्थियों के लिए हयुमिनीटीज़ और साहित्य का भी सिलेबस में कुछ रहता था। मुझे पता नहीं कि अब आपके सिलेबस में है या नहीं। (बच्चों के द्वारा हाँ करने पर) अगर है तो बहुत अच्छी बात है। उसे आप आदत की तरह डेवलप कीजिए कि महीने में एक साहित्य की पुस्तक अवश्य पढ़ें।

 दूसरी बात जो आपके जीवन में काम आयेगी वह कम्यूनिकेशन स्किल है। और भाषा कम्यूनिकेशन स्किल का सबसे बड़ा टूल है। मैंने देखा कि यहाँ बहुत बड़े-बड़े सेमिनार हाल हैं। मुझे बताया गया कि यहाँ सेमिनार भी नियमित होते हैं। निश्चित रूप से यहाँ पावर प्रेजेन्टशन भी होते होंगे। इन सबसे कान्फीडेंस बिल्ड होता है। आपके अन्दर आत्म-विश्वास बढ़ता है। मुझे याद है कि मैं जब आपकी उम्र में था तो मेरी टांगे काँपने लगती थीं जब मैं मंच पर आता था। मैं ऊंट-पटांग बोलकर चला आता था। तो यह तो स्वाभाविक है कि आत्मविश्वास धीरे-धीरे आता है। कुछ ही ऐसे बच्चे होते हैं जो शुरू से ही सौ-पचास लोगों के सामने बोलना पड़े तो वे पूरे आत्म विश्वास से बोल लेते हैं। यह आत्म विश्वास आपका विद्यालय पैदा करेगा। वह मौका देगा आपको मंच से बोलने का। आप जायेंगे मंच पर। आप कुछ बोलेंगे तो कोई आपकी प्रशंसा करेगा, कोई टांगे खींचेगा। इस से आपका आत्मविश्वास बिल्ड होता है। लेकिन कम्यूनिकेशन स्किल आपको ही विकसित करनी होगी। कम्यूनिकेशन स्किल का सबसे महत्वपूर्ण अंग है भाषा। यह हिन्दी भी हो सकती है, इंगलिश भी हो सकती है। हिन्दी में आप बहुत अच्छा करें। मैं तो चाहूंगा कि हिन्दी सब की अच्छी हो। हिन्दी प्रयोग करने में गर्व अनुभव करें। लेकिन यह दुर्भाग्य है और इसे अब स्वीकार कर लेना चाहिए कि इससे हम बहुत दिनों तक अंग्रेजी से बच नहीं सकते। अंगे्रजी इस समय दुनिया की जरूरत बन गयी है। यह सिर्फ हमारी समस्या नहीं है। पूरी दुनिया अंग्रेजी से त्रस्त है। अंगे्रजी को लेकर एक खास  तरह का पाखंड हमारे व्यवहार में रहा है। जो लोग अंग्रेजी  हटाने के आन्दोलन में सन् 1967 में आगे थे उन्होंने लगभग सभी ने अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेज दिया। हमारी तो यह समस्या थी ही लेकिन जो जातियाँ अपनी भाषा से सचमुच बहुत प्रेम करती थीं और अंग्रेजी का विरोध करती थीं उनमें फ्रेंच  थे, रूसी थे, जर्मनी थे, जापानी थे, ये वे जातियां थीं जो अपनी भाषा से सचमुच बहुत प्रेम करती थीं, और वे अंग्रेजी से इतने आतंकित नहीं थे जितने भारतीय थे। इनमें चीनी भी थे। उन्होंने भी अब यह स्वीकार कर लिया है कि बिना अंगे्रजी जाने यह जो सिकुड़ रही दुनिया है जो ग्लोबल परिदृश्य है उसमें काम नहीं चलेगा। चीन ने तो 5 साल या 10 साल का एक प्रोग्राम घोषित किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि हम सभी चीनियों को अंग्रेजी सिखा देंगे। अभी हमारे विश्वविद्यालय में   इन्डियन सोशल कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। उसमें देश भर के सोशल साइन्टिस्ट आये थे। मैं उनसे कहता रहा कि हमारा हिन्दी का विश्वविद्यालय  है, आप कुछ पर्चे तो हिन्दी में पढ़ें। सारे पर्चे अंग्रेजी में पढ़े जा रहे हैं। हम हिन्दी में अपना पेपर क्यों नहीं पढ़ सकते ? इस बहस में वहाँ एक बड़े मजेदार बात पता चली कि कुछ साल पहले सोशल साइंस की दुनिया में अंग्रेजी का जो स्पेस था वह कुल 40 प्रतिशत था। जो जर्नल निकल रहे थे, पेपर पढ़े जा रहे थे उनमें केवल 40 प्रतिशत अंग्रेजी के होते थे। साठ प्रतिशत दूसरी भाषाएं थीं। रूसी थी, जर्मन थी, फ्रेंच  थी, चीनी थी। ये सारी भाषाएं थीं। उन्होंने बताया जिससे मेरी आंखे खुलीं कि अब वह स्पेस 40 से बढ़कर 70 से 80 प्रतिशत हो गया है और बाकी भाषाएं सिंकुड़ गयीं। जो देश अंग्रेजी का विरोध करते थे अब वे उसे स्वीकार करने लगे हैं। अब स्थिति यह आ गयी है कि हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम अपनी भाषाओं से प्यार तो करेंगे, अपनी भाषाओं को समृद्ध करने की भी कोशिश करेंगे और यह भी कोशिश करेंगे कि जो कुछ अंग्रेजी में अच्छा है वह हिन्दी में भी आ जाये। लेकिन अब हमें अंग्रेजी के महत्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा। तो बच्चों, मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि आप थोड़ा समय अंग्रेजी को भी दीजिये। जब आप जायेंगे किसी कम्पनी में कैम्पस सेलेक्शन के लिए और यदि आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं, अंग्रेजी में बात नहीं कर पाते हैं तो 50 प्रतिशत सम्भावना तो वैसे  ही खत्म हो गयी। अब जहाँ एक लड़का 50 नम्बर से शुरू कर रहा है वहाँ आपको जीरो से शुरू करना पड़ेगा। मैं तिवारी जी से कहूंगा कि अंग्रेजी पढ़ाने की अलग से भी व्यवस्था की जाये। आपको भी इसके लिए कोशिश करनी होगी। यह काम केवल विद्यालय नहीं कर पायेगा। आपके अन्दर इसके लिए इच्छा होनी चाहिए। जैसा मैंने शुरू में कहा था कि अधिक से अधिक अखबार व पत्रिकाओं को पढ़ें। कोशिश कीजिये कि उनमें अंग्रेजी के भी रहें। कम्यूनिकेशन की जो भाषा बनेगी वह अखबारों व पत्रिकाओं से बनेगी। 50-100 साल पहले की साहित्यिक भाषा बहुत काम नहीं आयेगी। आप देख रहे हैं कि भाषाएं तेजी से बदल रही हैं। एस0एम0एस0 की भाषा, इंटरनेट की भाषा को यदि इंग्लिश का अध्यापक देखेगा तो अपना सिर पीट लेगा। इसमें ग्रामर वगैरहा की ऐसी तैसी कर दी जाती है। मैंने खुद अंग्रेजी में एम0ए0    किया है, मुझे बड़ी समस्या आती है जब मेरा बेटा मुझे अंग्रेजी में पत्र लिखता है, उसके लिए ग्रामर, स्पेलिंग व सिन्थेसिस का कोई मतलब नहीं रह गया। लेकिन कम्यूनिकेशन के लिए यह भाषा जानना भी जरूरी है।
    

कम्यूनिकेशन स्किल डेवलप करने के लिए साहित्य से अपना रिश्ता अवश्य जोडि़ये और आदत डालिए कि महीने में एक उपन्यास अवश्य पढ़ेंगें। दो कविताएं गाकर सुनाएंगे। इन पर लड़के-लड़कियाँ आपस में चर्चा करें। एक दूसरे को बतायें कि मैंने यह पढ़ा और मुझे उसमें यह अच्छा लगा और क्या खराब लगा।

  तीसरी और अतिंम चीज है कि अपने मन में यह बिठा लीजिए कि ये जो आप शंभूनाथ इन्स्टीट्यूट में तीन-चार साल बिता रहे हैं ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। ये तीन-चार साल आपके अगले तीस-चालिस साल की जिन्दगी तय करने जा रहे हैं। इन 3-4 सालों में आप खूब इन्ज्वाय कर लीजिये। आप सोच लें कि बाप खर्चे के लिए पैसा भेज रहा है, इसमें आप खूब मस्त रहिये और बाकी 30-40 साल रोते रहिये या इन 3-4 सालों में आप फोकस तरीके से अपने आपको तैयार कीजिये और ये कड़वी दवा की तरह मानिये कि जो आपको यूनिफार्म पहनकर आने के लिए कहा जा रहा है आपसे कहा जा रहा है कि आप क्लास में समय से आओ, कहा जा रहा है कि इम्तहान में नहीं बैठने दिया जायेगा यदि अटैन्डेंस शार्ट होगी। ये कड़वी दवा है। इस कड़वी दवा को पीकर आप अगले 30-40 साल इन्ज्वाय कर सकते हो, एक अच्छा जीवन बिता सकते हैं। समाज में आप अपने को एक उपयोगी नागरिक के रूप में पा सकते हैं।

   मुझे ये बातें कहनी थीं कह दीं लेकिन मेरे कहे हुए को सच मत मानिये, जाइये, सोचिये, विचारिये। मेरा तो इसमें विश्वास है कि असली शिक्षा वह है जो आपको प्रश्नाकुल बनाये। मैं यही बात अपने विश्वविद्यालय में कहता हूँ। हम सवाल सोचना और पूछना शुरू करें। हमारे समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सामाने पायनियर अखबार के एक एडीटर रहते थे। वे कहते थे कि यदि किसी व्यक्ति के 5 डबलू दोस्त हैं तो कोई दुश्मन उसे हरा नहीं सकता। वे 5 डबलू थे -व्हाई (क्यों), व्हेयर (कहाँ),     व्हेन (कब), व्हाट (क्या), हू (कौन)। ये सवाल हैं । हमारे साथ दिक्कत यह है कि हमें सिखाया जाता है कि जो किताबों में लिखा है उसे सच मान लो। अध्यापक जो कह रहे हैं, उसे सच मान लो, मां-बांप जो कह रहे हैं, उसे सच मान लो। मैं मानता हूं कि यदि आपने सब की बातों को सच मानना शुरू कर दिया तो आप तरक्की नहीं कर सकते। आप सवाल पूछिये। जो बातें मैंने कहीं हैं उन पर विचार कीजिये। आपको लगता है कि यह बूढ़ा आदमी अपनी बकवास करके चला गया तो आप बिल्कुल मत मानिये। आप सवाल नहीं पूछेंगे और आपने इसलिए मान लिया क्योंकि मैंने कह दिया तो यह ठीक नहीं होगा। इस मामले में आप गौतम बुद्ध को हमेशा याद रखिये। गौतम बुद्ध ने कहा कि किसी भी बात को आंख मूंद कर मत मानो। हर बात को कसौटी पर कसकर देखो कि यह बात हमारे लिए, समाज के लिए उपयोगी है या नहीं। जो बातें आज मैंने आपके सामने रखीं उन पर मनन कीजिये। यदि उचित लगें तो उन पर अमल कीजिये अन्यथा उन्हें छोड़ दीजिये। धन्यवाद।


  व्याख्यान शुरू होने से पहले इन्स्टीट्यूट के सचिव डा0 के0के0 तिवारी, निदेशक प्रो0 के0पी0 सिंह, डीन स्टूडेंट वेलफेयर प्रो0 डी0पी0 अग्निहोत्री तथा डीन ट्रेनिंग एण्ड प्लेंसमेंट जे0पी0 मिश्रा ने बुके, अंगवस्त्रम् एवं स्मृतिचिन्ह भेंट करके श्री राय का स्वागत एवं अभिनन्दन किया। मुख्य प्रशासनिक अधिकारी आर0के0 सिंह ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन आशुतोष श्रीवास्तवन ने किया।

  व्याख्यान कार्यक्रम से पूर्व संस्था के सचिव डा0 के0के0 तिवारी ने श्री राय से परिसर में नवस्थापित डिस्पेन्सरी का उद्घाटन कराया एवं सभी संस्थाओं का निरीक्षण कराया।
 
 गौरतलब है कि 28 नवम्बर 1951 को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में जन्मे विभूति नारायण राय वर्ष 1975 बैच के यू0पी0 कैडर के आई0पी0एस0 अधिकारी हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग में सर्वोच्च पद डायरेक्टर जनरल के पद तक पहुँचने के बाद वर्ष 2008 में वर्धा (महाराष्ट्र) स्थित महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर सेवा शुरू की। विशिष्ट सेवा के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार तथा पुलिस मैडल से सम्मानित राय एक संवेदनशील पुलिस अधिकारी के साथ-साथ प्रगतिशील चिंतक तथा एक उच्च कोटि के कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनके द्वारा लिखित घर, शहर में कफ्र्यू, तबादला, प्रेम की भूतकथा तथा किस्सा लोकतंत्र हिन्दी के बहुचर्चित उपन्यास हैं। ‘शहर में कर्फ्यू’ हिन्दी के अलावा अंगे्रजी, पंजाबी, उर्दू, बांग्ला, मराठी आदि भाषाओं में अनुदित हो चुका है। तबादला पर उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान तथा किस्सा लोक तंत्र के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का सम्मान प्राप्त हुआ है। उपन्यासों के अलावा उनका व्यग्यं संग्रह एक छात्र नेता का रोजनामचा और संस्मरण हाशिम पुरा, उत्तर प्रदेश पुलिस के इतिहास का एक काला अध्याय बहुचर्चित रचनांए हैं। हिन्दी जगत की चर्चित पत्रिका वर्तमान साहित्य के पन्द्रह वर्षों तक सम्पादन के साथ समकालीन हिन्दी कहानियां का सम्पादन उनका उल्लेखनीय कार्य है।

Sunday, April 14, 2013

संजय दत्त के जीवन से सबक लेने की आवश्यकता





 देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट द्वारा फिल्म अभिनेता संजय दत्त को आर्म्स  एक्ट के अंतर्गत  दोषी मानते हुए 5 साल की सजा सुनाये जाने के बाद बालीवुड का नायक कानून की नजर में खलनायक बन गया।
 
सवाल यह है कि क्या वास्तव में संजय दत्त भीतर से खलनायक हैं। उनके गलत रास्ते पर चलने के कुछ और भी कारण हो सकते हैं जिनकी वजह से बार-बार वह राह भटक जाते हैं। कहीं कम या ज्यादा लाड़ प्यार या गलत सोहबत या फिर कुछ और कारणों ने तो उन्हें नहीं बिगाड़ दिया? आइये करते हैं इसकी पड़ताल और लेते हैं सबक -    
समाज में परिवारों की स्थितियों को देखते हुए उन्हें मोटे तौर पर तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। एक वे परिवार जिनके दम्पत्ति बहुत भले थे लेकिन उनकी सन्तान बुरी निकल गयी। दूसरे वे परिवार जिनके दम्पत्ति बुरे थे लेकिन उनकी सन्तान अच्छी निकल गयी और तीसरे वे परिवार जिनके जैसे दम्पत्ति रहे वैसी उनकी सन्तान निकली।

   तीसरे प्रकार के परिवारों को देखकर तो कोई आश्चर्य नहीं होता है और यह स्वाभाविक लगता है लेकिन पहले व दूसरे प्रकार के परिवारों को देखकर जरूर आश्चर्य होता है कि अच्छे दम्पत्ति की बुरी व बुरे दम्पत्ति की अच्छी सन्तान कैसे निकली। इसमें भी पहले प्रकार का परिवार ज्यादा कौतुहल पैदा करता है कि उसके बच्चे कैसे बुरे निकल गये जबकि प्रत्येक माता-पिता चाहते हैं कि उनकी सन्तान अच्छी निकले। 

    इस प्रकार के मामलों में दो धारणायें पायी जाती हैं। एक धारणा वह जो पूरी तरह कर्म में विश्वास रखती है। इसका मानना है कि व्यक्ति जैसा कर्म करेगा वैसा फल पायेगा। दूसरी धारणा उन लोगों की है जिनका विश्वास प्रारब्ध (पिछले जन्मों के कर्मों का शेषफल) में रहता है। इनका मानना है कि व्यक्ति कर्म तो करता है और करना भी चाहिए लेकिन जीवन में प्रारब्ध की भूमिका बड़ी होती है। इसके लिए एक कहावत भी है कि व्यक्ति को समय से पहले और किस्मत से ज्यादा कुछ नहीं मिलता।

    प्रारब्ध की धारणा को सिद्ध करना लगभग असम्भव है। यदि असम्भव न भी माने तो बहुत मुश्किल है, और गहराई में जाएँ  तो यह धारणा भी मूलतः कर्म पर ही आधारित है। इसलिए कर्म वाली पहली धारणा को केन्द्र में रखकर परिवारों का विश्लेषण करना उचित दिखाई देता है। 

    अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के माता-पिता चाहते हैं कि उनकी सन्तान अच्छी निकले। फिर क्या कारण रहता है कि बहुत से अच्छे दम्पत्ति की सन्तान बुरी निकल जाती है। बहुत से सफल-असफल दम्पत्तियों से बात-चीत और स्वयं के अनुभव व चिन्तन-मनन करने के बाद निष्कर्ष निकलता दिखाई देता है कि जिन दम्पत्तियों ने अपनी सन्तान की परवरिश प्रारम्भ से ही बड़ी सूझबूझ व सतर्कता से की, उनकी सन्तानें अच्छी निकलीं और जिन्होंने केवल अच्छी सन्तान की कामना तो की मगर उस दिशा में कोई गम्भीर प्रयास नहीं किये उनकी सन्तान वैसी निकली जैसी जाने-अनजाने उन्हें संगत यानि सोहबत मिली।

    जिन लोगों ने अपनी सन्तान को अच्छा बनाने के लिए गम्भीर प्रयास किये या नहीं किये उन सभी का मानना है कि बच्चों के बनने व बिगड़ने में उनकी संगत की भूमिका बहुत बड़ी रहती है। इसलिए बच्चे की संगत या सोहबत पर विशेष ध्यान दें। कहीं उनकी संगत में बुरे बच्चे, बुरे लोग या बुरा माहौल तो नहीं हैं। जिन लोगों ने अपने बच्चों को बुरी संगत से बचा लिया या वे बच्चे जाने-अनजाने स्वयं बच गये, वे ही बच्चे अच्छे बन पाते हैं। ऐसे बच्चों का जीवन सुखी रहता है और माता-पिता भी अपने आपको सौभाग्यशाली मानते हैं। जो लोग किसी भी कारण से इसमें चूक जाते हैं उनकी सन्तान प्रायः बुरी निकल जाती है। परिणाम स्वरूप बच्चों का जीवन तो अंत तक कष्टमय होता ही है मगर उनके माता-पिता भी कम दुखी नहीं रहते। कभी-कभी तो अपने
 बच्चों के बुरे कारनामों के कारण इतनी ज्यादा जलालत भोगनी पड़ती है कि उनके मुख से निकल जाता है - इससे तो अच्छा होता ये पैदा ही न होते। मगर वे यह नहीं सोचते कि इसके लिए जिम्मेदार ये बच्चे नहीं बल्कि वे स्वयं हैं। यदि उन्होंने अपने बच्चों की परवरिश पर ध्यान दिया होता तो संभवतः उन्हें आज ये बुरे दिन देखने को न मिलते। 


    संजय दत्त के जीवन को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। संजय दत्त एक अच्छे माता-पिता की बिगड़ी सन्तान सिद्ध हुए। उनके पिता सुनील दत्त व माता नरगिस दत्त थीं। दोनों ही न केवल फिल्मी पर्दे के बेहतरीन कलाकार थे बल्कि उनकी गिनती बहुत ही अच्छे इन्सानों और दम्पत्तियों में रही।    

भारत की सुपर स्टार जोड़ी सुनील दत्त और नरगिस के घर मुम्बई में 29 जुलाई 1959 को संजय दत्त का जन्म हुआ।    

वह छोटी उम्र में ही ऐसी कुछ हरकतें करने लगा था जिससे चिन्तित होकर उन्होंने संजय को इस माहौल से दूर हिमाचल प्रदेश स्थित एक मशहूर स्कूल में दाखिल करा दिया जिससे वह हास्टल में रहकर कुछ सुधर जाये और उसको ग्लैमर की दुनिया की बुराइयों से बचाया जा सके। वह उस समय मात्र पांच साल का था। 
बताया जाता है कि उनमें कुछ सुधार तो हुआ लेकिन बाद में ड्रग्स लेने की आदत पड़ गयी। वर्ष 1981 में उनकी पहली फिल्म राकी आयी और इसके रिलीज होने से 3 दिन पहले नरगिस की कैंसर की बीमारी से जूझते हुए मौत हो गयी। माँ के निधन के बाद वे नशे में और डूब गये। वर्ष 1982 में ड्रग्स रखने के आरोप में 5 माह के लिए पहली बार जेल भी गये। संजय दत्त की एक फिल्म ‘नाम‘ में एक डायलाग था, ‘गुनाह की दुनिया में दाखिल होना आसान है, लेकिन इससे निकलने का कोई आसान रास्ता नहीं है।‘ शायद वह भी धीरे-धीरे इस दुनिया के करीब आ रहे थे।

सुनील दत्त ने जब देखा कि उनके बेटे संजय की नशे की लत बढ़ती जा रही है तो उन्होंने संजय को अमेरिका के एक नशा मुक्ति केन्द्र में भेज दिया। कुछ साल वहाँ रहने के बाद नशे से मुक्ति मिल गयी और वे फिल्मी दुनिया में सक्रिय हो गये। उनकी काफी फिल्में आयीं। उनमें से कुछ हिट, कुछ फ्लाप रहीं। बेहतरीन एक्टिंग के लिए उन्हें समय-समय पर कई सम्मान मिले। 

1993 में उनकी फिल्म खलनायक आयी जो हिट रही। इसी दौरान उन्हें मुम्बई में बम विस्फोटों की साजिश के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 21 मार्च 2013 को 5 साल की सजा सुनाई। इससे फिल्मी पर्दे का खलनायक असल जिन्दगी में भी खलनायक बन गया। 

नशे के दुष्परिणाम कितने घातक होते हैं उससे ठोकर खाने के बाद संजय ने एक टीवी चैनल के एक कार्यक्रम में नसीहत दी - ‘‘मैं लोगों से यही कहना चाहूँगा कि वे बाइकिंग, गैजेट आदि का शौक भले ही पालें, लेकिन नशे का शौक न पालें‘‘। 

    मेरा मानना है कि सुनील दत्त की निजी व घरेलू परिस्थितियां चाहे जो भी रही हों उन्हें संजय को हास्टल में नहीं भेजना चाहिए था बल्कि उसको अपनी आँखों के सामने रखकर उसकी एक-एक गतिविधि पर पैनी नजर रखते हुए उसे अच्छी संगत, अच्छा माहौल उपलब्ध कराना चाहिए था। उस समय पिता-पुत्र में दोस्ती होनी चाहिए थी। यदि उन्हें उस समय संजय को हास्टल में रखकर ही पढ़ाई कराने का विकल्प दिख रहा था तो भी संजय पर बहुत सतर्कता की आवश्यकता थी। यदि उस समय यह सतर्कता बरती गयी होती तो सुनील दत्त को बाद में अपने बेटे संजय की करतूतों के कारण जीवन में जो जलालत झेलनी पड़ी थी, समझौते करने पड़े थे वे सब न करने पड़ते। जिस उम्र में उन्हें बेटे का सुख भोगना था उस उम्र में उन्हें बेटे के कारण अनेक दुःख झेलने पड़े। वे इन कष्टों से बच सकते थे यदि उन्होंने उस समय अपने निजी भविष्य के साथ बच्चे के भविष्य को भी संवारने में लगाया होता। 

 मेरे दिमाग में इस समय कई ऐसे परिवारों के दृश्य सामने आ रहे हैं जिनकी स्थिति सुनील दत्त जैसी या इससे मिलती जुलती रही। लेकिन मैं इस समय यहाँ एक ऐसा उदाहरण दे रहा हूँ जो सिद्ध करता है कि बच्चों का भविष्य अच्छा बनाने के लिए उनके माता-पिता कितने सतर्क थे और उन्होंने अपने कैरियर के बजाए बच्चे के भविष्य की चिन्ता ज्यादा की। वे ऐसे समझदार माता-पिता सिद्ध हुए जो अन्य लोगों के लिए भी प्रेरणादायक बन गये। 








 वर्ष 2009 बैच की आई.ए.एस. महिला टापर रहीं - इवा सहाय। अपने ब्लाग पर लिखने के लिए मैंने उस समय इवा सहाय एवं उनके माता-पिता से उनके घर पर जाकर विस्तार में बातचीत की। उस बातचीत में पता चला कि इवा सहाय के माता-पिता दोनों बिहार राज्य के दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों में शिक्षक थे। पिता विजय शंकर सहाय ने इवा के जन्म के समय ही फैसला कर लिया था कि उसे आई.ए.एस. बनाना है। इसके लिए जरूरत पड़ने पर पिता ने अपना शिक्षण स्थान बदला। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आ गये और बेटी के साथ अकेले रहे। उस समय इवा कक्षा चार में पढ़ती थीं। बाद में माँ डा0 वत्सला सहाय ने अपना शिक्षण कार्य ही छोड़ दिया और वह भी इलाहाबाद आ गयीं। दोनों ने मिलकर इवा की इस प्रकार परवरिश की कि वह प्रथम प्रयास में ही आई.ए.एस. की परीक्षा में सफल रहीं और न केवल सफल रहीं बल्कि देशभर में तीसरा तथा महिलाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इवा के माता-पिता ने केवल अपनी बेटी की पढ़ाई पर ही ध्यान नहीं दिया बल्कि उनके अन्दर देशभक्ति एवं नैतिकता का जज्बा कूट-कूट कर भरा। इसका नतीजा है कि आज वह बच्चा और उसके माता-पिता भी सम्मान के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। बेटी की सफलता से माता-पिता का सिर और भी ज्यादा ऊँचा हो गया।

    देखने में आ रहा है कि समाज में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो अपने बच्चों की परवरिश वैसी करते हैं जैसी करनी चाहिए। ऐसे लोग ज्यादा हैं जो बच्चों को अपनी सामर्थ्य  से भी ज्यादा सुविधा देने की कोशिश में दिनरात लगे रहते हैं। इसके फलस्वरूप वह अपने में ही सिमटकर रह जाते हैं। न उन पर पैनी नजर रखते हैं और न ही उनका मार्ग दर्शन करते हैं। ऐसी स्थिती में बच्चे प्रायः भटक जाते हैं। बच्चों को कुछ समझ ही नहीं आता कि उन्हें क्या करना चाहिए। कुछ बुरी संगत में फंसकर अपना जीवन बर्बाद कर डालते हैं। कुछ ही ऐसे निकल पाते हैं जिन्हें परिवार से तो मार्गदर्शन नहीं मिलता लेकिन जाने-अनजाने में उन्हें ऐसी संगत मिल जाती है जिससे उनका भविष्य बिगड़ने से बचता ही नहीं बल्कि संवर जाता है। जिन लोगों के बच्चों का भविष्य अच्छा नहीं बन पाता वे इसके लिए अपनी गलती नहीं मानते। उन्हें महसूस नहीं होता कि उन्होंने बच्चों की प्रभावशाली ढंग से निगरानी नहीं की बल्कि प्रायः उनका जुमला होता है - ‘‘हमने बच्चों को अच्छा भोजन दिया, अच्छे कपड़े पहनायें, अच्छे स्कूल में दाखिला कराया, अच्छा ट्यूटर लगाया यानि भरपूर सुविधाएं दीं, इतने पर भी वे न पढ़ पाये तो इसमें हमारी गलती क्या है। इनकी किस्मत ही ऐसी होगी।‘‘ वे यह नहीं सोचते कि बच्चों को केवल सुविधाएं ही नहीं चाहिए बल्कि अभिभावकों का  आत्मीय भरा समय भी चाहिए। उनकी भावनाओं, इच्छाओं, आवश्यकताओं को समझने की जरूरत थी।  

    इससे एक बड़ा सबक लेने की आवश्यकता है विशेषकर नई पीढ़ी को जो माता-पिता बनने की कतार में हैं या हाल ही में बने हैं कि वे अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दें। माता-पिता दोनों को या किसी एक को बच्चों के प्रति अति सतर्क रहने की जरूरत रहती है। उन्हें केवल सुविधाएं न दें बल्कि समय दें। प्रायः लोग जो समय उनके साथ बिताते भी हैं, उस दौरान केवल उनकी इच्छाओं और मांगों को पूरा करने में ही लगे रहते हैं। होता यह है कि बड़े होने पर उनकी यह आदत बनी रहती है और विकराल समस्या बन जाती है फिर वे कोई भी काम करने से पहले उसके दुष्परिणामों के बारे में नहीं सोचते। इसलिए उनके दोस्त बनें लेकिन उन पर पैनी नजर रखें। 

 बच्चे की परवरिश करते समय माता-पिता का यह प्रयास होना चाहिए कि वे उस पर हर समय अंकुश लगाने की बजाए बच्चे को ऐसे संस्कार दें जिससे बच्चा विवकेशील बन जाये, अच्छे-बुरे की पहचान करके बुराइयों से स्वयं दूर रह सके अर्थात् सन्तान की प्रकृति को उत्तम बनाने पर जोर दिया जाये। यदि इसमें माता-पिता सफल हो गये तो फिर सन्तान पर हर समय नजर रखने की आवश्यकता भी नहीं रहेगी और जो सम्भव भी नहीं है। इस सम्बन्ध में रहीम का एक दोहा बहुत प्रासंगिक है -
                             जो रहीम उत्तम प्रकृति, का कर सके कुसंग।
                             चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
    अर्थात् जो उत्तम प्रकृति का है उसका कुसंग (बुरी संगत) भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार चन्दन पर विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता जबकि उस पर भुजंग (जहरीले सर्प) लिपटे रहते हैं।

    सन्तान को उत्तम प्रकृति का बनाने के लिए गर्भ से ही प्रयासरत रहना चाहिए। गर्भवती स्त्री के सामने इस प्रकार का कोई माहौल नहीं रहना चाहिए जिससे उस स्त्री के मन पर बुरा प्रभाव पड़े क्योंकि उसका प्रभाव बच्चे के मन पर भी पड़ता है। जब बच्चे का जन्म हो जाये तो उसके साथ भावनात्मक रूप से जुडे़ं यानि अधिक से अधिक समय उसे अपने पास रखें, उसे प्यार करें, उसके साथ बात करने का और उसकी समस्याओं को समझने व उसका समाधान करने का प्रयास करें। 

जब वह बोलना शुरू कर दे तो उसके साथ संवाद स्थापित करें ताकि बच्चा अपनी जरूरतें खुलकर बता सके और आप अपनी सामर्थ्य एवं सीमाएं बता सकें। संवाद के बिना दोनों एक दूसरे की स्थितियों को नहीं समझ पाएंगे और इससे अलगाव शुरू हो जाता है। यहाँ अपने को भी व्यवस्थित रखने की आवश्यकता है। बच्चे को कोई काम करने से मना करने से पहले स्वयं पर ध्यान दें। यदि आप बच्चे को मना करते हैं और खुद वही काम करते हैं तो आपकी मनाही का कोई मतलब नहीं रहेगा क्योंकि बच्चे तो बड़ों को देखकर ही सीखते हैं। 

    इसी दौरान उन्हें कानून का और समाज का सम्मान करना सिखायें। उन्हें नैतिकता की कहानियां सुनाएं, उन्हें महापुरूषों की जीवनियाँ पढ़ने का चस्का लगाएं। आपने स्वयं जो गलतियां की और उनके क्या दुष्परिणाम हुये उनसे बच्चे को अवगत करायें। उन्हें मेहनत करके उन्नति करने के लिए प्रेरित करें न कि शार्टकट से आगे बढ़ने की। उनका चहुंमुखी विकास करने का प्रयास करें। जिससे वे जीवन की चुनौतियों का मुकाबला करते हुए सम्मान से जी सकें। आज इन्टरनेट का समय है। यह इन्टरनेट बच्चों के लिए जरूरी व उपयोगी है तो यह उनका शत्रु भी सिद्ध होता है। इन्टरनेट की बुराइयों से भी उसे अवगत कराना होगा। 

    इस मामले में यह भी माना जाता है कि पांच साल की उम्र तक बच्चे को लाड़-प्यार से समझाना चाहिए। पांच से पन्द्रह साल की आयु तक की सन्तान से आवश्यकता पड़ने पर सख्ती करनी चाहिए अर्थात जरूरत पड़ने पर सख्ती से समझाना चाहिए। पन्द्रह से इक्कीस वर्ष की आयु के बीच की सन्तान को समझाने का प्रयास करना चाहिए और इसके बाद उससे मित्रवत् व्यवहार करते हुए अपनी बात समझानी चाहिए। यदि वे गंभीरता से प्रयास करेंगे तो अवश्य ही सफल होंगे। समाज में इस प्रकार के प्रयास की आज बहुत आवश्यकता है।

Sunday, February 17, 2013

प्रौढ़ अवस्था में पहना हेलमेट



प्रायः समाचार पत्रों में हम पढ़ते रहते हैं कि आज फिर एक दुपहिया वाहन चालक की सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी, यदि उसने हेलमेट पहना होता तो उसकी मौत न होती। आखिर क्या कारण है कि इस प्रकार के समाचारों का भी हम पर असर नहीं होता जबकि हेलमेट पहनकर दुपहिया वाहन चलाने के लिए सरकार ने भी नियम-कानून बना रखे हैं और इसे लागू कराने के लिए समय-समय पर  ट्रैफिक पुलिस चैकिंग अभियान भी चलाती रहती है।
 

इस प्रकार के हादसों एवं चैकिंग अभियानों के बावजूद देश में अभी भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो हेलमेट पहने बिना दुपहिया वाहन चलाते हैं। शायद ऐसे लोग यह सोचते हैं कि वे तो ठहरे आजाद देश के आजाद नागरिक। उनकी शान तो तभी है जब दूसरे लोग तो नियम-कानून का पालन करें और वे अपनी मनमानी करें, उनसे कोई कुछ न कहे। हेलमेट नहीं पहनना है तो नहीं पहनना है, बस चाहे कुछ भी हो जाए।

जिन्हें  अपनी सुरक्षा की चिन्ता नहीं रहती और जो सरकार के नियमों को भी ताक पर रख कर चलते हैं ,ऐसे लापरवाह लोग भी हेलमेट पहनना शुरू कर देते हैं जब वे इस प्रकार के किसी हादसे को अपनी आँखों से देख लेते हैं या उन्हें कोई इसका महत्व प्रभावी ढंग से समझा देता है अथवा उन पर इसके लिए कोई सख्ती की जाती है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। एक घटना ने मुझे प्रौढ़ अवस्था में हेलमेट पहना दिया। मुझे ही नहीं बल्कि शिक्षण संस्थाओं के एक ग्रुप  के सभी विद्यार्थियों एवं कर्मचारियों को पहना दिया।

    मैं एक निजी इन्जीनियरिंग कालेज में कार्यरत हूँ। इस कालिज में बी0टेक0 प्रथमवर्ष में पढ़ने वाली एक होनहार छात्रा की गत माह सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी। यह दुर्घटना घर से कालेज आते समय हुई। उस समय वह अपनी स्कूटी चला रही थी। एक बस से टक्कर लगते ही वह ऐसी गिरी कि उसके सिर के पास से बहुत तेजी से खून बहने लगा और चंद मिनटों में उसकी मौत हो गयी। इस दर्दनाक हादसे को जिसने भी देखा या जिसे भी इसकी पूरी जानकारी मिली वह एक बार को स्तब्ध रह गया। सभी का मानना है कि यदि उसने हेलमेट पहना होता हो उसकी मौत न होती।


    इस हादसे से कुछ सबक लेते हुए कालेज प्रशासन ने निर्णय लिया कि अब कालेज में हेलमेट पहनना सभी दुपहिया वाहन चलाकर आने वालों के लिए अनिवार्य कर दिया जाए। इसके लिए एक मीटिंग बुलाकर कालेज के पूरे स्टाफ से कह दिया गया कि अब पूरा स्टाफ भी हेलमेट पहनकर आयेगा। नैतिकता की बात करते हुए कहा गया कि यदि स्टाफ ही हेलमेट पहने बिना दुपहिया वाहन चलाकर कालेज आऐगा तो हम लोग कैसे विद्यार्थियों के लिए इसे अनिवार्य करेंगे।

    इस मीटिंग के बाद कालेज के सभी छात्र-छात्राओं को स्पष्ट कर दिया गया कि अब ऐसे विद्यार्थियों से कड़ाई से निपटा जायेगा जो हेलमेट पहने बिना दुपहिया वाहन चलाकर कालेज परिसर में आएंगे।

 इस पहल का सकारात्मक एवं चमत्कारिक परिणाम देखने में आया कि एक सप्ताह के अन्दर यह स्थिति आ गयी कि अब एक भी व्यक्ति ऐसा नजर नहीं आता जो बिना हेलमेट पहने दुपहिया वाहन चलाकर कालेज परिसर में आता हो। वह चाहे
स्टाफ हो या विद्यार्थी, पुरूष हो या महिला अथवा प्रौढ़।

    मुख्य प्रशासनिक अधिकारी से जब हेलमेट पहनने के मामले में मिली शतप्रतिशत सफलता का रहस्य जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि ऐसा कोई काम नहीं जिसे पूरा करने की कोई व्यक्ति ठान ले और वह पूरा न हो। उन्होंने कहा कि इसके लिए व्यक्ति को पहले अपने प्रति ईमानदार होना पड़ता है। आप जो दूसरों से इच्छा रखते हैं पहले व्यक्ति को खुद अपनाना होगा।

    ऐसा नहीं है कि यह कोई पहली ऐसी संस्था है जहाँ अब शतप्रतिशत लोग हेलमेट पहनते हैं। इससे पहले भी ऐसे प्रयोग हुए हैं लेकिन उनकी संख्या अभी नगण्य है। यदि सभी संस्थाए दृढ़ इच्छा के साथ इस प्रकार की पहल शुरू कर दे तो जो काम सरकार नियम-कानून बनाकर भी नहीं पूरा कर पा रही है उसे व्यापक स्तर पर सामाजिक स्तर से पूरा किया जा सकता है।


    इस घटना ने मुझे भी हेलमेट पहना दिया। प्रौढ़ अवस्था होने के कारण शुरू में तो हेलमेट पहनना बड़ा अजीब लगा लेकिन जब इसे पहनकर चला तो इतना सुखद लगा कि अब मैं हर किसी मिलने वाले व्यक्ति  से हेलमेट पहनने के फायदे गिनाता हूँ और पछताता हूँ कि मुझे यह समझ पहले क्यों नहीं हुई।


मैं जब हेलमेट पहनकर दुपहिया वाहन से घर से चला तो कुछ ही क्षणों में सुखद अहसास होने लगा। सबसे पहले तो ऐसा लगा कि इसे पहनकर चलने से मैं कुछ विशिष्ट तथा पूरी तरह से सुरक्षित हो गया हूँ। अब वे लोग जो हेलमेट पहने बिना दुपहिया वाहन चला रहे थे अजीब लगने लगे। अब ऐसा लग रहा था कि एक तरफ मैं कितना सभ्य नागरिक हूँ जो नियम-कानून का पालन कर रहा हूँ और मुझे अपनी सुरक्षा की चिंता है, दूसरी तरफ ये लोग हैं जिन्हें न नियम-कानूनों की परवाह है और न अपनी जान की।

इसके अलावा हेलमेट पहनकर दुपहिया वाहन चलाने वालों का कहना है कि इससे अपने जीवन की सुरक्षा तो है ही, साथ ही इसे पहनने से आस-पास का शोर नहीं सुनायी देता है जिससे कन्सन्ट्रेशन बना रहता है। यदि आप आँखों पर चश्में का इस्तेमाल नहीं करते हैं तो आँखों का धूल-मिट्टी  व कीट-पतंगों से बचाव होता है। एक लाभ यह भी रहता है कि यदि रास्ते में किसी भी मामले को लेकर पुलिस का चेंकिग अभियान चल रहा हो तो प्रायः पुलिस हेलमेट पहनकर चलने वाले को नहीं रोकती। इसके पीछे पुलिस का मानना रहता है कि यह व्यक्ति नियम-कानून
का पालन करने वाला सभ्य नागरिक है।

    अब इस प्रकार की जनचेतना भी तैयार करनी होगी कि इससे खुद की ही सुरक्षा है। क्योंकि ऐसा देखने में आया है कि जहाँ सख्ती होती है व्यक्ति वहाँ तो हेलमेट पहन लेता है। उस स्थान से पहले और बाद में उसे अपने साथ तो रखता हैं लेकिन सिर से उतार लेता है। यद्यपि ऐसा करके व्यक्ति दूसरों को नहीं बल्कि स्वयं को ही धोखा दे रहा है।