सुप्रसिद्ध
साहित्यकार एवं वर्धा (महाराष्ट्र) स्थित महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय
हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने इलाहाबाद स्थित
शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट आफ इन्जीनियरिंग एण्ड टेक्नोलाजी के बी0टेक0 प्रथम व
द्वितीय वर्ष के छात्र-छात्राओं के बीच गत दिनों वहाँ के मैनेजमेंट के
आग्रह पर एक प्रेरक व्याख्यान दिया। व्याख्यान के बाद विद्यार्थियों ने
प्रश्नों द्वारा उनसे अपनी जिज्ञासाएं शान्त कीं। इस ज्ञानवर्धक,
शिक्षाप्रद एवं प्रेरक व्याख्यान को सभी ने बहुत सराहा। यहाँ प्रस्तुत है
उस व्याखान के सम्पादित प्रमुख लेकिन विस्तृत अंश -
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बच्चों
को सम्बोधित करते समय मुझे हमेशा सत्यजीत राय की एक ट्रिलोजी याद आती हैं।
तीन किताबों या फिल्मों की श्रृंखला को ट्रिलोजी कहते हैं। आप में से जो
फिल्में देखते होंगे, जिन्होंने सत्यजीत राय को देखा होगा उन्हें याद होगा
कि उनकी पाथेर पांचाली, अपराजितो, एवं अपूर संसार की एक अदभुत ट्रिलोजी है।
इसमें एक फिल्म अपूर संसार है। अपूर संसार का मतलब अपू की दुनिया। अपू नाम
का एक लड़का है। वह अपने जीवन में प्रवेश करने जा रहा है, तो फिल्म की
शुरूआत में एक बड़ा मार्मिक दृश्य आता है कि एक बच्चा जो अब निकल रहा है
अपनी यूनिवर्सिटी से, पास आउट कर रहा है और अब उसे अपनी दुनिया में प्रवेश
करना है। तो वह अपने अध्यापक से मिलने आता है जो उसके सबसे प्रिय अध्यापक
हैं। वह अध्यापक भी उस बच्चे को बहुत चाहते हैं। मकान की ऊपरी मंजिल के एक
कमरे में दोनों बात कर रहे हैं। नीचे एक बड़ा जुलूस निकल रहा है, नारे
लगाता हुआ, जिन्दाबाद-मुर्दाबाद करता हुआ। बातचीत में अध्यापक अपू से कहते
हैं - देखो अभी तक तुम जिस दुनिया में थे वह बड़ी सुरक्षित दुनिया थी।
तुम्हारे साथ तुम्हारे मां-बाप थे, तुम्हारे साथ तुम्हारे अध्यापक थे,
इन्स्टीट्यूशन था जिसमें तुम पढ़ते थे। तुम्हें महीने का खर्चा तुम्हारे
मां-बाप देते थे। तुमने कभी यह महसूस किया कि इसके बाद जो जीवन आने जा रहा
है वह कैसा होगा ? वह जीवन बहुत कठिन और मुश्किल होने जा रहा है। उस जीवन
में यह सारी सुरक्षा नहीं मिलेगी। तुम्हारे फैंसले तुम्हारे मां-बाप ले
लेते थे। खर्च के लिए पैसे भेज देते थे। विद्यालय में तुम चाहे जितनी
शरारतें करो, अध्यापक वहाँ होते थे, तुम्हें समझाते थे। तुम्हें मनुष्य
बनाने की कोशिश करते थे। अब तुम्हें जीवन में खुद प्रवेश करना है। यह जो
तुम्हारे सामने मुश्किल भरी जिन्दगी आ रही है उसका मुकाबला खुद करना है।
मैं जो कह रहा हूँ आप यह मत सोचियेगा कि मैं आपको डराने के लिए कह रहा हूँ।
यह जब फिल्म बनी थी वह साठ का दशक था। अबसे चालीस साल पुरानी वह दुनिया
थी। वह पुरानी दुनिया जितनी मुश्किल थी, आज की दुनिया उससे ज्यादा मुश्किल
है। मजेदार बात है कि जो दुनिया आपके सामने खुलने जा रही है वह पहले जैसी
नहीं है। यहाँ बी0टेक0 सेकेंड ईयर के बच्चे बैठे हुए हैं। दो साल बाद, तीन
साल बाद आपको जिस जगत में प्रवेश करना है उसमें सम्भावनाएं अकूत हैं। सत्तर
के दशक में इतनी सम्भावनाएं नहीं थीं। हम सत्तर के दशक में जब पढ़ रहे थे
तो, मुझे याद आता है कि हमारे सामने बहुत सीमित रास्ते थे। हमें उन्ही
रास्तों से जाना था। उस समय इलाहाबाद में कम्पटीशन का बड़ा दौर था। इस समय
जिन्हें सिविल सर्विसेज एक्ज़ाम कहा जाता है उस समय उन्हें आई.ए.एस.
एटसेट्रा एक्जाम कहते थे। ज्यादातर लगभग 30 प्रतिशत बच्चे यहीं से आते थे।
तो हमारे मन में आत्म-विश्वास रहता था कि जब ये आ गये तो हम भी आ जायेंगे।
आज
से जब सात-आठ साल पहले मेरा बेटा अपनी दुनिया में प्रवेश करने जा रहा था
तो मैंने देखा कि उसके सामने अकूत सम्भावनाएं थीं। उसने सरकारी नौकरी के
बारे में सोचा ही नहीं। चूंकि प्राइवेट सेक्टर, जो गैर सरकारी स्पेस था वह
इतना विविध हो गया था, इतना बढ़ गया था कि उसके सामने तमाम सम्भावनाएं
थीं। तो जो मैं आपसे कह रहा हूँ कि यह समय पहले के मुकाबले ज्यादा मुश्किल
है, इसकी विशेषता यह भी है कि इसमें सम्भावनाएं बहुत हैं। लेकिन इसके साथ
जो सबसे बड़ी समस्या आ रही है वह यह है कि इसमें खास तरह की गला-काट
प्रतिस्पर्धा है, खास तरह की प्रतियोगिता है। एक बड़ी निर्मम किस्म की
प्रतियोगिता है। इसमें कोई आपकी मदद करने वाला नहीं है। कोई आपको रास्ते
में हाथ पकड़ कर चलाने वाला नहीं है। इसमें आपको अपने रास्ते भी बनाने हैं
और दिशा भी तय करनी है। यह दुनिया इतनी मुश्किल है कि यदि इसमें आप असफल हो
जायें तो आपकी कोई परवाह नहीं करेगा।
हमारे
समय में राज्य का बड़ा हस्तक्षेप होता था। राज्य शिक्षा की व्यवस्था करता
था, राज्य स्वास्थ्य की व्यवस्था करता था। राज्य यह सुनिश्चित करता था कि
कोई भूखा न मरे। लेकिन यह जो ग्लोबलाइजेशन का दौर आया हैं इसमें विचारधारा
के अंत की बात कही जा रही है। कहा जा रहा है कि आप बड़े सपने मत देखो, इस
दुनिया को बदलने की बात मत करो। इस दुनिया में जो लूट है उसमें अपना हिस्सा
हासिल करने की बात करो। इसमें राज्य धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है। राज्य
कह रहा है कि यदि आप अपना इलाज नहीं करा सकते तो आप मर जायें। आप बच्चे को
पढ़ा नहीं सकते तो पढ़ाने की क्या जरूरत है। तो यह एक निर्मम किस्म की
दुनिया है जिसमें आपको अपना रास्ता खुद बनाना है और मजेदार तथ्य यह है कि
इसमें सम्भावनाएं भी इतनी अकूत हैं कि उसके बारे में अपने समय में हम सोच
ही नहीं सकते थे। अगर हम इसे वेतन के अनुपात में लें तो जिस तनख्वाह पर मैं
रिटायर हुआ उस तनख्वाह पर मेरे बेटे ने नौकरी शुरू की, मैं तो कल्पना भी
नहीं कर सकता था कि इस तरह की नौकरियां भी मिल सकती हैं। लेकिन कितने लोगों
को ऐसी नौकरियां मिल रही हैं। यह जो समय है जिसमें कहा जाता है कि हमें
इतने लाख रूपये का पैकेज मिलेगा। वे कितने लोग हैं जो इस सपने को पूरा कर
पा रहे हैं। बहुत कम हैं जो इस सपने को पूरा कर पा रहे हैं। और जो पूरा
नहीं कर पा रहे हैं उनके लिये इस राज्य के मन में या समाज के मन में कोई
दुःख दर्द नहीं बचा। कोई चिन्ता नहीं बची। अगर आप उस दौड़ में शरीक नहीं
हुए तो आप किनारे होते जाइये। आप गड्ढ़े में गिरते जायें, आप हाशिये पर
पहुंचा दिये जायें और आपके लिए कोई चिन्ता करने वाला नहीं। वह समय जो अपू
के जमाने का समय था उससे भी ज्यादा मुश्किल समय है यह। अब इस मुश्किल समय
के लिए अपने को खुद को तैयार करना है, इस लड़ाई में न सिर्फ आपको लड़ाई
जीतनी है बल्कि इस लड़ाई में अपने को सर्वश्रेष्ठ दिखा करके लड़ाई को जीतना
है। तभी आप जीत पायेंगे। इस समय में जो मीडियाकर है, वह इस लड़ाई में बहुत
दूर तक नहीं जा पाता। इसमें जो श्रेष्ठ है, सर्वश्रेष्ठ है वही लड़ाई में
आगे तक जा पाता है। तो इस लड़ाई के लिए आपको तैयार कौन करेगा ? कैसे आप
तैयार होंगे ? इस लड़ाई के लिए जिस इन्स्टीट्यूट में आप पढ़ रहे हैं, इस
प्रकार के इन्स्टीट्यूट ही तैयार कर सकते हैं। देखिये, इस समय हमें बहुत
सारी चीजें बुरी लगती हैं। जिस समय हम छात्र थे, हमें भी बुरी लगती थीं।
हमसे कहा जाता था कि यूनिफार्म पहन कर आओ, तो हम कहते थे कि नहीं, हम तो
जीन्स पहनकर आयेंगे। क्लास यदि साढ़े नौ बजे शुरू होती थी तो कहा जाता था
कि नौ बजकर पच्चीस मिनट तक क्लास में आ जाओ। लेकिन हम कहते थे कि नहीं,
हमें दस या साढ़े दस बजे तक हाथ हिलाते हुए आने दिया जाये। हमें नकल करने
की इजाजत दे दी जाये। अटैन्डेन्स के लिए हमसे कोई कुछ कहे नहीं। ठीक है।
मैं थोड़ी देर पहले तिवारी जी (इसी इन्स्टीट्यूट के सचिव डा0 के0के0
तिवारी) से कह रहा था कि अगर आप एक ऐसी संस्था बनाएं जिसमें आप कहें कि हम
तो इसमें खुलेआम नकल करायेंगे, आप को क्लास में आने की जरूरत नहीं, आप कहीं
भी रहिये और डिग्री लेकर चले जाइये। लेकिन उस डिग्री का कोई अर्थ नहीं। आप
यहाँ से जो डिग्री लेकर निकलेंगे उसके कोई अर्थ नहीं। आज आप इस हालत में
हैं कि विश्वविद्यालय जो भी डिग्री देते हैं वह कागज के टुकडे़ से ज्यादा
नहीं होती। मैं आपको नोएडा में बी0टेक0 पास लोगों को 4-5 हजार रूप्ये के
लिए जिस प्रकार लेबर चैराहे पर मजदूर खड़े होते हैं, उस तरह से उन्हें खड़े
हुए दिखा सकता हूँ। वे सारे उन संस्थाओं से पढ़कर आ रहे हैं जो संस्थाएं
सिर्फ फीस लेती थीं, जो संस्थाएं घटिया किस्म के अध्यापकों से पढ़वाती थीं,
जो संस्थाएं इस बात पर ध्यान नहीं देती थीं कि उनके बच्चे कक्षाओं में जा
रहे हैं या नहीं, जो संस्थाएं नकल कराती थीं। वहां के लोग बी0टेक0 की
डिग्री लेकर हाथ हिलाते हुए सड़क पर खड़े हैं, हजारो-लाखों की संख्या में।
कोई पूछेगा नहीं इनको। अब हालत यह आ गयी है कि आप को बड़ी से बड़ी
यूनिवर्सिटी भी डिग्री दे दे तो भी आपका एम्पलायर आपका दुबारा से टेस्ट
लेगा। अपनी परीक्षा लेगा। हमारे समय में ऐसा नहीं था। इलाहाबाद
विश्वविद्यालय का मुझे याद है कि हम लोग जो कम्पटीशन में बैठ रहे थे उनमें
बहुत सारे लोग थे जिनके घर की स्थिति ऐसी नहीं थी कि दो-तीन साल की तैयारी
के लिए घर वाले पैसा दे दें। वे लोग ए0जी0 आफिस चले जाते थे। दूसरे दिन
उनका अपाइन्टमेंट हो जाता था और वहाँ से जो 400-600 रूपया मिलता था उससे
तैयारी करते थे। आज ऐसा नहीं है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय आपको 80-90
प्रतिशत अंक पाने की डिग्री थमा दे तो भी उसका कोई महत्व नहीं है। उस
डिग्री का एक कागज के टुकड़े से ज्यादा महत्व नहीं रह गया। उसी तरह आपकी इस
उत्तर प्रदेश टेक्नीकल यूनिवर्सिटी की जिसकी तैयारी आपका शम्भूनाथ
इन्स्टीट्यूट करा रहा है, नकल करके डिग्री ले लीजिये, अच्छे नम्बरों की ले
लीजिये। उस डिग्री का कागज के टुकडे से ज्यादा महत्व नहीं हैं। आपका
एम्पलायर आपका दुबारा टेस्ट लेगा। दुबारा आपका इम्तहान लेगा। उस इम्तहान
में वे ही पास हो पायेंगे जो यहाँ पर शम्भूनाथ इन्स्टीट्यूट में डिसीप्लीन
है, पढ़ाने का जो तरीका है, जो सुविधाएं यहाँ मिली हुई हैं जो उनका भरपूर
इस्तेमाल कर रहे हैं।
ये
तीन-चार साल बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन तीन-चार सालों में आप खूब एन्ज्वाय
कर सकते हैं और बाकी 40-50 साल में आप रोते रह सकते हैं। इन तीन-चार सालों
में आप मेहनत करके अपने आगे के 40-50 सालों को सुरक्षित कर सकते हैं। एक
ऐसे नागरिक का जीवन बिता सकते हैं जिसे सारी सुरक्षाएं मिली हुई हैं,
जिसमें आर्थिक सुरक्षा भी हो, सामाजिक सम्मान भी हो और जो समाज के लिए
उपयोगी भी हो। ये आप्शन आपके पास हैं। यहाँ के अध्यापक रोते रहें, कहते
रहें, आप मत मानिये इनकी बात, मत पढि़ये। ये जो यूनिफार्म है यह तो एक छोटा
सा सिम्बल है आपको फोकस्ड तरीके से सोचने का। आपका अभ्यास कराया जा रहा
है। आप इसे मत मानिये। ठीक है, आप कहिये कि आप हमारी अटैन्डेन्स की चिन्ता
मत करिये, यह तो हमारी चिन्ता है। हम भी तिवारी जी से आग्रह करेंगे कि
इन्हे छोड़ दीजिये। इन्हें नकल भी करने दीजिये और इन्हें नम्बर भी खूब दे
दीजिये। लेकिन इसे लेकर आप करेंगे क्या। इस डिग्री को आप हाथ हिलाते हुए
लेकर जायेंगे, उसका होगा क्या। तो एक विद्यालय का, एक विश्वविद्यालय का, एक
इन्जीनियरिंग कालिज का जो सबसे बड़ा योगदान हो सकता है वह तो यही है कि
आपको फोकस्ड तरीके से तैयारी करने के लिए तैयार करें। आपको समाज में से जो
चुनौतियाँ सामने आने जा रही हैं उनका मुकाबला करने के लिए तैयार करें। आपको
वे औजार दे जिनके सहारे आप इस दुनिया में जो मुश्किल रास्ते हैं उनके
कांटे और उनके झाड़ी-झंकार और उनके कंकरीले व पथरीले जो पथ हैं, उनको साफ
करते चलें। अगर इसके लिये ये तैयार नहीं कर रहे हैं तो ये भी अपनी
जिम्मेदारी से च्युत हो रहे हैं। और अगर आप इसके लिए खुद को जिस तरह के
अनुशासन की जरूरत है उसके अनुरूप आप अपने को नहीं ढाल रहे हैं तो सबसे
ज्यादा नुकसान तो आप अपना ही कर रहे हैं। मैं जो पाथेर पांचाली वाली
ट्रिलोजी के अपू का उदाहरण दे रहा हूँ वह आपको निराश करने के लिए नहीं या
आपको डराने के लिए नहीं कि यह तो बड़ी मुश्किल दुनिया है इसमें तो हम टिक
ही नहीं पायेंगे। इस दुनिया में आप ही जैसे लोग टिक रहे हैं।
मैं
अभी एकेडमिक की दुनिया में पिछले 4-5 साल से आया हूँ। तो मैं ध्यान से जो
कान्फ्रेंसेज होती हैं वहाँ पर समझने की कोशिश करता हूँ। जो पढ़ने की
सामग्री मिलती है उसे पढ़कर समझने की कोशिश करता हूँ। उन्हें पढ़कर बड़ा
अद्भुत सुख मिलता है कि ज्यादातर जो लोग अच्छा कर रहे हैं वे आप ही जैसे
लोग हैं जो छोटे शहरों से आये है। बड़े शहरों में दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता
से निकले हुए बच्चे उतना अच्छा नहीं कर रहे हैं जितना इलाहाबाद, लखनऊ,
भोपाल या इन्दौर के कर रहे हैं। इसकी वजह है कि यहाँ पर एक खास तरह की जिसे
कह सकते हैं कि फोकस्ड तरीके से उन्हें तैयार करने के लिए इक्विप किया जा
रहा है। बड़े शहरों में आपको भटकाने के लिए बहुत तरह के रास्ते खुले हुए
हैं । और नई पीढ़ी उसमें भटक रही है। आपको यह मौका मिला है। मैं समझता हूँ
कि जितनी अच्छी सुविधाएं मैं यहाँ देख रहा हूँ मैंने कम जगहों पर देखी हैं।
इतनी सुविधाएं मैंने तो अभी तक महाराष्ट्र में जहाँ मैं हूं, भी नहीं
देखीं। वहां कालिजों में जाता हूँ, वहाँ बिल्डिंग तो बहुत शानदार दिखाई
देती हैं लेकिन वहां की लाइबे्ररी और लेबोरेट्री में घुसते ही आप की समझ
में आने लगता है कि बाहर से जो बहुत सुन्दर है उसके अन्दर जो कन्टेन्ट है,
उसके अन्दर की विषयवस्तु में कहीं न कहीं लोच है।
यहाँ
आपको बहुत बड़ी सुविधा मिली है और इतना सुरम्य माहौल है। चारों तरफ
प्रकृति है। इलाहाबाद शहर न तो बहुत करीब है, न बहुत दूर है। करीब होता तो
आपको भटकाता, दूर होता तो आपके लिए परेशानी पैदा करता। यहाँ तो आपको जम
करके तैयारी करनी चाहिए। और अपने को जो ग्लोबल दुनिया बन रहीं, जो ग्लोबल
विलेज में भारत तब्दील हो रहा है, उसके सम्मान जनक नागरिक बनने के लिए
तैयार करना चाहिए।
हालांकि
मेरी उम्र में पहुंचे लोगों को अभ्यास हो जाता है और आनन्द आने लगता है कि
अपने बाद की जेनरेशन वालों से कहने का कि आप यह करिये, यह मत करिये। मैं
इस चक्कर में नहीं पडँूगा। लेकिन 2-3 चीजें बताऊँगा जो मुझे लगता है कि जो
हर जेनरेशन के लिए जरूरी है। जब मैं तैयारी कर रहा था इन्होंने मेरी मदद
की, और बाद में मेरे बेटे की मदद की। मैं उन 2-3 चीजों की तरफ आपका ध्यान
आकर्षित करूँगा।
एक
तो पढ़ने की आदत डालिये। पढ़ने से मेरा मतलब यह नहीं है कि जो आपका विषय
है सिर्फ उसे पढ़ने की आदत डालिये। इन्जीनियरिंग या टेक्नीकल शिक्षा पाने
वाले विद्यार्थियों का विकास अक्सर एकांगी हो जाता है। इनका समाज के लिए
उपयोगी जो दूसरे विषय हैं उनके साथ उस तरह का रिश्ता नहीं हो पाता जिस तरह
से हयूमिनिटीज या सोसल साइंसेज के बच्चों का हो जाता है। तो मेरा तो आपसे
आग्रह है कि आप महीने में कम से कम एक उपन्यास पढ़ने की आदत डालिये। आप
हिन्दी का पढ़ना चाहते हैं, हिन्दी का पढि़ये, अंग्रेजी का पढ़ना चाहते
हैं, अंग्रेजी का पढि़ये, बांग्ला का पढि़ये चाहे जिस भाषा का पढि़ये।
महीने में एक अवश्य पढि़ये। अखबार जितना ज्यादा से ज्यादा पढ़ सकें,
पढि़ये। आपकी लाइब्रेरी बहुत अच्छी है तमाम अखबार व पत्रिकाएं आयी हुई हैं।
जैसे ही समय मिले भागकर जाइये । वहाँ खूब पढि़ये। पत्रिकाएं पढि़ये। आपका
जो अपना विषय है उसे कक्षाओं में पढ़ाया जा रहा है। परीक्षा के डर से आप
अपने स्तर से भी पढ़ते ही हैं, लेकिन ये पत्रिकांए और किताबें आपको बेहतर
इक्विप करेंगी। ये जो एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज होती हैं ये आपको बेहतर
तरीके से भविष्य के लिए तैयार करेंगी। अगर आप की दिलचस्पी न भी हो तो भी
दिलचस्पी पैदा कीजिये। क्रियेटिव राइटिंग में, उपन्यास में, कहानी में,
कविता में, नाटक में इन सब में अपनी दिलचस्पी पैदा कीजिये और तय कीजिए कि
महीने में एक साहित्यिक पुस्तक अवश्य पढ़ेंगे। आजकल आन लाइन भी हजारों
लाखों पुस्तकें उपलब्ध हैं। तो अब आप यह भी शिकायत नहीं कर सकते कि यहाँ
कोई ऐसी अच्छी दुकान नहीं है जहाँ साहित्यिक किताबें मिल सकें। अंग्रेजी की
एक वेबसाइट है क्लासिकरीडरडाटकाम, इस वेबसाइट पर अब तक अंग्रेजी में जो
कुछ भी महत्वपूर्ण लिखा गया है वह सब उपलब्ध होगा। हमारे विश्वविद्यालय की
एक वेबसाइट है - हिन्दीसमयडाटकाम, उसमें 1 लाख से ज्यादा पृष्ठ हिन्दी के
हम डाल चुके हैं। हर महीने कई हजार पृष्ठ और डालते जा रहे हैं। हम कोशिश कर
रहे हैं कि हिन्दी में जो भी महत्वपूर्ण लिखा जा रहा है, वह सब इस पर आन
लाइन उपलब्ध हो। मैंने जब नौकरी की शुरूआत की तो इलाहाबाद के पालिटेक्नीक
में पढ़ाता था। उस समय तो ऐसी व्यवस्था थी कि इन्जीनियरिंग के
विद्यार्थियों के लिए हयुमिनीटीज़ और साहित्य का भी सिलेबस में कुछ रहता
था। मुझे पता नहीं कि अब आपके सिलेबस में है या नहीं। (बच्चों के द्वारा
हाँ करने पर) अगर है तो बहुत अच्छी बात है। उसे आप आदत की तरह डेवलप कीजिए
कि महीने में एक साहित्य की पुस्तक अवश्य पढ़ें।
दूसरी
बात जो आपके जीवन में काम आयेगी वह कम्यूनिकेशन स्किल है। और भाषा
कम्यूनिकेशन स्किल का सबसे बड़ा टूल है। मैंने देखा कि यहाँ बहुत बड़े-बड़े
सेमिनार हाल हैं। मुझे बताया गया कि यहाँ सेमिनार भी नियमित होते हैं।
निश्चित रूप से यहाँ पावर प्रेजेन्टशन भी होते होंगे। इन सबसे कान्फीडेंस
बिल्ड होता है। आपके अन्दर आत्म-विश्वास बढ़ता है। मुझे याद है कि मैं जब
आपकी उम्र में था तो मेरी टांगे काँपने लगती थीं जब मैं मंच पर आता था। मैं
ऊंट-पटांग बोलकर चला आता था। तो यह तो स्वाभाविक है कि आत्मविश्वास
धीरे-धीरे आता है। कुछ ही ऐसे बच्चे होते हैं जो शुरू से ही सौ-पचास लोगों
के सामने बोलना पड़े तो वे पूरे आत्म विश्वास से बोल लेते हैं। यह आत्म
विश्वास आपका विद्यालय पैदा करेगा। वह मौका देगा आपको मंच से बोलने का। आप
जायेंगे मंच पर। आप कुछ बोलेंगे तो कोई आपकी प्रशंसा करेगा, कोई टांगे
खींचेगा। इस से आपका आत्मविश्वास बिल्ड होता है। लेकिन कम्यूनिकेशन स्किल
आपको ही विकसित करनी होगी। कम्यूनिकेशन स्किल का सबसे महत्वपूर्ण अंग है
भाषा। यह हिन्दी भी हो सकती है, इंगलिश भी हो सकती है। हिन्दी में आप बहुत
अच्छा करें। मैं तो चाहूंगा कि हिन्दी सब की अच्छी हो। हिन्दी प्रयोग करने
में गर्व अनुभव करें। लेकिन यह दुर्भाग्य है और इसे अब स्वीकार कर लेना
चाहिए कि इससे हम बहुत दिनों तक अंग्रेजी से बच नहीं सकते। अंगे्रजी इस समय
दुनिया की जरूरत बन गयी है। यह सिर्फ हमारी समस्या नहीं है। पूरी दुनिया
अंग्रेजी से त्रस्त है। अंगे्रजी को लेकर एक खास तरह का पाखंड हमारे
व्यवहार में रहा है। जो लोग अंग्रेजी हटाने के आन्दोलन में सन् 1967 में
आगे थे उन्होंने लगभग सभी ने अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेज
दिया। हमारी तो यह समस्या थी ही लेकिन जो जातियाँ अपनी भाषा से सचमुच बहुत
प्रेम करती थीं और अंग्रेजी का विरोध करती थीं उनमें फ्रेंच थे, रूसी थे,
जर्मनी थे, जापानी थे, ये वे जातियां थीं जो अपनी भाषा से सचमुच बहुत प्रेम
करती थीं, और वे अंग्रेजी से इतने आतंकित नहीं थे जितने भारतीय थे। इनमें
चीनी भी थे। उन्होंने भी अब यह स्वीकार कर लिया है कि बिना अंगे्रजी जाने
यह जो सिकुड़ रही दुनिया है जो ग्लोबल परिदृश्य है उसमें काम नहीं चलेगा।
चीन ने तो 5 साल या 10 साल का एक प्रोग्राम घोषित किया है जिसमें उन्होंने
कहा है कि हम सभी चीनियों को अंग्रेजी सिखा देंगे। अभी हमारे विश्वविद्यालय
में इन्डियन सोशल कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। उसमें देश भर के सोशल
साइन्टिस्ट आये थे। मैं उनसे कहता रहा कि हमारा हिन्दी का विश्वविद्यालय
है, आप कुछ पर्चे तो हिन्दी में पढ़ें। सारे पर्चे अंग्रेजी में पढ़े जा
रहे हैं। हम हिन्दी में अपना पेपर क्यों नहीं पढ़ सकते ? इस बहस में वहाँ
एक बड़े मजेदार बात पता चली कि कुछ साल पहले सोशल साइंस की दुनिया में
अंग्रेजी का जो स्पेस था वह कुल 40 प्रतिशत था। जो जर्नल निकल रहे थे, पेपर
पढ़े जा रहे थे उनमें केवल 40 प्रतिशत अंग्रेजी के होते थे। साठ प्रतिशत
दूसरी भाषाएं थीं। रूसी थी, जर्मन थी, फ्रेंच थी, चीनी थी। ये सारी भाषाएं
थीं। उन्होंने बताया जिससे मेरी आंखे खुलीं कि अब वह स्पेस 40 से बढ़कर 70
से 80 प्रतिशत हो गया है और बाकी भाषाएं सिंकुड़ गयीं। जो देश अंग्रेजी का
विरोध करते थे अब वे उसे स्वीकार करने लगे हैं। अब स्थिति यह आ गयी है कि
हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम अपनी भाषाओं से प्यार तो करेंगे, अपनी
भाषाओं को समृद्ध करने की भी कोशिश करेंगे और यह भी कोशिश करेंगे कि जो
कुछ अंग्रेजी में अच्छा है वह हिन्दी में भी आ जाये। लेकिन अब हमें
अंग्रेजी के महत्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा। तो बच्चों, मैं आपसे यह कहना
चाहता हूँ कि आप थोड़ा समय अंग्रेजी को भी दीजिये। जब आप जायेंगे किसी
कम्पनी में कैम्पस सेलेक्शन के लिए और यदि आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं,
अंग्रेजी में बात नहीं कर पाते हैं तो 50 प्रतिशत सम्भावना तो वैसे ही
खत्म हो गयी। अब जहाँ एक लड़का 50 नम्बर से शुरू कर रहा है वहाँ आपको जीरो
से शुरू करना पड़ेगा। मैं तिवारी जी से कहूंगा कि अंग्रेजी पढ़ाने की अलग
से भी व्यवस्था की जाये। आपको भी इसके लिए कोशिश करनी होगी। यह काम केवल
विद्यालय नहीं कर पायेगा। आपके अन्दर इसके लिए इच्छा होनी चाहिए। जैसा
मैंने शुरू में कहा था कि अधिक से अधिक अखबार व पत्रिकाओं को पढ़ें। कोशिश
कीजिये कि उनमें अंग्रेजी के भी रहें। कम्यूनिकेशन की जो भाषा बनेगी वह
अखबारों व पत्रिकाओं से बनेगी। 50-100 साल पहले की साहित्यिक भाषा बहुत काम
नहीं आयेगी। आप देख रहे हैं कि भाषाएं तेजी से बदल रही हैं। एस0एम0एस0 की
भाषा, इंटरनेट की भाषा को यदि इंग्लिश का अध्यापक देखेगा तो अपना सिर पीट
लेगा। इसमें ग्रामर वगैरहा की ऐसी तैसी कर दी जाती है। मैंने खुद अंग्रेजी
में एम0ए0 किया है, मुझे बड़ी समस्या आती है जब मेरा बेटा मुझे अंग्रेजी
में पत्र लिखता है, उसके लिए ग्रामर, स्पेलिंग व सिन्थेसिस का कोई मतलब
नहीं रह गया। लेकिन कम्यूनिकेशन के लिए यह भाषा जानना भी जरूरी है।
कम्यूनिकेशन
स्किल डेवलप करने के लिए साहित्य से अपना रिश्ता अवश्य जोडि़ये और आदत
डालिए कि महीने में एक उपन्यास अवश्य पढ़ेंगें। दो कविताएं गाकर सुनाएंगे।
इन पर लड़के-लड़कियाँ आपस में चर्चा करें। एक दूसरे को बतायें कि मैंने यह
पढ़ा और मुझे उसमें यह अच्छा लगा और क्या खराब लगा।
तीसरी
और अतिंम चीज है कि अपने मन में यह बिठा लीजिए कि ये जो आप शंभूनाथ
इन्स्टीट्यूट में तीन-चार साल बिता रहे हैं ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। ये
तीन-चार साल आपके अगले तीस-चालिस साल की जिन्दगी तय करने जा रहे हैं। इन
3-4 सालों में आप खूब इन्ज्वाय कर लीजिये। आप सोच लें कि बाप खर्चे के लिए
पैसा भेज रहा है, इसमें आप खूब मस्त रहिये और बाकी 30-40 साल रोते रहिये
या इन 3-4 सालों में आप फोकस तरीके से अपने आपको तैयार कीजिये और ये कड़वी
दवा की तरह मानिये कि जो आपको यूनिफार्म पहनकर आने के लिए कहा जा रहा है
आपसे कहा जा रहा है कि आप क्लास में समय से आओ, कहा जा रहा है कि इम्तहान
में नहीं बैठने दिया जायेगा यदि अटैन्डेंस शार्ट होगी। ये कड़वी दवा है। इस
कड़वी दवा को पीकर आप अगले 30-40 साल इन्ज्वाय कर सकते हो, एक अच्छा जीवन
बिता सकते हैं। समाज में आप अपने को एक उपयोगी नागरिक के रूप में पा सकते
हैं।
मुझे ये
बातें कहनी थीं कह दीं लेकिन मेरे कहे हुए को सच मत मानिये, जाइये, सोचिये,
विचारिये। मेरा तो इसमें विश्वास है कि असली शिक्षा वह है जो आपको
प्रश्नाकुल बनाये। मैं यही बात अपने विश्वविद्यालय में कहता हूँ। हम सवाल
सोचना और पूछना शुरू करें। हमारे समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सामाने
पायनियर अखबार के एक एडीटर रहते थे। वे कहते थे कि यदि किसी व्यक्ति के 5
डबलू दोस्त हैं तो कोई दुश्मन उसे हरा नहीं सकता। वे 5 डबलू थे -व्हाई
(क्यों), व्हेयर (कहाँ), व्हेन (कब), व्हाट (क्या), हू (कौन)। ये सवाल हैं । हमारे साथ दिक्कत यह है कि हमें सिखाया जाता है कि जो किताबों में
लिखा है उसे सच मान लो। अध्यापक जो कह रहे हैं, उसे सच मान लो, मां-बांप जो
कह रहे हैं, उसे सच मान लो। मैं मानता हूं कि यदि आपने सब की बातों को सच
मानना शुरू कर दिया तो आप तरक्की नहीं कर सकते। आप सवाल पूछिये। जो बातें
मैंने कहीं हैं उन पर विचार कीजिये। आपको लगता है कि यह बूढ़ा आदमी अपनी
बकवास करके चला गया तो आप बिल्कुल मत मानिये। आप सवाल नहीं पूछेंगे और आपने
इसलिए मान लिया क्योंकि मैंने कह दिया तो यह ठीक नहीं होगा। इस मामले में
आप गौतम बुद्ध को हमेशा याद रखिये। गौतम बुद्ध ने कहा कि किसी भी बात को
आंख मूंद कर मत मानो। हर बात को कसौटी पर कसकर देखो कि यह बात हमारे लिए,
समाज के लिए उपयोगी है या नहीं। जो बातें आज मैंने आपके सामने रखीं उन पर
मनन कीजिये। यदि उचित लगें तो उन पर अमल कीजिये अन्यथा उन्हें छोड़ दीजिये।
धन्यवाद।

व्याख्यान
शुरू होने से पहले इन्स्टीट्यूट के सचिव डा0 के0के0 तिवारी, निदेशक प्रो0
के0पी0 सिंह, डीन स्टूडेंट वेलफेयर प्रो0 डी0पी0 अग्निहोत्री तथा डीन ट्रेनिंग एण्ड प्लेंसमेंट जे0पी0 मिश्रा ने बुके, अंगवस्त्रम् एवं
स्मृतिचिन्ह भेंट करके श्री राय का स्वागत एवं अभिनन्दन किया। मुख्य
प्रशासनिक अधिकारी आर0के0 सिंह ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यक्रम का
संचालन आशुतोष श्रीवास्तवन ने किया।
व्याख्यान कार्यक्रम से पूर्व संस्था के सचिव डा0 के0के0 तिवारी ने श्री
राय से परिसर में नवस्थापित डिस्पेन्सरी का उद्घाटन कराया एवं सभी संस्थाओं
का निरीक्षण कराया।
गौरतलब
है कि 28 नवम्बर 1951 को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में जन्मे विभूति नारायण
राय वर्ष 1975 बैच के यू0पी0 कैडर के आई0पी0एस0 अधिकारी हैं। उन्होंने
उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग में सर्वोच्च पद डायरेक्टर जनरल के पद तक
पहुँचने के बाद वर्ष 2008 में वर्धा (महाराष्ट्र) स्थित महात्मा गाँधी
अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर सेवा शुरू की।
विशिष्ट सेवा के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार तथा पुलिस मैडल से सम्मानित राय
एक संवेदनशील पुलिस अधिकारी के साथ-साथ प्रगतिशील चिंतक तथा एक उच्च कोटि
के कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनके द्वारा लिखित घर, शहर में
कफ्र्यू, तबादला, प्रेम की भूतकथा तथा किस्सा लोकतंत्र हिन्दी के बहुचर्चित
उपन्यास हैं। ‘शहर में कर्फ्यू’ हिन्दी के अलावा अंगे्रजी, पंजाबी, उर्दू,
बांग्ला, मराठी आदि भाषाओं में अनुदित हो चुका है। तबादला पर उन्हें
अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान तथा किस्सा लोक तंत्र के लिए उन्हें
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का सम्मान प्राप्त हुआ है। उपन्यासों के
अलावा उनका व्यग्यं संग्रह एक छात्र नेता का रोजनामचा और संस्मरण हाशिम
पुरा, उत्तर प्रदेश पुलिस के इतिहास का एक काला अध्याय बहुचर्चित रचनांए
हैं। हिन्दी जगत की चर्चित पत्रिका वर्तमान साहित्य के पन्द्रह वर्षों तक
सम्पादन के साथ समकालीन हिन्दी कहानियां का सम्पादन उनका उल्लेखनीय कार्य
है।